गांधी जी के सर्वोदय समाज की कल्पना

सर्वोदय

सुबहवाले को जितना, शामवाले को भी उतना ही-प्रथम व्यक्ति को जितना, अंतिम व्यक्ति को भी उतना ही, इसमें समानता और अद्वैत का वह तत्व समाया है, जिसपर सर्वोदय का विशाल प्रासाद खड़ा है। 

"सर्वोदय" का आदर्श है अद्वैत और उसकी नीति है समन्वय। मानवकृत विषमता का वह अंत करना चाहता है और प्राकृतिक विषमता को घटाना चाहता है। जीवमात्र के लिए समादर और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सहानुभूति ही सर्वोदय का मार्ग है। जीवमात्र के लिए सहानुभति का यह अपूत जब जीवन में प्रवाहित होता है, तब सर्वोदय की लता में सुरभिपूर्ण सुमन खिलते हैं। डार्विन ने कहा-"प्रकृति का नियम है, बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर जीवित रहती है।" हक्सले ने कहा-जीओ और जीने दो।" सर्वोदय कहता है-"तुम दूसरों को जिलाने के लिए जीओ।" दूसरों को अपना बनाने के लिए प्रेम का विस्तार करना होगा, अहिंसा का विकास करना होगा और शोषण को समाप्त कर आज के सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन करना होगा।"

"सर्वोदय" ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले। विनोबा कहते हैं-"जब हम सर्वोदय का विचार करते हैं, तब ऊँच-नीच भावशाली वर्णव्यवस्था दीवार की तरह समाने खड़ी हो जाती है। उसे तोड़े बिना सर्वोदय स्थापित नहीं होगा। सर्वोदय को सफल बनाने के लिए जातिभेद मिटाना होगा और आर्थिक विषमता दूर करनी होगी। इनको मिटाने से ही सर्वोदय समाज बनेगा।"

"सर्वोदय ऐसी समाजरचना चाहता है जिमें वर्ण, वर्ग, धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर किसी समुदाय का न तो संहार हो, न बहिष्कार हो। सर्वोदय की समाजरचना ऐसी होगी, जो सर्व के निर्माण और सर्व की शक्ति से सर्व के हित में चले, जिसमें कम या अधिक शारीरिक सामथ्र्य के लोगों को समाज का संरक्षण समान रूप से प्राप्त हो और सभी तुल्य पारिश्रमिक (इक्वीटेबल वेजेज) के हकदार माने जाएँ। विज्ञान और लोकतंत्र के इस युग में सर्व की क्रांति का ही मूल्य है और वही सारे विकास का मापदंड है। सर्व की क्रांति में पूँजी और बुद्धि में परस्पर संघर्ष की गुंजाइश नहीं है। वे समान स्तर पर परस्पर पूरक शक्तियाँ हैं। स्वभावत: सर्वोदय की समाजरचना में अंतिम व्यक्ति समाज की चिंता का सबसे पहले अधिकारी है।

सर्वोदय समाज की रचना व्यक्तिगत जीवन की शुद्धि पर ही हो सकती है। जो व्रत नियम व्यक्तिगत जीवन में "मुक्ति" के साधन हैं वे ही जब सामाजिक जीवन में भी व्यवहृत होंगे, तब सर्वोदय समाज बनेगा। विनोबा कहते हैं-"सर्वोदय की दृष्टि से जो समाज रचना होगी, उसका आरंभ अपने जीवन से करना होगा। निजी जीवन में असत्य, हिंसा, परिग्रह आदि हुआ तो सर्वोदय नहीं होगा, क्योंकि सर्वोदय समाज की विषमता को अहिंसा से ही मिटाना चाहता है। साम्यवादी का ध्येय भी विषमता मिटाना है, परंतु इस अच्छे साध्य के लिए वह चाहे जैसा साधन इस्तेमाल कर सकता है, परंतु सर्वोदय के लिए साधनशुद्धि भी आवश्यक है।"

