सामाजिक नीति
सामाजिक नीति की अवधारणा एवं उद्देश्य
सामाजिक नीति के लक्ष्य एवं कार्य
सामाजिक नीति में मूल्य एवं विचार धारा
सामाजिक नीति एवं आर्थिक नीति में अन्तर
सामाजिक एवं आर्थिक नीति की दिषायें
सामाजिक नीति तथा आर्थिक नीति में अन्तर्सम्बन्ध/भिन्नताऐं
पंचवर्षीय योजनाओं में सामाजिक नीति
स्वतंत्रता प्राप्ति के पष्चात् सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए नियोजित विकास का सहारा लेना आवश्यक समझा गया क्योंकि यह अनुभव किया गया कि गरीबी, बेकारी जैसी अनेक गंभीर सामाजिक समस्यायें उचित विकास न होने के कारण ही हमारे समाज में व्यापक रूप से विद्यमान है सामाजिक समस्याओं को और अधिक तेज करना तथा इससे होने वाले लाभों को आम जनता में न्यायपूर्ण ढंग से बाँटना आवश्यक समझा गया और इसलिए सरकार के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह अपनी सामाजिक नीति को उचित रूप से निर्धारित कर लागू करें।
सामाजिक नीति की अवधारणा
सामाजिक नीति सामाजिक संरचना की कमियों को दूर करती है असंतलु न को रोकती हैं तथा असंतुलन वाले क्षेत्र से इसे दूर करने का प्रयास करती है:-
गोखले (1975:35) के मत में सामाजिक नीति एक साधन है, जिसके माध्यम से आकाँक्षाओं तथा पेर्र कों को इस प्रकार विकसित किया जाता है कि सभी के कल्याण की वृद्धि हो सके। सामाजिक नीति द्वारा मानव एवं भौतिक दोनों प्रकार के संसाधनों में वृद्धि की जाती है जिससे पूर्व सेवायोजन की स्थिति उत्पन्न होती है तथा निर्धनता दूर होती है।
कण्री (1959:2) ‘‘नीति कथन उस ओढ़ने के वस्त्र के ताने-बाने के धागे हैं जिनको पिरो कर तैयार होता है। ........यह सूक्ष्म ढाँचा होता है जिसमें सूक्ष्म क्रियाओं को अर्थपूर्ण ढंग से समाजिह किया जाता है।’’
लिडग (1967:7) ‘‘सामाजिक नीति सामाजिक जीवन के उन पहलुओं के रूप में मानी जाती है जिसकी उतनी अधिक विशेषता ऐसा विनिमय नहीं होता है जिसमें एक पाउण्ड की प्राप्ति उसके बदले में किसी चीज को देते हुये की जाती है जितना कि एक पक्षीय तांतरण जिन्हें प्रस्थिति, वैधता, अस्मिता या समुदाय के नाम पर उचित ठहराया जाता है।’’
सामाजिक नीति के लक्ष्य एवं कार्य
सामाजिक नीति के निम्नलिखित लक्ष्य हैं : -
.वर्तमान कानूनों को अधिक प्रभावी बनाकर सामाजिक निर्योग्यताओं को दूर करना। जन सहयोग एवं संस्थागत सेवाओं के माध्यम से आर्थिक निर्योग्यताओं को कम करना। बाधितों को पुनस्र्थापित करना। पीड़ित मानवता के दु:खों एवं कश्टों को कम करना। सुधारात्मक तथा सुरक्षात्मक प्रयासों में वृद्धि करना। शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था करना। जीवन स्तर में असमानताओं को कम करना। व्यक्तित्व के विकास के अवसरों को उपलब्ध कराना। स्वास्थ्य तथा पोशण स्तर को ऊँचा उठाना। सभी क्षेत्रों में संगठित रोजगार का विस्तार करना। परिवार कल्याण सेवाओं में वृद्धि करना। निर्बल वर्ग के व्यक्तियों को विशेष संरक्षण प्रदान करना। उचित कार्य की शर्तों एवं परिस्थितियों का आष्वासन दिलाना। कार्य से होने वाले लाभों का साम्यपूर्ण वितरण सुनिष्चित करना। भारत सरकार ने सामाजिक नीति तथा नियोजित विकास के निम्नलिखित उद्देष्यों का उल्लेख किया है : -
उन दषाओं का निर्माण करना जिनसे सभी नागरिकों का जीवन स्तर ऊँचा उठ सके। महिलाओं तथा पुरूशों दोनों को समान रूप से विकास और सेवा के पूर्ण एवं समान अवसर उपलब्ध कराना। आधुनिक उत्पादन संरचना का विस्तार करने के साथ-साथ स्वास्थ्य, सफार्इ, आवास, शिक्षा तथा सामाजिक दषाओं में सुधार लाना।
सामाजिक नीति के क्षेत्र
सामाजिक नीति के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं, जिनके कार्यों को समुचित निदेषन देना तथा उन्हें पूरा करना आवश्यक समझा जाता है : -
सामाजिक कार्यक्रम तथा उनसे सम्बन्धित कार्य : -
समाज सेवाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन, पोशण, आवास इत्यादि की लगातार वृद्धि एवं सुधार करना।निर्बल वर्ग तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कल्याण तथा उनके सामाजिक-आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना। स्थानीय स्तर पर पूरक कल्याण सेवाओं के विकास के लिए नीति निर्धारित करना।समाज सुधार के लिए नीति प्रतिपादित करना। सामाजिक सुरक्षा के लिये नीति बनाना।सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाना-आय तथा धन के असमान वितरण में कमी लाना, आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण पर रोक लगाना तथा समान अवसर उपलब्ध कराने के लिये प्रयास करना। समुदाय के विभिन्न वर्गों से सम्बन्धित सामाजिक नीति :प्रत्येक ऐसे समुदाय में जहाँ औद्योगीकरण तथा आधुनिकीकरण तीव्रगति से होता है, दो वर्गों का अभ्युदय स्वाभाविक है। एक वर्ग ऐसा होता है जो उत्पन्न हुये नये अवसरों से पूरा लाभ उठाता है। उदाहरण के लिये, उद्योगपति, बड़े-बड़े व्यवसायी, प्रबन्धक तथा बड़े कृशक। दूसरा वर्ग वह होता है जो जीवन की मुख्य धारा से अलग होता है और जिसे वर्तमान योजनाओं के लाभ नहीं मिल पाते। उदाहरण के लिये, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, जन-जातियों के सदस्य, मलिन बस्तियों के निवासी, असंगठित उद्योगों में लगे हुये मजदूर इत्यादि।
सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समाज के विभिन्न वर्गों से सम्बन्धित सामाजिक नीति :प्रत्येक समाज के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण वर्ग होते हैं जिनका कल्याण आवश्यक माना जाता है। उदाहरण के लिये, कम आयु के बच्चे, विद्यालय का लाभ न उठा पाने वाले बच्चे, अध्ययन के दौरान ही कुछ अपरिहार्य कारणों से विद्यालय को छोड़कर चले जाने वाले बच्चे तथा नौजवान।
सामाजिक नीति का उद्देश्य
