गांधीजी की अर्थव्यवस्था

गांधीजी के आर्थिक विचार अहिंसात्मक मानवीय समाज की अवधारणा से ओत-प्रोत हैं। उनके आर्थिक विचार आध्यात्मिक विकास को प्रोत्साहित करने वाले एवं भौतिकवाद के विरोधी हैं। ' गांधीवादी अर्थशास्त्र ' (Gandhian economics) नामक यह शब्द सबसे पहले उनके प्रसिद्ध अनुयायी जे.सी.कुमारप्पा ने प्रयोग किया था।

गांधीजी की अर्थव्यवस्था

महात्मा गांधी की अर्थव्यवस्था व अर्थशास्त्र के बारे में बहुत मौलिक सोच थी। यह सोच उस समय के प्रचलित विचारों की परवाह न कर सीधे-सीधे ऐसी नीतियों की मांग करती थी जिससे गरीबों को राहत मिले। साथ ही उन्होंने ऐसे सिद्धांत अपनाने को कहा जिनसे दुनिया में तनाव व हिंसा दूर हो तथा पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे। गांधीजी के लिए विश्व शांति, संतोष व पर्यावरण की रक्षा सबसे महत्वपूर्ण थे। वह इसी के अनुकूल आर्थिक नीतियों की बात करते थे। उन्होंने अर्थनीति और नैतिकता में कभी भेद नहीं किया। गांधी ने स्पष्ट लिखा मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं अर्थविद्या और नीतिविद्या में कोई भेद नहीं करता। जिस अर्थविद्या से व्यक्ति या राष्ट्र के नैतिक कल्याण को हानि पहुंचती हो उसे मैं अनीतिमय और पापपूर्ण कहूंगा। उदाहरण के लिए जो नीति एक देश को दूसरे देश का शोषण करने की अनुमति देती है वह अनैतिक है। जो मजदूरों को योग्य मेहनताना नहीं देते और उनके परिश्रम का शोषण करते हैं उनसे वस्तुएं खरीदना या उन वस्तुओं का उपयोग करना पाप है। उन्होंने शोषण विहीन व्यवस्था की मांग रखी ताकि सबकी बुनियादी जरूरतें पूरी हों। उन्होंने कहा कि गरीब लोगों को भी उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण मिले ताकि उनका शोषण न हो। गांधी ने लिखा मेरी राय में न केवल भारत की, बल्कि सारी दुनिया की अर्थरचना ऐसी होनी चाहिए कि किसी को भी अन्न और वस्त्र के अभाव में तकलीफ न सहनी पड़े। दूसरे शब्दों में हर एक को इतना काम अवश्य मिल जाना चाहिए कि वह अपने खाने-पहनने की जरूरतें पूरी कर सके। यह आदर्श तभी कार्यान्वित किया जा सकता है जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं के उत्पादन के साधन जनता के नियंत्रण में रहें। वह हर एक को बिना किसी बाधा के उसी तरह उपलब्ध होने चाहिए जिस तरह कि भगवान की दी हुई हवा और पानी हमें उपलब्ध है। किसी भी हालत में वे दूसरों के शोषण के लिए चलाए जाने वाले व्यापार का वाहन न बनें। किसी भी देश या समुदाय का उन पर एकाधिकार अन्यायपूर्ण होगा। हम आज न केवल अपने इस दुखी देश में, बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी जो गरीबी देखते हैं उसका कारण इस सरल सिद्धांत की उपेक्षा है। प्राय: यही माना जाता है कि निरंतर आर्थिक विकास व वृद्धि से ही दुनिया से गरीबी व अभाव दूर होगी, लेकिन महात्मा गांधी ने यह पहचान लिया था कि इस तरह के आर्थिक विकास के तहत गरीबी व विषमता बढ़ने की संभावना भी मौजूद रहती है। अत: उन्होंने आर्थिक विकास को नहीं, बल्कि गरीब आदमी की बुनियादी आवश्यकताओं को अपनी आर्थिक सोच का केंद्र बनाया। उन्होंने देश के नेताओं और नियोजकों से विशेष आग्रह किया कि जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी आजमाओ। जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा है, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त? इस तरह महात्मा गांधी गरीब आदमी को आर्थिक चिंतन के केंद्र में ले आए। तेजी से होने वाला तकनीकी बदलाव और मशीनीकरण उस समय की विचारधारा पर भी छाया हुआ था, क्योंकि इसी रास्ते पर चलकर यूरोप में समृद्धि आई थी। पर महात्मा गांधी ने इस विचारधारा को भी चुनौती दी और देश के गरीब किसान, दस्तकार और मजदूर के रोजगार और आजीविका को अंधाधुंध मशीनीकरण से बचाने के लिए उन्होंने जोर दिया। यंत्रों के बारे में उन्होंने कहा कि उससे मनुष्य को सहारा मिलना चाहिए। वर्तमान यह झुकाव है कि कुछ लोगों के हाथ में खूब संपत्ति पहुंचाई जाए और जिन करोड़ों स्त्री-पुरुषों के मुँह से रोटी छीनी है उन बेचारों की जरा भी परवाह न की जाए। सच्ची योजना तो यह होगी कि भारत की संपूर्ण मानव शक्ति का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए। मानव श्रम की परवाह न करने वाली कोई भी योजना न तो मुल्क में संतुलन कायम रख सकती है और न इनसानों को बराबरी का दर्जा दे सकती है। इसी तरह गांधीजी ने कहा मनुष्य का लक्ष्य अपने उपभोग को निरंतर बढ़ाना नहीं अपितु सादगी के जीवन में संतोष प्राप्त करना है। यदि शक्तिशाली व अमीर लोग इस भावना में जिएं तो गरीबों के लिए संसाधन बचने की संभावना कहीं अधिक होगी। उनके शब्दों में, सच्ची सभ्यता का लक्षण संग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि सोच-समझकर और अपनी इच्छा से उसे कम करना है। ज्यों ज्यों हम संग्रह घटाते जाते हैं त्यों-त्यों सच्चा सुख और संतोष बढ़ता जाता है, सेवा की शक्ति बढ़ती जाती है। त्याग की यह शक्ति हममें अचानक नहीं आएगी। पहले हमें ऐसी मनोवृत्ति पैदा करनी होगी कि हमें उन सुख-सुविधाओं का उपयोग नही करना है, जिनसे लाखों लोग वंचित हैं। समता और सादगी को एक महत्वपूर्ण उद्देश्य के रूप में प्रतिष्ठित कर पर्यावरण का नाम लिए बिना ही महात्मा गांधी हमें पर्यावरण संरक्षण के मूल से परिचित करा गए। उन्होंने कहा भी कि प्रकृति सब मनुष्यों की जरूरतें तो पूरी कर सकती है, लेकिन लालच का नहीं।

संपादन -
आनंद श्री कृष्णन
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