ट्रस्टीशिप


ट्रस्टीशिप

जरूरी नहीं कि गांधी और गांधीवाद पर चर्चा करते समय समाजवाद को बीच में लाया जाए । गांधीजी ने कभी कहा भी नहीं कि वे समाजवाद का समर्थन करते हैं। लेकिन देश में जब भी पूंजीवाद के विकल्प की बात होती है, गांधीवाद का जिक्र स्वाभाविक रूप से होने लगता है । बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में गांधी जब ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से साम्राज्यवाद तथा अनियोजित औद्योगिकीकरण से उत्पन्न समस्याओं जैसे आर्थिक असमानता, गरीबी, औपनिवेशिक शोषण आदि के समाधान हेतु अपना दर्शन गढ़ रहे थे, विश्व–भर में पूंजीवाद के विकल्प के रूप में समाजवाद की ही चर्चा थी। हालांकि उसके स्वरूप को लेकर विद्वानों में विचार–वैविध्य इतना अधिक था कि लगता जैसे हर कोई समाजवाद की स्वतंत्र परिभाषा गढ़ना चाहता है। उस समय पूंजीवाद के विकल्प के रूप में गांधीजी ने ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार सामने रखा था। ट्रस्टीशिप तथा समाजवाद दोनों का उद्देश्य चूंकि पूंजीवाद–जनित समस्याओं का निदान करना है, अतएव प्रथम द्रष्टया दोनों निकटवर्ती विचारधाराएं जान पड़ती हैं।

ट्रस्टीशिप प्रेरणा उन्हें ईश्वास्योपनिषद से मिली थी. इसे उपनिषद के पहले ही श्लोक में कहा गया है—

‘ईश्वर इस सृष्टि के कण–कण में व्याप्त है । जड़–चेतन, राई से लेकर पहाड़ तक सब उसी का विस्तार है । सभी ईश्वरस्वरूप है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि इस सृष्टि का भोग निष्काम भाव से, परमात्मा का अंश समझते हुए करे । पृथ्वी पर मौजूद धन–संपदा किसी की नहीं है, इसलिए उसका उपयोग निरासक्ति भाव से करना चाहिए’।

गांधीजी पर जा॓न रस्किन का प्रभाव था ।जो स्वयं बाइबिल से प्रभावित थे। रस्किन का मानना था कि पूंजीवाद जनित बुराइयों का समाधान ईसाई धर्म की मर्यादाओं में संभव है । अपनी पुस्तक ‘अनटू दिस लास्ट’ में रस्किन ने बाइबिल से एक उद्धरण दिया है। उसमें कहा गया है कि उत्पादन के लाभ पर सभी का समान अधिकार है। उसका भी जो सबसे अंतिम सिरे पर स्थित है । उद्धरण में एक किसान काम पर देर से पहुचने वाले श्रमिक को भी उतनी ही मजदूरी देने की घोषणा करता है, जितनी समय पर पहुंचने वाले को। संदेश है कि दुनिया परमात्मा आशीर्वाद लुटाने के लिए है, न कि व्यापार द्वारा लाभ कमाने के लिए। इस अन्त्योदयी भावना ने गांधीजी को प्रभावित किया था। यही बीजतत्च प्रकारांतर में ट्रस्टीशिप की प्रेरणा बना।

गांधीजी ने ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार पहले–पहल पत्रकारों द्वारा आर्थिक समानता को लेकर किए गए प्रश्न के उत्तर में प्रकट किया था। पृथ्वी पर मौजूद संपूर्ण संपदा पर समस्त मानव समुदाय का अधिकार मानते हुए, वे उसका उतना ही उपयोग करने के पक्ष में थे, जितना सम्मानजनक जीवन, वैसा जीवन जैसा अन्य करोड़ों नागरिक जीते हैं, जीने के लिए आवश्यक हो। बाकी बचा हुआ धन समाज का है, अतएव उसका उपयोग समाज–कल्याण के निमित्त ही किया जाना चाहिए—ऐसा उनका मानना था । उन्होंने लिखा था कि यह सिद्धांत वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को समतावादी समाज में बदलने की युक्ति से परचाता है। इसमें पूंजीवाद एवं एकाधिकारवाद के लिए कोई स्थान नहीं है । यह वर्तमान शक्तिशाली वर्ग को स्वयं को बदलने का अवसर उपलब्ध कराता है । यह इस विश्वास पर टिका है कि मानवीय प्रकृति सहयोग और सामंजस्य से भरपूर है । मनुष्य स्वभाव से भला होता है। मात्र अपने स्वार्थ के लिए दूसरे को मुश्किल में डालना उसकी मूल प्रवृत्ति नहीं है । वे चाहते थे कि समाज के शक्तिशाली वर्ग यानी पूंजीपति और सामंतवर्ग अपने से छोटे लोगों के बारे में सोचें । यह मानकर चलें की उनका धन–संपदा परमात्मा की ओर से उन्हें लोककल्याण के निमित्त सौंपी गई है । इसलिए उनका कर्तव्य है कि अपनी संपत्ति को लोकनिधि मानते हुए उसका उपयोग बहुजन के कल्याण के निमित्त करें।