सामान्य रूप से सामाजिक नीति का उद्देष्य ग्रामीण तथा नगरीय, धनी तथा निर्धन, समाज के सभी वर्गों को अपना जीवन-स्तर ऊँचा उठाने के अवसर प्रदार करना तथा विभिन्न गम्भीर सामाजिक समस्याओं का समुचित निदान करते हुये उनका निराकरण करना है ताकि किसी भी वर्ग के साथ अन्याय न हो। तारलोक सिंह का मत है, ‘‘सामाजिक नीति का मूल उद्देष्य ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना होना चाहिये जिनमें प्रत्येक क्षेत्र, नगरीय अथा ग्रामीण तथा अपनी विशिष्ट एवं पहचाने जाने योग्य समस्याओं सहित प्रत्येक समूह अपने को ऊपर उठाने, अपनी सीमाओं को नियंत्रित करने तथा अपनी आवासीय स्थितियों एवं आर्थिक अवसरों को उन्नत बनाने और इस प्रकार समाज सेवाओं के मौलिक अंग बनने में समर्थ हो सके।’’
सामाजिक नीति से सम्बन्धित प्रमुख कारक : सामाजिक नीति का निर्धारण करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है : (1) विकास स्वयं में एक प्रक्रिया है। यह सतत् चलने वाली सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के एक इच्छित दिषा में निदेशित किये जाने पर प्रारम्भ होती है। यह आवश्यक अभिवृद्धि एवं सामाजिक प्रगति दोनों के लिये आवश्यक है। सामाजिक परिवर्तन की मूलभूत प्रक्रिया पर आधारित होने के कारण विकास की प्रक्रिया का सही दिषा निदेशन आवश्यक है। (2) विकास के सिद्धान्तों को समाज की स्थिति को ध्यान में रखते हुए अपनाया जाना चाहिये। किसी भी विकासषील अथवा विकसित देश को किसी अन्य देष की परिस्थितियों में सफल सिद्ध हुर्इ विकास की पद्धतियों एवं उपकरणों का अंधा अनुकरण नहीं करना चाहिये। (3) सामाजिक नीति के निर्धारण तथा कार्यान्वय में जन सहभागिता, विशेष रूप से युवा सहभागिता, आवश्यक होती है क्योंकि ऐसी स्थिति में जो भी योजनायें एवं कार्यक्रम बनाये जाते हैं उनके प्रति लोगों का लगाव होता है और वे इनकी सफलता के लिये तन, मन और धन प्रत्येक प्रकार से अपना अधिक से अधिक योगदान देते हैं।
सामाजिक नीति में मूल्य एवं विचार धारा
क्योंकि सामाजिक नीति का प्रमुख उद्देष्य लोगों को सामाजिक न्याय दिलाते हुये चौमुखी सामाजिक - आर्थिक विकास करना है, इसलिए इसे प्रभावपूर्ण बनाने की दृष्टि से सामाजिक नीति में मानवीय मूल्यों एवं वैचारिकी का होना आवश्यक है जिसे निम्न बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है :
किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में राज्य को अपना कल्याणकारी रूप परावर्तित करने के लिये इसके माध्यम से सामाजिक नीति का निर्माण करना होगा। सामाजिक नीति के समुचित प्रतिपादन हेतु आवश्यक तथ्यों का संग्रह करने के लिए सामाजिक सर्वेक्षण तथा मुल्यांकन को समुचित महत्व प्रदान करना होगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, मनोरंजन जैसी समाज सेवाओं तथा निर्बल एवं शोशण का सरलता पूर्वक शिकार बनने वाले वर्गों के लिये अपेक्षित सेवाओं के बीच आवश्यक संतुलन स्थापित करना होगा ताकि समाज का समुचित विकास सम्भव हो सके। राज्य को समाज सेवियों एवं समाज कार्यकर्ताओं के प्रति अपने वर्तमान सौतेले व्यवहार को बदलते हुए उन्हें इच्छित सामाजिक स्वीकृति प्रदान करनी होगी। राज्य को समाज - कल्याण प्रषासन के क्षेत्र में समाज कार्यकर्ताओं तथा अवैतनिक समाज - सेवकों को उचित एवं सम्मानजनक स्थान देना होगा। राज्य को सामाजिक परिवर्तन की अनवरत प्रक्रिया के कारण सामाजिक परिस्थितियों में होने वाले निरन्तर परिवर्तन की पृश्ठभूमि में सभी समाज - सेवियों, समाज कार्यकर्ताओं, अधिकारियों तथा संस्थाओं के कर्मचारियों के लिए समुचित प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी होगी। सामाजिक नीति का निर्धारण इस बात को ध्यान रखकर करना होगा कि आर्थिक दषाओं में सुधार तभी हो सकता है जबकि सामाजिक दषाओं में वांछित परिवर्तन लाया जाये।
सामाजिक नीति एवं आर्थिक नीति में अन्तर
विकास सम्बन्धी क्षमता की जाँच - पड़ताल, राश्ट्रीय संसाधनों का सर्वेक्षण, वैज्ञानिक शोध तथा विपणन सम्बन्धी शोध।सार्वजनिक तथा निजी एजेन्सियों के माध्यम से उपयुक्त अवस्थापना यथा-जल, विद्युत, परिवहन तथा संचार की व्यवस्था।विषेशीकृत प्रशिक्षण सुविधाओं तथा उपयुक्त सामान्य शिक्षा की व्यवस्था ताकि आवश्यक कुशलताओं को सुनिष्चित किया जा सके।आर्थिक क्रिया के कानूनी ढाँचे में,विशेष रूप से भूमि सम्बन्धी पट्टों, निगमों तथा व्यापारिक लेन - देन से सम्बन्धित नियमों में सुधार।और अधिक संख्या में तथा और अधिक प्रभावपूर्ण बाजारों का निर्माण जिसके अन्तर्गत बाजारों, विनिमय, बैंकिंग, बीमा तथा अन्य कर्इ सुविधायें सम्मिलित हैं।सम्भावित स्वदेषी और विदेषी उद्यमियों का पता लगाते हुए उनके लिए सहायता का प्रावधान।आर्थिक प्रलोभन तथा आर्थिक संसाधनों के दुरूपयोग के विरूद्ध आवश्यक नियंत्रण लगाते हुए उपलब्ध संसाधनों के सर्वोत्तम ढंग से सदुपयोग किये जाने का प्रोत्साहन। निजी तथा सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों में बचत की अभिवृद्धि को प्रोत्साहन। अन्य इस प्रकार है:-
पूर्ण रोजगार प्रदान करना- आर्थिक एवं तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप बेकारी बढ़ती है। इसलिए आर्थिक नीति को इस प्रकार निर्धारित किया जाना चाहिए ताकि रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त हो सकें।
असमानताओं को दूर करना- मिश्रित अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक अर्थों में निजी क्षेत्र पर आश्रित होने के कारण आर्थिक संसाधन कुछ व्यक्तियों के पास संकेन्द्रित हो जाते हैं जिसके कारण निर्धन और अधिक निर्धन हो जाता है तथा धनी और अधिक धनी। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि राज्य कुछ ऐसे कदम उठाये ताकि आर्थिक असमानतायें कम से कम हो सकें और धन तथा आय का साम्यपूर्ण वितरण संभव हो सके। समाज सेवाओं का विकास तथा इनके विस्तार क्षेत्र का प्रसार इसीलिये किया जाता है ताकि यह असमानतायें दूर हो सकें।