गांधी जी भी कहते है-"समाजवाद का प्रारंभ पहले समाजवादी से होता है। अगर एक भी ऐसा समाजवादी हो, तो उसपर शून्य बढ़ाए जा सकते हैं। हर शून्य से उसकी कीमत दसगुना बढ़ जाएगी, लेकिन अगर पहला अंक शून्य हो, तो उसके आगे कितने ही शून्य बढ़ाए जाएँ, उसकी कीमत फिर भी शून्य ही रहेगी।"

इसीलिए गांधी जी सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, शरीरश्रम, निर्भयता, सर्वधर्मसमन्वय, अस्पृश्यता और स्वदेशी आदि व्रतों के पालन पर इतना जोर देते थे।

सर्वोदय समाज की अवधारणा एवं विशेषताएं

महात्मा गांधी जान रस्किन की प्रसिद्व पुस्तक ‘‘अन टू दा लास्ट’’ से बहुत अधिक प्रभावित थे। गांधी जी के द्वारा रस्किन की इस पुस्तक का गुजराती भाशा में सर्वोदय “रीशक से अनुवाद किया गया। इस में तीन आधारभूत तथ्य थे-
 सबके हित में ही व्यक्ति का हित निहित है। एक नार्इ का कार्य भी वकील के समान ही मूल्यवान है क्योंकि सभी व्यक्तियों को अपने कार्य से स्वयं की आजीविका प्राप्त करने का अधिकार होता है, और श्रमिक का जीवन ही एक मात्र जीने योग्य जीवन है। गांधी जी ने इन तीनों कथन के आधार पर अपनी सर्वोदय की विचारधारा को जन्म दिया। सर्वोदय का अर्थ है सब की समान उन्नति। एक व्यक्ति का भी उतना ही महत्व है जितना अन्य व्यक्तियों का सामूहिक रूप से है। सर्वोदय का सिद्वान्त गांधी ने बेन्थम तथा मिल के उपयोगतिवाद के विरोध में प्रतिस्थापित किया। उपयोगितावाद अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख प्रदान करना पर्याय माना। उन्होने कहा कि किसी समाज की प्रगति उसकी धन सम्पत्ति से नहीं मापी जा सकती, उसकी प्रगति तो उसके नैतिक चरित्र से आंकी जानी चाहिये। जिस प्रकार इंग्लैण्ड में रस्किन तथा कार्लार्इल ने उपयोगितावादियों को विरोध किया, उसी प्रकार गांधी ने माक्र्स से प्रभावित उन लोगों के विचाारों का खण्डन किया जो भारतीय समाज को एक औद्योगिक समाज में बदलना चाहते थे।

सर्वोदय की विशेषताएं 

सर्वोदय समाज अपने व्यक्तियों को इस तरह से प्रशिक्षित करता है कि व्यक्ति बडी से बडी कठिनाइयों में भी अपने साहस व धैर्य कसे त्यागता नहीं है। उसे यह सिखाया जाता है कि वह कैसे जिये तथा सामाजिक बुराइयों से कैसे बचे। इस तरह सर्वोदय समाज का व्यक्ति अनुशासित तथा संयमी होता है। यह समाज इस प्रकार की योजनाएं बनाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति को नौकरी मिल सके अथवा कोर्इ ऐसा कार्य मिल सके जिससे उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। इस समाज में प्रत्येक व्यक्ति को श्रम करना पडता है।

सर्वोदय समाज पाष्चात्य देशों की तरह भौतिक संम्पन्नता और सुख के पीछें नहीं भागता है और न उसे प्राप्त करने की इच्छा ही प्रगट करता है, किन्तु यह इस बात का प्रयत्न करता है कि सर्वोदय समाज में रहने वाले व्यक्तियों जिनमें रोटी, कपडा, मकान, षिक्षा आदि है कि पूर्ति होती रहे। ये वे सामान्य आवश्यकताओं हैं जो प्रत्येक व्यक्ति की हैं और जिनकी पूर्ति होना आवश्यक है।