उनका मानना था कि समस्त संपत्ति ईश्वर की है। पूंजीपतियों और जमींदारों को चाहिए कि वे ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को अपनाएं । जमींदार स्वयं को भूमि का संरक्षक–मात्रा मानते हुए, जमीन जोतने–बोने का अधिकार किसानों को खुशी–खुशी सौंप दें । पूंजीपति अपने कारखानों में कार्यरत मजदूरों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें । मान लें कि उनके पास जो पूंजी और धन–संपदा है, वह समाज की धरोहर है । ‘हरिजन’ में उन्होंने लिखा था कि—

‘मान लीजिए, मेरे पास व्यापार, उद्योग अथवा अन्य किसी वैधानिक तरीके से अर्जित किया गया पर्याप्त धन जमा हो जाता है, तो मुझे जानना चाहिए कि वह सारा का सारा धन मेरा नहीं है । उसमें से सिर्फ उतना ही धन मेरा है, जो मेरे सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार के अंतर्गत आता है, उस अवस्था में शेष धन का उपयोग समाज के दूसरे लोग भी करें, इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता । मुझे यह मान लेना चाहिए कि शेष धन पूरे समुदाय का है, अतएव उसका उपयोग सामुदायिक कल्याण के लिए ही किया जाना चाहिए’ ।

ट्रस्टीशिप का सिद्धांत निजी संपत्ति को उस समय तक मान्यता प्रदान नहीं करता, जब तक कि वह समाज द्वारा मान्य तथा उसके कल्याण के लिए उपयोग न की गई हो । यह संपत्ति के स्वामित्व एवं उपयोग का निषेध नहीं करता, बल्कि उसको दूसरों के साथ बांटने, जरूरतमंदों के साथ मिल–बांटकर खाने पर जोर देता है । वह राज्य को निर्देश देता है कि वह पूंजीपतियों को अपने संसाधनों का उपयोग लोककल्याण हेतु करने के लिए प्रोत्साहित करे । समाज में इतनी विषमता न पनपने दें कि एक वर्ग का अपना ही जीवन उसके लिए समस्या बन जाए । राज्य–नियोजित ट्रस्टीशिप के अनुसार व्यक्ति विशेष को निजी कामनाओं की पूर्ति के लिए धन–संचय करने तथा उनके उसका निजी उपयोग करने की अनुमति नहीं होती । गांधीजी चाहते थे कि न्यूनतम मजदूरी की दरें आकर्षक हों । आर्थिक समानता के स्तर को बनाए रखने के लिए मनुष्य की अधिकतम आय की सीमा भी निर्धारित हो । न्यूनतम एवं अधिकतम मजदूरी के बीच का अंतर तर्कसम्मत तथा समानता के सिद्धांत को सामने रखकर तय किया जाना चाहिए । इस अंतर की समय–समय पर समीक्षा होती रहनी चाहिए, ताकि समाज के आर्थिक स्तर पर होने वाले विभाजन को रोका जा सके।