निर्धनता को समाप्त करना- मिश्रित अर्थव्यवस्था में बढ़ती हुर्इ आर्थिक असमानतायें निर्धनों को और अधिक निर्धन बनाती है और उन्हें ऐसी स्थिति में संतोश का अनुभव करने के लिए बाध्य करती हैं। निर्धनता को तब तक दूर नहीं किया जा सकता जब तक कि इस बात को ध्यान में रखकर आर्थिक नीति का निर्धारण न किया जाये।
संसाधनों का समुचित प्रयोग- विकासषील देषों में संसाधनों - भौतिक तथा मानवीय दोनों, के सीमित होने के कारण आर्थिक उन्नति के लिए यह आवश्यक होता है कि जो भी संसाधन उपलब्ध हैं उनका अधिक से अधिक सदुपयोग किया जाये और किसी भी स्थिति में इन संसाधनों का दुरूपयोग न होने दिया जाये।
संतुलित क्षेत्रीय विकास- किसी भी देष के विभिन्न क्षेत्र आवश्यकताओं तथा संसाधनों दोनों ही दृष्टियों से भिन्न होते है। कछु क्षेत्र विकास सम्बन्धी प्रयासों की अपेक्षा अधिक रखते हैं और कुछ कम। इसलिए यह आवश्यक होता है कि उन क्षेत्रों के विकास पर अधिक ध्यान दिया जाये जो सापेक्षतया पिछड़े हुये हैं।
विकास की तीव्र गति- कुछ परिस्थितियों में सम्पूर्ण देश में तथा कुछ विशिष्ट प्रकार के क्षेत्रों के अन्तर्गत विकास के तीव्रगति से चलाये जाने की आवश्यकता होती है। यह तभी संभव है जबकि आर्थिक नीति में इस आशय के विशिष्ट प्रावधान किये जायें।
आर्थिक स्थिरता बनाये रखना- अनेक ऐसे आन्तरिक एवं बाह्य कारक तथा शक्तियां पायी जाती हैं जो अर्थव्यवस्था में अस्थिरता उत्पन्न करती है। उदाहरण के लिए, कुछ विदेषी शक्तियों की द्वेशपूर्ण तथा निहित स्वार्थ वाली प्रवृत्ति, अनेक प्रकार के आकस्मिक संकट इत्यादि। इसलिए देष में आर्थिक अस्थिरता का अनुरक्षण आर्थिक नीति का एक स्पश्ट उद्देष्य होना चाहिए।
सामाजिक एवं आर्थिक नीति की दिषायें
विकास की प्रक्रिया को आधुनिकीकरण की ओर ले जाते समय दो प्रष्न उठते हैं : 1. विकास की नीति कैसी हो? तथा 2. विकास के अवांछनीय परिणामों को किस प्रकार की नीति का आश्रय लेते हुए रोका जा सकता है? सामुदायिक सहभागिता किसी भी आर्थिक कार्यक्रम की सफलता की एक आवश्यक शर्त है क्योंकि बाहर से थोपा हुआ कोर्इ भी कार्यक्रम इसलिए सफल नहीं हो पाता क्योंकि इसके प्रति लोगों का लगाव नहीं होता और साथ ही साथ वह उनकी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं का परावर्तन भी नहीं करता। इसलिए विकास के माध्यम से आधुनिकीकरण का लक्ष्य तभी प्राप्त हो सकता है जबकि इससे सम्बन्धित सामाजिक एवं आर्थिक नीति उचित हो। इस प्रकार की नीति की निम्नलिखितविशेषतायें होती हैं :
(1) नये अवसरों यथा पानी, विकास सम्बन्धी उपकरण, बीज इत्यादि को समुदाय की इच्छा पर पूरी तरह से छोड़ देने वाली नीति-प्राय: यह देखा जाता है कि प्रत्येक ऐसी नीति असफल हो जाती है जिसे लोग स्वीकार करने तथा उपयोग में लाने के लिए तैयार न हों क्योंकि यदि वे उसे अपने लिए लाभकारी नहीं मानते अथवा इसका उपयोग करना नहीं जानते तथा इसके परिणामस्वरूप किसी पक्र ार की असुविधा अनुभव करते हैं तो वे निष्चित रूप से उसका बहिश्कार करेंगे। ऐसी परिस्थिति में नीति का असफल होना और भी अधिक अवष्यमभावी हो जाता है जबकि इसके कार्यान्वयन का उत्तरदायित्व ऐसे व्यक्ति (यों) को दे दिया जाता है जो सम्बन्धित सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृश्ठभूमि से अनभिज्ञ होता है।
(2) जीवन के किसी न किसी अंष में आवश्यक रूप से परिवर्तन लाने वाली नीति-जब तक नीति ऐसी नहीं होती जो सम्बन्धित लोगों के जीवन के किसी न किसी पहलू में कोर्इ न कोर्इ परिवर्तन अवष्य उत्पन्न करे, तब तक इसका सफल होना संदेहास्पद रहता है। परिवर्तन के ये आयाम उनके हो सकते हैं। यथा, गांवों को शहरों से जोड़ देना,शिक्षा को अनिवार्य बना देना इत्यादि। यहां पर यह उल्लेखनीय है कि जहां परिवर्तनकारी नीतियों का स्वागत होता है वहीं कुछ ऐसे भी परम्परावादी व्यक्ति होते हैं जो इनका विरोध करते है। इसलिए आवश्यक सावधानी बरतते हुये सामाजिक नीति इस प्रकार निर्धारित की जानी चाहिए ताकि यह परिवर्तन क्रांतिकारी न होकर उद्विकासीय हो।
(3) सम्भावित अवांछनीय परिणामों को पूर्णरूपेण स्पश्ट करने वाली नीति- सामाजिक - आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अनेक अवसर आते हैं जिन पर अवांछनीय कारकों के सक्रिय होने का खतरा रहता है। किसी भी प्रकार के परिवर्तन के होने पर मूल्य बदलते हैं तथा व्यवहार के प्रतिमानों में परिवर्तन होता है और कभी-कभी सांस्कृतिक - आध्यात्मिक “ाून्यता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति परिवर्तनकारी नीति को अभिषाप समझने लगता है। उदाहरण के लिए, औद्योगीकरण प्रक्रिया का परिणाम परिवार की संस्था के स्वरूप एवं प्रकार्यों में कुछविशेष प्रकार के परिवर्तन हैं जिसके प्रति लोगों को अवगत कराया जाना इसलिए आवश्यक है ताकि उनके अन्तर्गत औद्योगीकरण के विरूद्ध मनोवृत्तियां एवं मूल्य न बन सकें, और यह कार्य सामाजिक नीति के माध्यम से ही समाज वैज्ञानिक द्वारा प्रभावपूर्ण रूप से किया जा सकता है। इस प्रकार सामाजिक नीति को सम्भावित अवांछनीय परिणामों की रोक-थाम के लिए अपेक्षित रणनीति को भी स्पश्ट करना चाहिए।
(4) उचित मार्ग-दर्षन करने वाली नीति- विकास के परिणामस्वरूप आकस्मिकताओं एवं उनके घटित होने की संभावना भी बढ़ जाती है जिसके परिणामस्वरूप असुरक्षा की भावना में वृद्धि होती है। इनमें से सर्वाधिक भयावह स्वयं जीवन सम्बन्धी असुरक्षा है जिससे बचने के लिए व्यक्ति सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों प्रकार के अनेक समूहों का निर्माण करता है और नकारात्मक समूहों के चंगुल में फंस जाने पर स्थिति कहीं अधिक भयावह हो जाती है। इसीलिए सामाजिक नीति ऐसी होनी चाहिए जिसके अन्तर्गत विकास के परिणामस्वरूप असुरक्षा की भावना का शिकार हुए व्यक्ति को आवश्यक मार्गदर्षन भी प्राप्त हो सके।