सर्वोदय की विचारधारा है कि सत्ता का विकेन्द्रकीकरण सभी क्षेत्रों में समान रूप् में करना चाहिए क्योंकि दिल्ली का शासन भारत के प्रत्येंक गांव में नहीं पहंचु सकता। वे आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में सत्ता का विकेन्द्रीकरण करने के पक्षधर है। इस समाज में किसी भी व्यक्ति का " शोशण नही होगा क्योंकि इस समाज में रहने वाले व्यक्ति आत्म संयमी,धैर्यवान, अनुशासनप्रिय तथा भौतिक सुखों की प्राप्ति से दूर रहते है। इस समाज के व्यक्ति भौतिक सुखों के पीछे नही भागते, इसलिए इनके व्यक्तित्व में न तो संद्यर्ष है और ही शोषणता की प्रवृति ही । यह अपने पास उतनी ही वस्तुओं का संग्रह करते हैं, जितनी इनकी आवश्यकताएं है।

गांधी का मत था कि भारत के गांवों का संचालन दिल्ली की सरकार नहीं कर सकती। गांव का शासन लोकनीति के आधार पर होना चाहिए क्योंकि लोकनीति गांव के कण कण में व्यापत है। लोकनीति बचपन से ही व्यक्ति को कुछ कार्य करने के लिए पे्िर रत करती है और कुछ कार्य को करने से रोकती है। इस तरह व्यक्ति स्वत: अनुषासित बन जाता है। सर्वोदय का उदय किसी एक क्षेत्र में उन्नति करने का नहीहै बल्कि सभी क्षेत्रों में समानरूप से उन्नति करने का है। वह अगर व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कटिबद्व है तो व्यक्ति को सत्य, अंहिंसा और पेम्र का पाठ पढाने के लिए भी दृढसंकल्प है।

महात्मा गांधी का सर्वोदय दर्शन

महात्मा गांधी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के पितामह थे। यदि उनको अपने समय का अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, दार्शनिक, वैद्य, शिक्षाविद, समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, कानूनविद्, साहित्यकार, सौदर्यशास्त्री, संत, संयासी कहा जाय तो उसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अर्थात् वे सबकुछ थे। जब हम संपूर्ण गांधी वाङगमय में गांधी के विचारों मे गोता लगाते है, तो हमें लगता है कि उनके जीवन का लक्ष्य भारत की आजादी के साथ मानवता की वैश्विक मुक्ति से था। उनके मन में एकमात्र यही लक्ष्य था कि भारत, एशिया और अफ्रीका ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व की मुक्ति का नेतृत्व करे। इस नेतृत्व में उपयोगितावादिओं की तरह बहुतों की नहीं सबके हित की कामना थी। मूल रूप से गांधीवादी पद्धति का निरूपण दक्षिण अफ्रीका में 1906 के बाद हुआ था और गांधी जी के द्वारा समाज को सर्वोदय दर्शन के रूप में एक महत्वपूर्ण विचार प्राप्त हुआ।

‘सर्वोदय’ शब्द गांधी द्वारा प्रतिपादित एक ऐसा विचार है जिसमें ‘सर्वभूत हितेश्ताः’ की भारतीय कल्पना, सुकरात की ‘सत्य-साधना’ और रस्किन की ‘अंत्योदय की अवधारणा’ सब कुछ सम्मिलित है। गांधीजी ने कहा था ” मैं अपने पीछे कोई पंथ या संप्रदाय नहीं छोड़ना चाहता हूँ।” यही कारण है कि सर्वोदय आज एक समर्थ जीवन, समग्र जीवन, तथा संपूर्ण जीवन का पर्याय बन चुका है।