ट्रस्टीशिप तथा समाजवाद

‘ट्रस्टीशिप’ के विचार की एक अतिमहत्त्वपूर्ण शर्त यह भी है कि समाज में उत्पादन आवश्यकता–केंद्रित हो । व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं, जरूरतों अथवा कामनाओं को उत्पादन का आधार हरगिज न बनाया जाए । कुछ ऐसे ही उत्पादन की कामना समाजवाद भी करता है । इसके बावजूद ट्रस्टीशिप को समाजवाद का पूरक अथवा सहायक सिद्धांत मानने में कठिनाई है । इसकी प्रमुख कमजोरी है कि यह न तो पूंजी के केंदीयकरण पर कोई प्रश्न उठाता है, न ही लाभ के औचित्य को समीक्षा के दायरे में लाता है । इसके विपरीत यह बहुजन के विकास को पूंजीपतियों और धनकुबेरों की दया पर छोड़ देता है । समाजवाद में राज्य की समस्त परिसंपत्तियां राज्य के अधीन होती हैं । वहां यह अपेक्षा की जाती है कि सरकार उन परिसंपत्तियों, संसाधनों का उपयोग व्यापक लोकहित में, इस प्रकार करेगी कि उसका लाभ समाज के साधारण से साधारणतम जन तक आसानी से पहुंच सके । सरकार की उत्तरदेयता को बनाए रखने के लिए वहां लोकप्रतिनिधित्व पर जोर दिया जाता है । समाजवाद में कानून बनाकर राज्य की संपदा का अधिग्रहण कर लिया जाता है । जहां कानून द्वारा अधिग्रहण संभव न हो, वहां बलप्रयोग की अनुमति भी समाजवाद देता है । उदाहरण के लिए रूस में जार से बलपूर्वक सत्ता वापस छीन ली थी। इसी तरह चीन में माओ–त्से–तुंग के नेतृत्व में किसानों ने सशस्त्र आंदोलन द्वारा राजशाही को सत्ता से बेदखल किया गया था। ये दोनों घटनाएं समाजवादी क्रांति के रूप में इतिहास में सुरक्षित हैं । दूसरी ओर भारत जैसे भी कुछ देश हैं, जिन्होंने अहिंसक क्रांति को प्राथमिकता दी। हालांकि अपने आधे–अधूरे समर्थन के कारण वे समाजवाद की स्थापना में अपेक्षित रूप से कामयाब नहीं हो पाए। यह मानते हुए कि रूस और चीन जैसी क्रांतियां यहां संभव नहीं, इन देशों में समाजवाद की नई परिभाषाएं गढ़ी गईं । इसके चलते मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना ने जन्म लिया । नेहरू युगीन भारत में समाजवाद के नारों और मिश्रित अर्थव्यवस्था की जुगलबंदी खूब चली । राजनीतिक अदूरदर्शिता तथा विकास के प्रति किसी ठोस कार्यनीति के अभाव में यह देश धीरे–धीरे पूंजीवाद की शरण लेता गया । यद्यपि लोकतांत्रिक दबावों के कारण सरकारें आज भी समाजवादी राग अलापना नहीं भूली हैं, तथापि अशिक्षा एवं नागरिकताबोध के अभाव के चलते भारत में समाजवाद का नारा पूंजीवाद के लिए पथ–प्रदर्शक सिद्ध हुआ है । इन्हीं दुर्बलताओं तथा विरोधाभासों के चलते समाजवाद को अपने आप में अस्पष्ट विचार माना गया है, परिणामस्वरूप हिटलर एवं मुसोलिनी जैसे तानाशाह भी स्वयं को समाजवादी घोषित करते रहे हैं।

गांधीजी अहिंसा के पुजारी थे । यह हालांकि उनका मौलिक विचार नहीं था। लगभग ढाई हजार वर्ष पहले, महावीर स्वामी के नेतृत्व में जैन दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ तो अहिंसा उसका केंद्रीय विचार बना । यह विचार वैदिक हिंसा के विरोध–स्वरूप जन्मा था, जहां ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’ मंत्र–जाप के स्वरघोष में उच्छ्रंखल पुरोहितवाद एवं पशुबलि को वैध ठहरा दिया जाता था।  महावीर स्वामी की अहिंसा का उद्देश्य आध्यात्मिक–नैतिक ऊंचाई प्राप्त करना था। गांधीजी अहिंसा–पथ पर चलकर राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहते थे । इस हथियार का उपयोग उन्होंने उस समय कामयाबी के साथ किया जब शेष विश्व में सत्ता–परिवर्तन के लिए युद्ध को अपरिहार्य माना जाता था। चूंकि अहिंसा का राजनीति में इतने बड़े स्तर पर प्रयोग करने वाले महात्मा गांधी अकेले नेता हैं, इसलिए उन्हें बीसवीं शताब्दी के महानतम नायक का गौरव प्राप्त है। गांधीजी का अंहिसा पर इतना विश्वास था कि वे आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए भी अहिंसा का उपयोग करना चाहते थे । जबकि कल्याणकारी राज्य के रूप में रामराज्य का उनका सपना वर्णविभाजन तथा आर्थिक असमानता की व्याख्या नियतिवाद के दायरे में करता है।