(5) मानवीय मूल्यों का अनुरक्षण करने वाली नीति- भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, सुखवाद, प्रकार्यात्मक उपयोगिता तथा तार्किकता के वर्तमान युग में मानवीय मूल्यों के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। इनकी रक्षा तभी की जा सकती है जबकि निर्धारित की जाने वाली नीति में इस आषय के प्रावधान किये जायें।
(6) परम्परागत प्रकार्यात्मक सामाजिक संस्थाओं को अनुरक्षित करने वाली नीति- विकास का तात्पर्य यह नहीं होता कि उन सामाजिक संस्थाओं को भी नश्ट कर दिया जाए जो प्रकार्यात्मक दृष्टि से समाज के लिए उपयोगी हैं। बल्कि सामाजिक नीति ऐसी होनी चाहिए जो स्थान एवं काल की मांग के अनुसार नवीन सामाजिक संस्थाओं का सृजन करने के साथ-साथ इन प्राचीन संस्थाओं को भी अनुरक्षित करे।
सामाजिक नीति तथा आर्थिक नीति में अन्तर्सम्बन्ध/भिन्नताऐं
वास्तव में समाज की उन्नति तभी हो सकती हैं जबकि उसका सवांर्ग ीण विकास हो। यह एक तथ्य है कि समाज के अन्तर्गत पायी जाने वाली विभिन्न सामाजिक इकाइयों तथा उनकी स्थितियों में परस्पर निर्भरता है क्योंकि वे एक सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्सम्बन्धित अंग हैं। इसलिए किसी एक क्षेत्र को विकसित करने के लिए समाज के अन्य क्षेत्रों तथा इनसे सम्बन्धित इकाइयों और उनकी स्थितियों पर भी ध्यान देना पड़ता है। उदाहरणर्थ, यदि किसी नयी प्रौद्योगिकी की सहायता से आर्थिक समृद्धि सम्भव है तो हमें यह भी देखना पड़ता है कि इस प्रौद्योगिकी के अन्य सम्भावित परिणाम क्या होंगे? लोगों की इसके प्रति मनोवृत्ति क्या होगी? इसको सफलतापूर्वक अपनाने की दृष्टि से लोगों में विद्यमान ज्ञान एवं निपुणताओं की स्थिति क्या है? इत्यादि। इससे यह सुस्पश्ट हो जाता है कि सामाजिक नीति के आर्थिक परिणाम होते हैं और आर्थिक नीति के सामाजिक परिणाम होते हैं और इन दोनों को एक-दूसरे से पूर्ण पृथकता की स्थिति में न देखकर पूरक अन्योन्याश्रितता की स्थिति में देखा जाना चाहिए।सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों में कुछ समानतायें तथा विभिन्नतायें ये हैं : -
समानतायें
(1) उद्देष्यों में समानता- सामाजिक तथा आर्थिक नीति दोनों का ही उद्देष्य सामाजिक जीवन को अधिक सुख एवं शन्तिमय बनाना है। यह तभी सम्भव है जबकि सामाजिक एवं आर्थिक दोनों प्रकार की परिस्थितियों में इच्छित परिवर्तन लाये जायें। इन दोनों का एक दूसरा महत्वपूर्ण उद्देष्य सामाजिक - आर्थिक न्याय प्रदान करना है। यदि आर्थिक नीति को सामाजिक नीति से अलग कर दिया जाये तो आर्थिक समानता के बजाय असमानता अधिक तेजी से बढ़ने लगती है। उदाहरण के लिए, यदि बड़े-बड़े उद्योगपतियों को स्वच्छन्दता-पूर्वक अपने उद्योगों को विकसित करने दिया जाए तो छोटे उद्यमी नश्ट हो जायेंगे और आर्थिक विशमता अत्यधिक बढ़ जायेगी। तीसरा सामान्य उद्देष्य, निर्धनता को दूर करना तथा मानव एवं भौतिक संसाधनों में वृद्धि करना है।
(2) विशय वस्तु की समानता- सामाजिक तथा आर्थिक दोनों ही नीतियों का निर्धारण लोगों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने की दृष्टि से समाज के हित में किया जाता है और इस प्रकार दोनों का ही कार्य क्षेत्र व्यक्ति, समूह, समुदाय तथा सम्पूर्ण समाज होता है।
(3) कार्यान्वयन सम्बन्धी व्यवस्था में समानता- सामाजिक तथा आर्थिक दोनों प्रकार की नीतियों का कार्यान्वयन अनेक ऐसे विभागों के माध्यम से किया जाता है जो दोनों प्रकार के कार्य एक ही साथ करते हैं। जैसे, ग्राम्य-विकास विभाग, समाज-कल्याण विभाग इत्यादि।
(4) जन सहभागिता की आवश्यकता- सामाजिक तथा आर्थिक दोनों प्रकार की नीतियों की सफलता के लिए जन सहभागिता आवश्यक है क्योंकि जब तक इन्हे जनता द्वारा स्वीकार नहीं किया जायेगा तब तक जनता इन्हें अपना नहीं समझेगी और इनके कार्यान्वयन में अपना योगदान नहीं देगी।
विभिन्नतायें
(1) प्रणाली की भिन्नता- सामाजिक नीति का निर्धारण विष्वासों, आस्थाओं, मूल्यों, मनोवृत्तियों इत्यादि को ध्यान में रखते हुए किया जाता है जबकि आर्थिक नीति का निर्धारण आर्थिक क्रिया के लिए आवश्यक तत्वों की उपलब्धता के आधार पर किया जाता है।
(2) उपागम में भिन्नता-सामाजिक नीति समाज में सुधार व परिवर्तन को अधिक महत्व देती है जबकि आर्थिक नीति आर्थिक कारकों यथा सकल राश्ट्रीय उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति आय पर अधिक बल देती है।
(3) कार्य क्षेत्र में भिन्नता- सामाजिक नीति का कार्य क्षेत्र शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, मनोरंजन जैसे क्षेत्र हैं जिनसे समाज के सभी वर्गों के लोगों,विशेष रूप से निर्बल एवं शोशण किये जाने योग्य वर्गों, को लाभ होता है, जबकि आर्थिक नीति का कार्यक्षेत्र उत्पादन, उपभोग, विनिमय, वितरण तथा राजस्व होता है।
संवैधानिक सामाजिक नीति- भारत की सामाजिक नीति से अभिप्राय क्रिया के ऐसे व्यक्त मार्ग से है जो भारत में समाज सेवाओं अर्थात् ऐसी सेवाओं जो जनसंख्या के सभी वर्गों के व्यक्तियों के लिए उनके व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए उपयुक्त अवसर उपलब्ध कराने हेतु प्रत्यक्ष रूप से प्रदान की जानी है, के आयोजन का मार्गदर्षन करता है। भारत की सामाजिक नीति के दो महत्वपूर्ण स्रोत है:
भारतीय संविधान, तथा भारत की पंचवर्षीय योजनायें। संविधान के चौथे खण्ड-राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त में सामाजिक नीति का वर्णन स्पश्ट रूप से किया गया है :
अनुच्छेद 38 के अन्तर्गत यह कहा गया है :