‘सर्वोदय’ एक सामासिक शब्द है जो ‘सर्व’ और ‘उदय’ के योग से बना है, सर्वोदय एक ऐसा अर्थवान शब्द है जिसका जितना अधिक चिंतन और प्रयोग हम करेंगे, उतना ही अधिक अर्थ उसमें पाते जायेंगे। सर्वोदय शब्द के दो अर्थ मुख्य हैं – सर्वोदय अर्थात् ”सबका उदय”, दूसरा ”सब प्रकार से उदय।” अथवा सर्वांगीण विकास इसका अर्थ अलग-अलग दृष्टिकोण से अलग-अलग है जैसे भौतिकतावादी अपनी बढ़ी हुई आवश्यकता की पूर्ति में लगा रहता है और आध्यात्मवादी ब्रह्म-प्राप्ति या मोक्ष प्राप्ति में रत रहता है।

आज जिस अर्थ में सर्वोदय हमारे सामने प्रस्तुत है उसकी आधारशिला सर्वप्रथम गांधी जी ने रस्किन की ‘अंटु दिस लास्ट’ पुस्तक के संक्षिप्त गुजराती अनुवाद में रखी है। गांधी जी ने लिखा है ” इस पुस्तक का उद्देश्य तो सबका उदय यानि उत्कर्ष करने का है, अतः मैने इसका नाम सर्वोदय रखा है।”

स्वतंत्रता से पूर्व स्वराज शब्द का जो महत्व था वही महत्व सर्वोदय शब्द का आज है। आज सर्वोदय का संपूर्ण शास्त्र विकसित हो रहा है उसकी राजनीति, अर्थनीति, शिक्षानीति, धर्मदर्शन इत्यादि ‘सर्वोदय समाज’ नामक आस्था रखने वालों का एक आध्यात्मिक भाईचारा भी बना है और ‘सर्व सेवा संघ’ नामक संस्था भी है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने गांधीवादी विचार एवं प्रवृत्तियों को बहुत ही नजदीक से देखा था। उनका मानना था कि 1916 से चले गांधी का सर्वोदय 1948 (गांधी के हत्या के बाद) में तीन प्रकार हो चुका है। ये हैं – सरकारी गांधीवादी, मठी गांधीवादी और कुजात गांधीवादी।”

महात्मा गांधी ने 1936 में यह घोषणा की थी कि ” गांधीवाद नाम की कोई चीज है ही नहीं” गांधी जी मूलतः एक प्रयोगकर्ता थे इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा को ”सत्य का प्रयोग” कहा है। सत्य एवं अहिंसा का समन्वय ही उनके जीवन का लक्ष्य था। अतः उन्होंने किसी नए तथ्य या सिद्धांत का अविष्कार नहीं किया।” इसलिए गांधी विचार और फिर उस पर आधारित सर्वोदय विचार का अर्थ निश्चित खाका तैयार किया हुआ जीवन का पूरा-पूरा चित्र है, वाद नहीं है। ‘वाद’ का मतलब कोई ऐसा महत्वपूर्ण शास्त्र जिससे जीवन संबंधी सभी समस्याओं का जवाब हासिल कर लिया जाये तो भी गांधीवाद या सर्वोदयवाद कोई चीज नहीं है। लेकिन जीवन व्यवहार के लिए कुछ आधारभूत नैतिक एवं समाजिक सिद्धांतों को स्वीकार करना हो तो मानना होगा कि ‘गांधीवाद’ है।

सर्वोदय की परिभाषा पर अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग मंतव्य दिए हैं।