गांधीजी द्वारा ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार समाजवाद के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया था । हालांकि वे इसे परिपक्व ‘थ्योरी’ के रूप में विकसित करने में सर्वथा असमर्थ रहे । गांधीवाद और समाजवाद की आभासी निकटता को देखते हुए एक स्वाभाविक प्रश्न उठ सकता है, कि क्या गांधीजी समाजवाद की अवधारणा से जानबूझकर दूरी बनाए हुए थे। या फिर अपने उद्योगपति मित्रों के हितों को देखते हुए वे खुद को घोषित रूप से समाजवादी कहने से रोके रहे। मुझे दोनों ही संभावनाएं उचित जान पड़ती हैं. दरअसल उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक दुनिया में समाजवाद का जो चेहरा सामने आया वह हिंसा पर आधारित था । मार्क्स, ऐंग्लस, प्रूधों आदि उस समय के जितने भी समाजवादी थे, उन्हें समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाने से कोई गुरेज न था । शायद इसीलिए अहिंसा को समर्पित गांधीजी मार्क्स के विचारों को उतना महत्त्व नहीं देते । वे रूसो का पक्ष लेते हैं, जिसके अनुसार शक्तिशाली को उस समय तक लोकमान्यता नहीं मिलती, जब तक उसने अपनी शक्तियां वैध तरीकों से अर्जित न की हो । सत्ता का वैधानिकीकरण…समाज के प्रति दायित्वबोध की अनुभूति और उसके लिए समर्पित प्रयास करने, लोककल्याण के लिए आगे आने की प्रेरणा देना, इसी में श्रेय निहित है।

ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का कमजोर पक्ष तथा गांधी जीवन के अंतर्विरोध

ऊपर से आकर्षक दिखने के बावजूद ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में अनेक कमजोरियां हैं। यह सम्राटों–सामंतों की दान–परंपरा का आधुनिक संस्करण है। चूंकि धर्म स्वयं सामंती परिवेश की देन है, इसलिए प्रायः सभी धर्मग्रंथों में किसी न किसी रूप में दान का महत्तम गाया गया है। राजा–महाराजाओं के दरबारी–चाटुकार उनकी दानशीलता का तो बखान करते थे, उसके लिए चारण–वृंदों को वृत्तिका पर रखा जाता था।उन सबका दायित्व अपने आश्रयदाता की प्रशंसा उसमें सदगुणों की स्थापना करना था। दानशीलता को राजा का सद्गुण माना गया था । मगर राजा के धनागम के स्रोत क्या हैं? उनका नैतिक स्वरूप क्या है? इस बारे में प्रायः कोई चर्चा नहीं होती थी । राजा का खजाना उसके जागीरदारों, जमींदारों, सेठों, व्यापारी संगठनों के प्राप्त कराधान, भेंट और सौगातों पर निर्भर रहता था। हालांकि राजा–सामंतों की कमाई के लिए धार्मिक ग्रंथों में आचारसहिंताएं थीं, मगर व्यवहार में उनका पालन कम ही होता था । बल्कि युद्ध के दौरान निरीह प्रजा से लूटे गए धन को भी राजा का पराक्रम बताते हुए राजदरबार में उसका प्रदर्शन अपनी उपलब्धि के बखान के लिए किया जाता था। भारतीय ग्रंथों में दान की महानता का वर्णन किया गया है । मगर दान की परंपरा ने ही भारतीय समाज में एक पराश्रित तथा दूसरे के श्रम पर पलने वाले वर्ग को जन्म दिया था, जिसका दुष्परिणाम देश आज तक भुगतता आ रहा है।