राज्य उतने अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से जितना यह कर सकता है, एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना एवं संरक्षण द्वारा लोगों के कल्याण के प्रोत्साहन हेतु प्रयास करेगा जिसमें राश्ट्रीय धारा की संस्थाओं में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय लाया जायेगा। राज्य विशिष्ट रूप से न केवल विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले अथवा विभिन्न व्यवसायों में लगे हुये व्यक्तियों बल्कि लोगों के समूहों में भी आय की असमानताओं को कम करने हेतु प्रयत्न तथा स्थिति, सुविधाओं एवं अवसरों में असमानताओं के निवारण हेतु प्रयास करेगा।’’ अनुच्छेद 39 में प्रावधान किया गया है : ‘‘राज्य विशिष्ट रूप से अपनी नीति को प्राप्त करने हेतु निदेशित करेगा -
यह कि नागरिकों, पुरूशों एवं महिलाओं, को समान रूप से समुचित आजीविका के कमाने के साधन का अधिकार प्राप्त हो,यह कि समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व एवं नियंत्रण इस प्रकार वितरित हो कि सामान्य निहित की सर्वोत्तम पूर्ति हो सके, यह कि अर्थव्यवस्था का संचालन सामान्य अहित हेतु सम्पत्ति एवं उत्पादन के साधनों का संकेन्द्रण उत्पन्न न करे,यह कि पुरूशों एवं महिलाओं दोनों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन हो, यह कि श्रमिकों, पुरूशों एवं महिलाओं के स्वास्थ्य एवं शक्ति तथा बच्चों की कोमल आयु का दुरूपयोग न हो और यह कि नागरिक आर्थिक आवश्यकता द्वारा अपनी आयु एवं शक्ति के लिए अनुपयुक्त कार्यों को करने के लिए बाध्य न किये जायें,यह कि बच्चों को स्वस्थ रूप से तथा स्वतंत्रता एवं सम्मान की स्थिति में विकसित होने के अवसर एवं सुविधायें प्रदान की जायें और यह कि बाल्यावस्था एवं युवावस्था का शोशण एवं नैतिक तथा भौतिक परित्याग के विरूद्ध संरक्षण किया जाय।’’ अनुच्छेद 39 ए के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गयी है :‘‘राज्य इस बात की व्यवस्था करेगा कि वैधानिक व्यवस्था का संचालन समान अवसर के आधार पर न्याय को प्रोत्साहित करता हो औरविशेष रूप से उपयुक्त विधान अथवा योजना अथवा अन्य किसी प्रकार से नि:षुल्क कानूनी सहायता यह सुनिष्ििचत करने के लिए करेगा कि न्याय प्राप्त करने के अवसरों से कोर्इ नागरिक आर्थिक अथवा अन्य निर्योग्यताओं के कारण वंचित न रह सके।’’
अनुच्छेद 41 में कहा गया है : ‘‘अपनी आर्थिक क्षमता एवं विकास की सीमाओं के अधीन राज्य कार्य, शिक्षा एवं बेकारी, वृद्धावस्था, बीमारी एवं असमर्थता की स्थितियों में तथा अवांछनीय आवश्यकता की अन्य स्थितियों में जन सहायता अधिकार को प्राप्त कराने हेतु प्रभावपूर्ण प्रावधान करेगा।’’
अनुच्छेद 42 में यह व्यवस्था की गयी है : ‘‘ राज्य कार्य के लिए न्यायपूर्ण एवं मानवीय परिस्थितियों को प्राप्त करने तथा मातृत्व सहायता के लिए प्रावधान करेगा।’’
अनुच्छेद 43 में यह कहा गया है : ‘‘उपयुक्त विधान अथवा आर्थिक संगठन अथवा अन्य किसी प्रकार से राज्य सभी श्रमिकों, कृशि से सम्बन्धित, औद्योगिक अथवा अन्य के लिए कार्य, जीवन निर्वाह मजदूरी, अच्छे जीवन का आष्वासन प्रदान करने वाली कार्य की शर्तों तथा रिक्त समय एवं सामाजिक तथा सांस्कृतिक अवसरों को पूर्ण आनन्द दिलाने हेतु प्रयास करेगा, औरविशेष रूप से, राज्य ग्रामीण अंचलों में व्यक्तिगत अथवा सरकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करने हेतु प्रयास करेगा।’’
अनुच्छेद 43 ए में यह प्रावधान किया है : ‘‘उपयुक्त विधान द्वारा अथवा अन्य किसी प्रकार से राज्य उद्योग के प्रतिश्ठानों, संस्थाओं अथवा अन्य संगठनों के प्रबन्ध में श्रमिकों की साझेदारी प्राप्त करने हेतु कदम उठायेगा।’’
अनुच्छेद 45 में कहा गया है : ‘‘इस संविधान के लागू होने के 10 साल की अवधि के अन्तर्गत राज्य सभी बच्चों के लिए नि:षुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा जब तक कि ये 14 वर्श की आयु को पूरा न कर लें, के प्रावधान हेतु प्रयास करेगा।’’
अनुच्छेद 46 में व्यवस्था की गयी है : ‘‘राज्य कमजोर वर्ग के लोगों औरविशेष रूप से अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के “ौक्षिक एवं आर्थिक हितों काविशेष सावधानी के साथ संवर्द्धन करेगा और सामाजिक अन्याय तथा शोशण के सभी प्रकारों के विरूद्ध संरक्षण प्रदान करेगा।’’
अनुच्छेद 47 में कहा गया है : ‘‘राज्य अपने लोगों के पोशण के स्तर और जीवन के स्तर को ऊँचा उठाने और जन स्वास्थ्य में सुधार लाने को अपना प्राथमिक कर्तव्य समझेगा और विशेष रूप से राज्य दवा के लिए मादक पेयों एवं ऐसी औशधियों एवं दवाओं के प्रयोग पर निशेध लागू करने का प्रयास करेगा जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। ‘‘
पंचवर्षीय योजनाओं में सामाजिक नीति
भारतीय संविधान के अन्तर्गत व्यक्त की गयी सामाजिक नीति को लागू करने तथा विकास की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने के लिए पंचवर्षीय योजनायें बनायी गयी हैं। इनमें सामाजिक नीति के विविध पहलुओं यथा-स्वास्थ्य, आवास,शिक्षा, मनोरंजन इत्यादि से सम्बन्धित नीतियों का उल्लेख किया गया है। सामान्यतया इन सभी योजनाओं में आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति, निर्धनता के उन्मूलन, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, सम्पत्ति, धन तथा अवसरों की असमानता में कमी, पूँजी के एकाधिकार की समाप्ति, मानव संसाधनों के विकास, व्यक्तियों की मनोवृत्तियों तथा संस्थाओं की संरचनाओं में समाजवादी व्यवस्था के अनुरूप आवश्यक परिवर्तन, विकास सम्बन्धी नीति के निर्धारण एवं कार्यान्वयन में जन-सहभागिता, निर्बल वर्गों के कल्याण में वृद्धि, विकास के समान अवसर एवं विकास की प्रक्रिया से प्राप्त होने वाले लाभों के साम्यपूर्ण वितरण की व्यवस्था की गयी है।