क) विनोबा भावे के अनुसार, ” सर्वोदय का अर्थ है सर्व सेवा के माध्यम से समस्त प्राणियों की उन्नति। हम अधिकतर के सुख से नहीं सबके सुखी होने से संतुष्ट हैं। हम उँच-नीच, अमीर-गरीब, सबकी भलाई से ही संतुष्ट हो सकते हैं।” ख) किशोरी लाल मशरूवाला के अनुसार, ”गांधीवाद को हम ‘सर्वोदयवाद’ तथा ‘सत्याग्रह मार्ग’ कह सकते हैं। ” ग) काका साहेब कालेलकर के अनुसार, गांधीवाद को ‘गांधी मार्ग’ या ‘गांधी दृष्टि’ कहा जा सकता है। ” घ) आचार्य जे. बी. कृपलानी के अनुसार गांधीवाद को सर्वोदयकारी समान व्यवस्था कहा जा सकता है।” ङ)हरिभाऊ उपाध्याय के अनुसार, गांधीवाद को गांधी विचार न कहकर ‘गांधीवाद’ ही कहना ठीक होगा। ” च) प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक यशपाल के अनुसार, गांधी के विचारों को ‘गांधीवाद’ ही कहना ठीक होगा।” उपर्युक्त विद्वानों के गांधीवाद के संबंध में प्रतिपादित विचारों से ऐसा लगता है कि गांधी ने भले ही अपने विचारों को किसी ‘वाद’ से नही जोड़ा लेकिन गांधी विचार-दर्शन को ‘गांधीवाद’ कहना एकदम सत्य होगा। यदि हम गांधी द्वारा प्रतिपादित विचारों के परिप्रेक्ष्य में आज की व्याख्या करना चाहते हैं तो यह उपयुक्त होगा।

नैतिक जीवन में सहजीवन अपने आप में बड़ा मूल्य है। जिस व्यवहार की अपेक्षा हम खुद करते हैं, वही बर्ताव दूसरों के साथ भी करें।

महात्मा गांधी अनुसार व्यक्ति का कल्याण समाज कल्याण में निहित है, अतः सहजीवन कोई परमार्थ का सूत्र नहीं बल्कि जीवन का आधार है। लेकिन सहजीवन की साधना साम्ययोग के बिना संभव नहीं। इसलिए सर्वोदय विचार की यह मान्यता है कि ” चाहे वकील का काम हो या नाई का, दोनों का मूल्य बराबर है।” सर्वोदय दृष्टि से मजदूर किसान या कारीगर का जीवन ही सच्चा एवं सर्वोत्कृष्ट है।” पसीना बहाकर रोटी खाना ही यज्ञ है।”

मानव समाज के उत्थान के लिए विविध प्रवृत्तियों का विकास हुआ लेकिन वे प्रवृत्तियां मात्र कुएं के मेढ़क के सदृश हो गयीं। फलतः उनका वैचारिक अधिष्ठान लुप्तप्राय हो चुका है। इस लिए गांधी ने माना कि शरीर नश्वर है तथा विचारों का कभी विनाश नहीं होता क्योंकि कहा गया है कि शब्द ही ब्रह्म है। अर्थात् शब्द की महत्ता का प्रतिपादन केवल गांधी ने नहीं किया था। उन्होंने तो सर्वोदय (अंत्योदय) को जिया। भारतीय समाज में व्याप्त शोषण, उत्पीड़न, आर्थिक, सामाजिक विषमता पर प्रहार के साथ संयम, अपरिग्रह, त्याग द्वारा संपूर्ण भारत को आलोकित किया।

महात्मा गांधी ने अपने सर्वोदय दर्शन के द्वारा संघर्ष का सूत्रपात किया।” महात्मा गांधी ने भारतीय जीवन-मूल्यों से प्रभावित होकर सत्याग्रह, अपरिग्रह तथा सविनय अवज्ञा रूपी आंदोलनों का सूत्रपात किया। उसमें उन्हें पर्याप्त रूप से सफलता मिली बल्कि अस्पृश्यता, शराबबंदी तथा खादी ग्रामोद्योग द्वारा आर्थिक अन्याय का बहुतायत में मुकाबला किया गया। अन्याय का प्रतिकार ही उनके जीवन का लक्ष्य था।”