ट्रस्टीशिप के साथ खतरा यह है कि जैसे धर्म के आवरण में राजा की कमाई के सारे स्रोत छिपा दिए जाते थे, उनकी नैतिकता पर कभी कोई चर्चा नहीं होती थी, वैसे ही यह विचार पूंजीवाद की समस्त अतियों और अनाचारों पर पर्दा डालने का काम करेगा । यह अनुचित और असंवैधानिक माध्यम से कमाए गए धन का वैधानिकीकरण करता है। अपनी पूंजी और तज्जनित संसाधनों के दम पर ट्रस्ट अथवा उसके सदस्य यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि उनका लाभार्जन का तरीका व्यापक जनहित में है । कि लाभ द्वारा अर्जित धन का उपयोग लोकहित में किया जाना है. ट्रस्ट में धन के ‘धनार्जन’ के रास्ते पर भी सवाल नहीं उठाए जा सकते, न ही अपेक्षित होता है कि इस प्रकार के प्रश्नों को बीच में लाया जाए. स्वयं पूंजीपतियों को भी मालूम था कि ट्रस्टीशिप का विचार समाजवाद के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया तो समाज की उनसे अपेक्षाएं बढ़ेंगी। उसपर हुई बहस पूंजीपतियों को कठघरे में खड़ा करेगी । इसलिए उन्होंने स्वयं ही उसको किसी भी प्रकार की बहस के दायरे से बाहर रखा. इसका एक परिणाम यह हुआ कि ट्रस्टीशिप का विचार कभी पुस्तकों से बाहर न आ सका ।

ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को समझाने के लिए गांधीजी धर्म का सहारा लेते हैं । संभवत: वे उम्मीद करते हैं कि धर्म का आकर्षण अथवा डर पूंजीपतियों को लोककल्याण के पथ पर चलने का विवश कर देगा। यहां वे भूल जाते हैं कि पूंजीपति और राजनेता ही हैं जो परस्पर मिलकर धर्म को ताकतवर बनाते हैं । बदले में धर्म भी उनकी अनैतिक सत्ता को वैधता प्रदान करता है. ट्रस्टीशिप में पूंजीपतियों से अपेक्षा की जाती है कि वे जनसमस्याओं को एक जिम्मेदार अभिभावक की भांति देखें। अपने विवेक से उनके निदान के लिए आवश्यक उपाय भी करें। इससे निर्णय प्रक्रिया में आम आदमी की महत्ता घट जाती है। अप्रत्यक्ष रूप में समाज के बहुसंख्यक वर्ग को अविवेकी मानकर उसकी उपेक्षा करने का ट्रस्टीशिप का विचार पूंजीपतियों को अतिरिक्तरूप से अधिकार संपन्न करता है । उसकी अगली पीढ़ी जब चाहे उस निर्णय को वापस ले सकती है अथवा ट्रस्ट के नियमों में फेरबदल कर सकती है । पूंजीपति अपनी परिसंपत्तियां श्रमिक के श्रम के बल पर अर्जित करता है । अपने मुनाफे के मामूली हिस्से को ही वह ट्रस्ट के संचालन में लगाता है। ट्रस्ट में लगी पूंजी श्रमिक के खून–पसीने की कमाई होती है। इसके बावजूद श्रमिक को यह अधिकार नहीं होता कि वह ट्रस्ट के काम में हस्तक्षेप कर सके अथवा पूंजीपति को कोई सलाह दे सके । ट्रस्टी के रूप में जिन व्यक्तियों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है, उनका चयन पूंजीपति द्वारा किया जाता है । अतः वे उसी का हितसाधन करते हैं । इस तरह देखा जाए तो ट्रस्टीशिप से आर्थिक–सामाजिक विभाजन के निदान का स्थायी उपाय कभी संभव नहीं है । शायद यही कारण है जो यह विचार पुस्तकों से बाहर कभी नहीं आ सका।