पहली पंचवर्षीय योजना में यह स्पश्ट रूप से कहा गया था कि विकास की दर एवं स्वरूप में क्षेत्रीय संतुलन तथा अनवरत वृद्धि पर उचित ध्यान दिया जायेगा। दूसरी पंचवर्षीय योजना में संतुलित विकास की आवश्यकता पर बल दिया गया और इसके लिए पिछड़े क्षेत्रों में शक्ति, जलपूर्ति, परिवहन तथा सिंचार्इ सम्बन्धी सुविधाओं को उपलब्ध कराने, ग्रामीण तथा लघु उद्योगों का प्रसार करने तथा नये उद्यमों के स्थान का निर्धारण करने के कार्यक्रम सम्मिलित किये गये। तीसरी पंचवर्षीय योजना में असमानताओं को दूर करने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु शक्ति, परिवहन, सिंचार्इ, शिक्षा एवं प्रशिक्षण तथा ग्रामीण एवं लघु उद्योगों का विकास करने से सम्बन्धित कार्यक्रम सम्मिलित किये गये।
1964 में आय वितरण एवं जीवन स्तर समिति ने अपने प्रतिवेदन में यह स्पश्ट किया कि आय की असमानता में कमी होने के स्थान पर वृद्धि हुर्इ है और यह वृद्धि ग्रामीण अंचलों की तुलना में नगरों में कहीं अधिक हुर्इ है। इस पृश्ठभूमि में चौथी पंचवर्षीय योजना में न्याय के साथ वृद्धि वाक्याँश का प्रयोग किया गया। इस योजना का प्रमुख उद्देष्य समाजवादी समाज की स्थापना करना, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना तथा आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना रखा गया। इस उद्देष्य को प्राप्त करने के लिए आय तथा सम्पत्ति में अधिक समानता लाने, आर्थिक क्षेत्र में एकाधिकार को कम करने, समाज में सापेक्षतया कम सुविधा प्राप्त वगांर्,े विशिष्ट रूप से, अनसु ूचित जातियों एवं जन-जातियों को आथिर्क विकास के और अधिक लाभ प्राप्त कराने पर बल दिया गया। पांचवीं पंचवर्षीय योजना में निर्धनता उन्मूलन और आत्मनिर्भरता की प्राप्ति के दो प्रमुख उद्देष्य रखे गये और निर्धनों के लिए एक न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित की व्यवस्था की गर्इ :
14 वर्श तक की आयु के बच्चों को उनके घरों के पास पाये जाने वाले स्ािानों में प्राथमिक शिक्षा की सुविधायें प्रदान करना, सभी क्षेत्रों में न्यूनतम सामुदायिक स्वास्थ्य की सुविधायें प्रदान करना जिनके अधीन निवारक, उपचारात्मक, परिवार नियोजन सम्बन्धी तथा पोशाहार सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा रोग की व्यापकता का आरम्भिक स्थिति में ही पता लगाया जाना औश्र खतरनाक रोगियों को बड़े चिकित्सालयों में भेजा जाना सम्मिलित है, बहुत अधिक कमी वाले गांवों में पीने के पानी की पूर्ति करना, 1500 या इससे अधिक आबादी वाले गांवों में सड़कों का निर्माण करना, ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन मजदूरों को आवास हेतु विकसित भूखण्ड प्रदान करना, मलिन बस्तियों के वातावरण में सुधार करना, तथा ग्रामीण विद्युतीकरण का प्रसार करना ताकि इसके अन्तर्गत ग्रामीण जनसंख्या के 30-40 प्रतिषत को सम्मिलित किया जा सके। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में निर्धनता उन्मूलन एवं आत्मनिर्भरता की प्राप्ति का उद्देष्य रखा गया। इस योजना में कृशि एवं सिंचार्इ, शक्ति, उद्योग तथा खनिज पदार्थों, ग्रामीण एवं लघु उद्योगों, परिवहन एवं संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण नियोजन एवं पोशाहार, नगरीय विकास, आवास एवं जलपूर्ति, शिल्पकार प्रशिक्षण एवं श्रम कल्याण, पर्वतीया एवं जनजातीय क्षेत्रों, पिछड़े वर्गों, समाज कल्याण एवं पुनर्वासन तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक कार्यक्रम आयोजित किये जाने की व्यवस्था की गर्इ। छठीं पंचवर्षीय योजना में निर्धनता उन्मूलन के उद्देष्य को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गयी। विशिष्ट रूप से, अर्थव्यवस्था की अभिवृद्धि की दर को बढ़ाने, संसाधनों के उपयोग में कुशलता के प्रोत्साहन तथा उत्पादकता में वृद्धि, आधुनिकीकरण, गरीबी एवं बेकारी में लगातार कमी, ऊर्जा के घरेलू स्रोतों का तीव्रगति से विकास, लोगों-विषेश रूप से, आर्थिक एवं सामाजिक रूप से बाधित जनसंख्या के जीवन की गुणवत्ता में सुधार, जननीतियों एवं सेवाओं में पुनर्वितरण पर अधिक बल, राश्ट्रीय असमानताओं में अनवरत कमी, जनसंख्या नियंत्रण, परिस्थितिकीय एवं पर्यावरणात्मक बहुमूल्य संसाधनों के संरक्षण एवं विकास की प्रक्रिया में सक्रिय सहभागिता के उद्देष्य निर्धारित किये गये। निर्धनता को दूर करने के लिए इसका पता लगाने तथा परिमापन करने, यथार्थवादी लक्ष्यों को निर्धारित करने तथा इन लक्ष्यों के अनुरूप विशिष्ट कार्यक्रमों का निर्माण करने के अभिगम का उल्लेख किया गया। रोजगार प्रदान करने हेतु लाभपूर्ण ढंग से सेवायाजित व्यक्तियों की अभिवृद्धि की दर को बढ़ाते हुए अर्द्ध बेकारी को कम करने तथा सामान्य स्थिति के आधार पर बेकारी को कम करने जिसे सामान्य रूप से खुली बेकारी के नाम से जाना जाता है, की बात कही गयी। भूमिहीन परिवारों के लिए राश्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम रोजगार दिलाने की दिषा में इस योजना के उल्लेखनीय कार्यक्रम हैं। इस योजना में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, आवास तथा नगरीय विकास, जलपूर्ति तथा सफार्इ, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण, समाज कल्याण, पोशण तथा श्रम कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रम चलाये गये। न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के माध्यम से लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति का आष्वासन प्रदान किया गया।