सर्वोदय कोई संप्रदाय नहीं यह तो एक मानव एकता, सेवा तथा समरसता की भावना से समग्र दृष्टि है जो पूर्णरूपेण भारतीय चिंतन का पर्याय है। इसमें भारतीय एवं पाश्चात्य विचारों के परिपेक्ष्य में गांधी ने सबके अंदर परमात्मा का स्वरूप देखा। गांधी द्वारा प्रतिपादित सर्वोदय विचार में त्याग के द्वारा हृदय-परिवर्तन, तर्क एवं अध्ययन द्वारा वैचारिक परिवर्तन, शिक्षा के द्वारा मानवता का परिवर्तन तथा पुरूषार्थ द्वारा स्तर परिवर्तन पर जोर है। इसमें डॉ. लोहिया की ‘सप्त क्रांतियां’, लोकनायक जयप्रकाश नारायण का ‘चौखंभा राज्य’, मार्क्स की ‘वर्गविहीन व्यवस्था’ गांधी का ‘रामराज्य’ तथा सावरकर-हेडगेवार के ‘हिंदू राष्ट्र’ का साक्षात् दर्शन होता है। इसमें समाजिक व्यवस्था को बदलकर प्रेम एवं अहिंसा को स्थान मिलता है। इसमें मार्क्स की भांति साध्य-साधन में भेद न करके साध्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा, प्रेम, सद्भाव, मित्रता का सर्वोपरि स्थान रहता है।

महात्मा गांधी के सर्वोदय दर्शन पर संक्षिप्त रूप से प्रकाश डालने पर ऐसा अभास होता है कि वर्तमान युग में जहां हिंसा, अतिसंग्रह, मतभेद, धर्मांधता, क्षेत्रवाद, जातिवाद, लैंगिक भेदभाव, नस्लभेद तथा राष्ट्रभेद का सर्वत्र नंगा नाच हो रहा है। वहां महात्मा गांधी भारतीय संस्कृति के माध्यम से संपूर्ण विश्व को बदलने के लिए सत्य एवं अहिंसा को मुख्य अस्त्र-शस्त्र मानते हैं तथा संपूर्ण समस्याओं का समाधान चाहते हैं। आज जहां मुठ्ठी भर लोग सुख भोग रहे हैं वही देश की चालीस प्रतिशत जनता 20 रुपये मजदूरी पर जीवनयापन कर रही हैं। यह गांधी के सर्वोदय दर्शन द्वारा ही सुलझाया जा सकता है। इसके साथ-साथ राज्यसत्ता, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता, संतसत्ता तथा बौद्धिकसत्ता का समन्वय करके सर्वोदय दर्शन को लागू किया जा सकता है।

सर्वोदय दर्शन के प्रमुख तत्व

(1) पारिश्रमिक की समानता - जितना वेतन नाई को उतना ही वेतन वकील को। "अनटू दिस लास्ट" का यह तत्व सर्वोदय में पूर्णत: गृहीत है। साम्यवाद भी पारिश्रमिक में समानता चाहता है। यह तत्व दोनों में समान है।

(2) प्रतियोगिता का अभाव - प्रतियोगिता संघर्ष को जन्म देती है। साम्यवादी के लिए संघर्ष तो परम तत्व ही है। परंतु सर्वोदय संघर्ष को नहीं, सहकार को मानता है। संघर्ष में हिंसा है। सर्वोदय का सारा भवन ही अहिंसा की नींव पर खड़ा है।

(3) साधनशुद्धि - साम्यवाद साध्य की प्राप्ति के लिए साधनशुद्धि को आवश्यक नहीं मानता। सर्वोदय में साधनशुद्धि प्रमुख है। साध्य भी शुद्ध और साधन भी शुद्ध।