ट्रस्टीशिप को ‘श्रमिकसंघवाद’(Syndicalism)का विरोधी विचार भी कहा जा सकता है, जो श्रमिकों को संगठित होने, संघर्ष करने और अपनी एकजुटता के दम पर समस्त उत्पादनतंत्र पर अधिकार कर लेने का आवाह्न करता है । अभिसंघवाद श्रमिक सहकारिता का विस्तार था, एक ऐसा सुधारवादी आंदोलन जिसमें अभिकल्पना की गई थी कि श्रम–संघ उत्पादक कारखानों को हड़ताल, विरोध–प्रदर्शन के माध्यम से अपने हाथों में ले लेंगे । श्रमिकसंघवाद का उद्देश्य समस्त श्रमिकों को एक झंडे, एक संगठन के रूप में संगठित करना है, जिसपर उसके साधारण से साधारण सदस्य का नियंत्रण हो । इसके व्याख्याता बेकुनिन का मानना था कि इससे पूंजीवाद की समस्त बुराइयों का हल खोजा जा सकता है। श्रमिक–संघवाद के लागू होने से बेरोजगारी और आर्थिक विषमता अपने आप समाप्त हो जाएंगी । चूंकि उस समय उत्पादक एवं उपभोक्ता का कोई अंतर ही नहीं रहेगा, इसलिए वस्तुओं का उत्पादन व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुरूप होगा, न कि लाभार्जन की वांछा से। गांधीजी का ट्रस्टीशिप का विचार एक परिकल्पना से आगे नहीं बढ़ पाता । दूसरी ओर पूंजीवाद के विरोधस्वरूप उपजे दर्शनों में उसके विकल्पों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है।

स्मरणीय है कि जिस समय महात्मा गांधी ‘हिंद स्वराज’ में आधुनिक सभ्यता और मशीनीकरण की आलोचना कर रहे थे, उसको ‘शैतानी सभ्यता’ कहकर उसका तिरष्कार कर रहे थे, शेष दुनिया विशेषकर पश्चिम में पूंजीवाद के विरोध नए–नए विचारों का जन्म हो रहा था । पूंजीवाद के आलोचकों में एक अराजकतावादी पियरे जोसेफ प्रूधों भी था, जो व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा का ही विरोधी था—‘व्यक्ति संपत्ति चोरी है। व्यक्तिगत संपत्तिधारक चोर है।' उसका यह कथन बुद्धिजीवी हलकों में खलबली मचाए हुए था । प्रूधों के अलावा मार्क्स, ऐंगल्स, फ्यूरियर, राबर्ट ओवेन, बेकुनिन आदि विचारक पूंजीवाद के निरंकुश विस्तार से नाखुश थे । इन सबके विचारों में भिन्नता थी, किंतु वे सभी इस तथ्य पर एकमत थे कि समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता अन्यान्य बुराइयों के लिए पूंजीवाद जिम्मेदार है। इसलिए समाज के वास्तविक कल्याण के लिए, विकास का लाभ जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए पूंजीवाद पर अंकुश लगाना अत्यावश्यक है। उन सबसे अलग गांधीजी ‘हिंद स्वराज’ में तीखेपन के साथ मशीनों और आधुनिक सभ्यता की आलोचना तो करते हैं, मगर पूंजीपतियों की आलोचना नहीं कर पाते । वे संपत्ति पर समाज का अधिकार तो स्वीकारते हैं, किंतु उसके समान विभाजन के लिए कोई नई व्यवस्था का सुझाव देने के बजाय पूंजीपतियों से ही अपेक्षा करते हैं कि वे स्वयं को समाज की संपत्ति का रखवाला मानें। यह पूंजीवाद के प्रति समझौतावादी रवैया अपनाने जैसा है।

ट्रस्टीशिप का औचित्य सिद्ध करने के लिए गांधीजी धर्म को माध्यम बनाते हैं। उम्मीद करते हैं कि धर्म का आकर्षण अथवा डर पूंजीपतियों को लोककल्याण के पथ पर चलने का विवश कर देगा। जबकि पूंजीपति और राजनेता ही हैं जो परस्पर मिलकर धर्म को ताकतवर बनाते हैं। धर्म उन्हें मजबूत करता है। निहित स्वार्थ के लिए वे धर्म की बेड़ियों को लगातार कसते जाते हैं। ट्रस्टीशिप में पूंजीपतियों से अपेक्षा की जाती है कि वे जनसमस्याओं को एक जिम्मेदार अभिभावक की भांति देखें। अपने विवेक से उनके निदान के लिए आवश्यक उपाय भी करें। परंतु इस निर्णय प्रक्रिया में आम आदमी की महत्ता घट जाती है । समाज के बहुसंख्यक वर्ग को अविवेकी मानकर उसकी उपेक्षा करने का ट्रस्टीशिप का विचार पूरी तरह पूंजीपतियों की अनुकंपा पर निर्भर रहता है। इससे समाज के आर्थिक–सामाजिक विभाजन का स्थायी समाधान संभव नहीं। शायद इसीलिए यह विचार पुस्तकों से बाहर कभी नहीं आ सका।