सतवीं पंचवर्षीय योजना में खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि, रोजगार के अवसरों में वृद्धि और उत्पादकता में वृद्धि को और अधिक बढ़ाने का उद्देष्य रखा गया। ‘‘सातवीं योजना की विकास सम्बन्धी रणनीति का प्रमुख तत्व उत्पादनकारी रोजगार उत्पन्न करना है। इसे सिंचार्इ की सुविधाओं की उपलब्धता को बढ़ाते हुए कम उत्पादकता वाले क्षेत्रों में तथा छोटे किसानों में नवीन कृशि सम्बन्धी प्रौद्योगिकी के प्रसार द्वारा सम्भव बनायी गयी सघन खेती में वृद्धि, उत्पादनकारी सम्पत्ति के निर्माण में ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के उपायों, आवास, नगरीय सुख-सुविधाओं, सड़कों और ग्रामीण अवस्थापना का प्रावधान करने हेतु श्रम सघन निर्माण क्रियाओं के प्रसार तथा औद्योगिक अभिवृद्धि के प्रतिमान में परिवर्तनों के माध्यम से इसे प्राप्त किया जायेगा। सतवीं योजना में कृशि सम्बन्धी शोध एवं शिक्षा, सहकारिता, पषुपालन एवं दुग्ध पालन, मत्स्य पालन, वन एवं वन्य जीव, ग्रामीण ऊर्जा, बृहत एवं मध्यम सिंचार्इ कार्यक्रम, लघु सिंचार्इ, कमाण्ड क्षेत्र विकास, बाढ़-नियन्त्रण, ग्रामीण एवं लघु उद्योगों, सेवायोजन, जनषक्ति नियोजन, ऊर्जा, उद्योग एवं खनिज पदार्थों, परिवहन, संचार, सूचना एवं प्रसारण, शिक्षा संस्कृति एवं खेल, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, आवास, नगरीय विकास, जलपूर्ति एवं सफार्इ, समाज कल्याण एवं पोशाहार, महिलाओं के लिए सामाजिक - आर्थिक कार्यक्रमों, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों एवं अनुसूचित जातियों के लिए सामाजिक - आर्थिक कार्यक्रमों, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पर्यावरण एवं परिस्थितिकी, न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम तथा अन्य विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों का प्रावधान किया गया।
आठवीं पंचवर्षीय योजना में सामाजिक नीति का मुख्य उद्देष्य मानव संसाधन विकास पर प्रमुख बल दिया जाना निर्धारित किया गया। इसके लिए योजना में निम्नलिखित क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गयी :
सन् 2000 तक पूर्ण रोजगार के स्तर को प्राप्त करने की दृष्टि से रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराना, जनता की भागीदारी से जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करना, प्राथमिक शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना और 15 से 35 वर्श की आयु वर्ग के लोगों में निरक्षरता को पूर्णत: समाप्त करना, सभी के लिए स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था करना, स्थार्इ विकास के लिए आधारभूत ढाँचे (ऊर्जा, परिवहन, संचार व सिंचार्इ) को विकसित करना। आठवीं योजना के अन्तर्गत मानव विकास, रोजगार, जनसंख्या और परिवार कल्याण, साक्षरता और शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, कमजोर और पिछड़े वर्ग का विकास, भूमि सुधार, कृशि, आधारभूत ढांचा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पर्यावरण एवं जंगल, आवास, नगरीय विकास, सार्वजनिक उपक्रम, व्यक्तियों की सहभागिता तथा अन्य विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों का प्रावधान किया गया।
नौवीं योजना का लक्ष्य ‘‘वृद्धि के साथ सामाजिक न्याय और समानता था। नौवीं योजना के विशिष्ट लक्ष्य जो बाजार शक्तियों पर अधिक विष्वास और सार्वजनिक नीति की अनिवार्यताओं से उत्पन्न होते हैं निम्नलिखित हैं :
कृशि और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देना ताकि पर्याप्त उत्पादक रोजगार कायम हो सके और गरीबी को दूर किया जा सके। क्ीमतों में स्थिरता के साथ अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को त्वरित करना। सभी के लिए खाद्य और पौश्टिक सुरक्षा उपलब्ध कराना और ऐसा करते हुए समाज के कमजोर वर्गों का विशेष रूप से ध्यान रखना। सभी को समय-बद्ध रूप से बुनियादी न्यूनतम सेवाएं उपलब्ध कराना इनमें पीने का सुरक्षित पानी, प्राथमिक स्वास्थ्य रक्षा सुविधाएं, सर्वव्यापक प्राथमिक शिक्षा, आवास और यातायात एवं परिवहन द्वारा सभी से सम्बन्ध स्ािापित करना। जनसंख्या की वृद्धि दर पर नियन्त्रण प्राप्त करना। जन सहभागिता को प्रोन्नत एवं विकसित करना और इसके लिए सहभागी संस्थानों अर्थात् पंचायती राज संस्थाओं, सहकारिताओं और स्वत: सहायता समूहों को बढ़ावा देना। दसवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तिम प्रारूप में कहा गया है, ‘‘दसवीं योजना नर्इ सहस्त्राब्दि के प्रारम्भ में, विगत् में प्राप्त उपलब्धियों को ऊपर उठाने तथा उभरकर सामने आर्इ कमजोरियों को दूर करने का अवसर प्रदान करती है।’’ इस योजना ने स्वीकार किया है कि, ‘‘देष में इस तथ्य को लेकर धैर्य कम होता जा रहा है कि नियोजन के पाँच दषक बीत जाने के बावजूद हमारी जनसंख्या का एक बड़ा भाग निर्धनता के गर्त में डूबा हुआ है तथा सामाजिक उपलब्धियों में खतरे की घण्टी देने वाले अन्तराल मौजूद है। ‘‘
दसवीं योजना में समता एवं सामाजिक न्याय सुनिष्चित करने के लिए त्रिसूत्रीय रणनीति अपनार्इ जायेगी :
कृशि विकास को योजना का प्रमुख तत्व के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि इस क्षेत्र के विकास का विस्तार अधिक व्यापक, विशेषरूप से ग्रामीण निर्धनों को लाभ पहुँचाना होता है। दसवीं योजना की विकास रणनीति उन क्षेत्रों के तीव्र विकास पर केन्द्रित हैं, जो लाभकारी रोजगार अवसर सृजित करते हैं, ये क्षेत्र हैं : निर्माण, पर्यअन, परिवहन, लघु उद्योग, खुदरा व्यापर, सूचना प्रौद्योगिकी तथा संचार सम्बद्ध सेवायें। सामान्य विकास प्रक्रिया से पर्याप्त रूप से लाभान्वित न हो पाने वाले विशेष कार्यक्रमों को योजनाकाल में प्रारम्भ करना। स्वास्थ्य नीति
इस नीति को कार्यान्वित करने क लिए एक के बाद दूसरी सभी पंचवर्षीय योजनाओं में स्वास्थ्य के लिए विनियोजन किया गया जो पहली पंचवर्षीय योजना के 65.2 करोड़ रूपये से बढ़कर सातवीं पंचवर्षीय योजना में 3392 करोड़ रूपया हो गया।
आठवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत जन्मदर एवं मृत्युदर क्रमश: 37 और 12.9 से घटकर 29.9 एवं 8.0 हो गर्इ। औसत आयु 58 वर्ष हो गर्इ। इस पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत मलेरिया निवारण कार्यक्रम, काला आजार एवं जापानी इन्सीफलार्इटिस, कुश्ठ निवारण अभियान, टी.बी. की रोकथाम, अंधापन को रोकने का अभियान इत्यादि कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया गया। जिससे इन सभी बीमारियों पर काफी हद तक नियन्त्रण एवं प्रभावी रूप से रोकथाम सम्भव हो पाया है।
नौवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत 1996-2001 में जन्मदर 24.10 से 2011-2016 तक 21.41 प्रतिषत तक प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया, इसी प्रकार मृत्युदर 8.99 से घटाकर 7.48 तक प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया। शिशु मृत्युदर का लक्ष्य पुरूशों के लिए 63 से 38 और लड़कियों के लिए 64 से घटाकर 39 प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया।
दसवीं पंचवर्षीय योजना में संक्रामक रोगों पर पर्याप्त सीमा तक नियंत्रण कर लिया गया है। जिसके परिणामस्वरूप मृत्युदर जो 1951 में 25 थी 2001 में घटकर 8.1 रह गयी तथा शिशु मृत्युदर जो 1951 में 146 प्रति हजार थी, घटकर 2002 में 64 प्रति हजार रह गयी तथा जीवन प्रत्याषा जो 1951 में 36.7 थी, बढ़कर 2000 में 64.6 हो गयी। चेचक जैसी महामारी पर नियंत्रण कर लिया गया है, हैजे को रोकने में पर्याप्त सफलता मिली है, कुश्ठ निवारण के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य हुआ है और 1989 तक 708 कुश्ठ निवारण इकाइयाँ स्ािापित की जा चुकी थीं तथा 7400 सर्वेक्षण एवं उपचार केन्द्र खोले जा चुके थे। वर्तमान समय में देश में फाइलेरिया रोग के मामलों की संख्या 2 करोड़ 90 लाखा और सूक्ष्म फाइलेरिया वाहकों की संख्या 2 करोड़ 20 लाख है। इस स्थिति को ध्यान में रखकर 206 फाइलेरिया रोग नियंन्त्रण इकार्इयों, 199 फाइलेरिया रोग क्लीनिकों और 27 फाइलेरिया रोग सर्वेक्षण इकार्इयों को स्ािापित किया गया है। एच. आर्इ. वीसंक्रमित व्यक्तियों की अनुमानित संख्या, जो 1991 में 10 से 20 लाख के बीच थी, 1998 में बढ़कर 35 लाख और 2000 में बढ़कर 39 लाख तक पहुँच गयी। संक्रमित व्यक्तियों में 50 प्रतिशत से अधिक महिलाएं आरै बच्चे है। एच. आर्इ. वी./एड्स का पता लगाने एवं उपचार करने के लिए आवश्यक शोध किये जा रहे हैं, रक्त बंकै सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। मादक द्रव्य व्यसन को रोकने तथा व्यसन के शिकार व्यक्तियों का पता लगाने एवं उनके उपचार हेतु केन्द ्र खोले जा रह है। राश्ट्रीय क्षय नियन्त्रण कार्यक्रम के माध्यम से क्षयरोग को रोकने में पर्याप्त सफलता मिली है। सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम के अधीन सभी गर्भवती महिलाओं को शत-प्रतिशत टीके लगने तथा शत-प्रतिशत बच्चों को 6 बड़े रोगों से बचाना है।
श्यामपट प्रचालन
अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति में सबसे बड़ा व्यवधान विद्यालयों में न्यूनतम आवश्यक भौतिक सुविधाओं का अभाव है। चौथे अखिल भारतीय “ौक्षिक सर्वेक्षण के दौरान लगभग 188000 प्राथमिक विद्यालय बिना उपयुक्त सुविधाओं के थे। 192000 से भी अधिक विद्यालयों में चटायी या टाटापट्टी भी नहीं थी।
सामाजिक नीति के प्रारूप
कल्याणकारी प्रारूप
समाज कल्याण प्रारूप से तात्पर्य सामाजिक विकास हेतु बनायी गयी उन रणनीतियों से है। जिसके अन्तर्गत कल्याणकारी राज्य की अवधारणा परिलक्षित होती है। कल्याणकारी राज्य से आशय ऐसे राज्य से है, जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति समूह, समुदाय एवं एक व्यापक समाज प्रजाति, जाति, धर्म सभी के विकास हेतु वचन बद्ध है। कल्याणकारी राज्य समाज के सभी वगांर् े के विकास की बात करता है। खासकर उन लोगों के लिए विशेष सुविधायें प्रदान करता है, जो किसी भी समस्या से ग्रसित होते हैं।
सामाजिक सुरक्षा प्रारूप
समाज के द्वारा ऐसी सुरक्षा व कानून प्रदान किये जा सके जिससे समाज में रहने वाले लोगों को सुरक्षा प्रदान की जा सके। सामाजिक सुरक्षा के अन्तर्गत सामाजिक नीतियाँ इस प्रकार बनायी जायेंगीं। ताकि समाज के प्रत्येक वर्ग की सुरक्षा हो सके समाज में उत्पन्न समस्याओं के समाधान का इस प्रकार प्रारूप तैयार किया जायेगा। ताकि उन समस्त समस्याओं का निदान किया जा सके। व्यक्ति, समूह, समुदाय किसी में भी यदि असंतुलन उत्पन्न होता है तो समाज में खतरा उत्पन्न होता है। सामाजिक सुरक्षा में लोगों के विकास हेतु विभिन्न प्रकार की योजनाएं चलायी जाती हैं। जैसे - बीमा, विभिन्न प्रकार के अधिनियम, कानून।
उदारीकरण प्रारूप
इस प्रकार के प्रारूप में ऐसी नीतियां बनायी जाती हैं कि समाज में प्रत्येक वर्ग के लोग राज्य के द्वारा चलाये गये कार्यक्रमों में प्रदान किये गये साधनों में सम्पूर्ण रूप से अपनी भागीदारी निभा सके। क्योंकि समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। जिसका निर्माण सामान्यत: चेतना पर आधारित है। समानता की चेतना ही परस्पर सहभागिता की आधारशिला है। उदारीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत सरकार अपनी नीतियों को इस प्रकार से लागू करती है। कि लोगों के कार्य व्यवसाय इत्यादि करने में कठिनार्इ न आये अर्थात् एक व्यक्ति आसानी से एक देश से दूसरे देश में अपने व्यवसाय को कर सकता है। अत: वस्तुओं का क्रय-विक्रय एक देश से दूसरे देश में आसान हो जाता है। यह प्रक्रिया सार्वभौमिकीकरण एवं निजीकरण को बढ़ावा देती है। सामान्यत: यह प्रारूप व्यक्तियों के व्यक्तिगत सामुदायिक हितों को पूरा करने हेतु नीतियां बनाता है।
प्रजातान्त्रिक प्रारूप
इस प्रारूप के तहत नीतियां इस पक्र ार से बनायी जाती हैं कि उन नीतियों का लाभ राज्य के सम्पूर्ण लोगों को समूहों समुदायों में मिल सके। अर्थात् लोकतान्त्रिक प्रारूप के तहत नीतियां इस प्रकार बनायी जाती हैं। जिसके तहत कोइर् व्यक्ति कानून के दायरे में रहकर अपने व्यक्तित्व का सवांर्ग ीण विकास कर सकें। यदि कोर्इ किसी प्रकार की बाधाओं से ग्रसित है तो उन बाधाओं को दूर कर उसका विकास किया जाता है।
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