(4) आनुवंशिक संस्कारों से लाभ उठाने के लिए ट्रस्टीशिप की योजना - विनोबा कहते हैं-""संपत्ति की विषमता कृत्रिम व्यवस्था के कारण पैदा हुई है, ऐसा मानकर उसे छोड़ भी दें, तो मनुष्य की शारीरिक और बौद्धिक शक्ति की विषमता पूरी तरह दूर नहीं हो सकती। शिक्षण और नियमन से यह विषमता कुछ अंश तक कम की जा सकती। किंतु आदर्श की स्थिति में इस विषमता के सर्वथा अभाव की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए शरीर, बुद्धि और संपत्ति इन तीनों में से जो जिसे प्राप्त हो, उसे यही समझना चाहिए कि वह सबके हित के लिए ही मिली है। यही ट्रस्टशिप का भाव है। अपनी शक्ति और संपत्ति का ट्रस्टी के नाते ही मनुष्यमात्र के हित के लिए प्रयोग करना चाहिए। ट्रस्टीशिप में अपरिग्रह की भावना निहित है। साम्यवाद में आनुवंशिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। उसकी नीति तो अभिजात्य के संहार की रही है।

(5) विकेंद्रीकरण - सर्वोदय सत्ता और संपत्ति का विकेंद्रीकरण चाहता है जिससे शोषण और दमन से बचा जा सके। केंद्रीकृत औद्योगीकरण के इस युग में तो यह और भी आवश्यक हो गया है। विकेंद्रीकरण की यही प्रक्रिया जब सत्ता के विषय में लागू की जाती है, तब इसकी निष्पत्ति होती है शासनमुक्त समाज में। साम्यवादी की कल्पना में भी राजसत्ता तेज गर्मी में रखे हु घी की तरह अंत में पिघल जानेवाली है। परंतु उसके पहले उसे जमे हुए घी की तरह ही नहीं, बल्कि ट्रट्स्की के सिर पर मारे हुए हथौड़े की तरह, ठोस और मजबूत होना चाहिए। (ग्रामस्वराज्य)। परंतु गांधी जी ने आदि, मध्य और अंत तीनों स्थितियों में विकेंद्रीकरण और शासनमुक्तता की बात कही है। यही सर्वोदय का मार्ग है।

सर्वोदय का उद्देश्य

१ आत्म-संयम

२ शोषणहीन समाज

३ सर्वांगीण विकास

४ लोकनीति के आधार पर शासन

५ सत्ता का विकेन्द्रीकरण

इस समय संसार में उत्पादन के साधनों के स्वामित्व की दो पद्धतियों प्रचलित हैं - निजी स्वामित्व (प्राइवेट ओनरशिप) और सरकार स्वामित्व (स्टेट ओनरशिप)। निजी स्वामित्व पूँजीवाद है, सरकार स्वामित्व साम्यवाद। पूँजीवाद में शोषण है, साम्यवाद में दमन। भारत की परंपरा, उसकी प्रतिभा और उसकी परिस्थिति, तीनों की माँग है कि वह राजनीतिक और आर्थिक संगठन की कोई तीसरी ही पद्धति विकसित करे, जिससे पूँजीवाद के "निजी अभिक्रम" और साम्यवाद के "सामूहिक हित" का लाभ तो मिल जाए, किंतु उनके दोषों से बचा जा सके। गांधी जी की "ट्रस्टीशिप" और "ग्रामस्वराज्य" की कल्पना और विनोबा की इस कल्पना पर आधारित "ग्रामदान-ग्राम स्वराज्य" की विस्तृत योजना में, दोनों के दोषों का परिहार और गुणों का उपयोग किया गया है। यहाँ स्वामित्व न निजी है, न सरकार का, बल्कि गाँव का है, जो स्वायत्त है। इस तरह सर्वोदय की यह क्रांति एक नई व्यवस्था संसार के सामने प्रस्तुत कर रही

संपादन व संकलन
आनंद श्री कृष्णन
हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा , महाराष्ट्र

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