‘ट्रस्टीशिप’ की अवधारणा के पीछे हम गांधीजी के निजी जीवन के अनुभवों की छाया भी देख सकते हैं। दक्षिण अफ्रीका में प्रारंभिक सफलता के पश्चात वे प्रवासी भारतीयों के सर्वमान्य नेता बन चुके थे। यह प्रसिद्धि उन्हें सत्याग्रह आंदोलनों द्वारा प्राप्त हुई थी, जिनकी प्रेरणा उन्हें थोरो से मिली थी। इसमें उनके मित्रों और सहयोगियों का भी पूरा समर्थन उनके साथ रहा था । दक्षिण अफ्रीका में अपना पहला आश्रम खरीदने के लिए 100 एकड़ भूमि गांधीजी ने स्वयं खरीदी थी। उस स्थान पर उन्होंने फीनिक्स आश्रम की स्थापना की थी। वही दक्षिण अफ्रीका में उनकी प्रारंभिक गतिविधियों का केंद्र बिंदू बना। उसके बाद जैसे–जैसे उनका प्रभामंडल बढ़ता गया, मददगार आगे आते गए । आंदोलनों और कार्यक्रमों के लिए संसाधन अपने आप जुटते चले गए । जोहन्सबर्ग में टाल्सटाय फार्म की स्थापना का विचार बना तो हरमन केलिनवर्थ मैत्री–धर्म निभाने आगे आ गया । पेशे से वास्तुकार, धनी यहूदी केलिनवर्थ ने 1910 में आश्रम के लिए 1100 एकड़ भूमि की व्यवस्था अपने संसाधनों के बल पर की थी । वहां बनाया गया टाल्सटाय आश्रम गांधींजी के ‘सत्य के प्रयोगों’ की कर्मस्थली बना। मार्क्सवाद की आंधी भारतीय उद्योगपतियों को भी ’गांधी शरणम गच्छामि’ के लिए विवश कर दिया था। वे एक ओर ब्रिटिश सरकार से संपर्क बनाए हुए थे, तो दूसरी ओर गांधीजी से भी उनका निकट संबंध था। गांधी समर्थन का एक तरीका था कि उनके आंदोलन के लिए संसाधन उपलब्ध कराए जाएं. यह उनके लिए आसान कार्य था। अत: 1915 में भारत आगमन के उपरांत राजनीतिक–सामाजिक आंदोलनों के कार्यान्वन के लिए स्थान की आवश्यकता पड़ी तो गांधीजी के बैरिस्टर मित्र जीवनलाल देसाई ने जिम्मेदारी संभाली। उनके ‘कोचरब बंगले’ में 25 मई, 1915 को ‘सत्याग्रह आश्रम’ की नींव रखी गई। 1917 में अहमदाबाद नगर को प्लेग की महामारी ने जकड़ लिया। घनी आबादी के बीच प्लेग ज्यादा फैलती थी, इसलिए आश्रम को अन्यत्र ले जाने की जरूरत अनुभव की गई । उसके लिए शहर से दूर, खाली पड़ी बंजर जमीन को चुना गया। उसके पास ही ब्रिटिश जेल थी, जहां लौह–शृंखलाओं में बंधे ब्रिटिश साम्राज्य के कैदी काम करते रहते थे । वह भूमि गांधीजी को बिना कोई मूल्य चुकाए मिल गई । सत्याग्रह आंदोलन के विस्तार के लिए गांधीजी के आदेश पर विनोबा ने जब वर्धा जाकर पवनार आश्रम की नींव डाली तो उसके लिए भूमि–भवन जमनालाल बजाज ने भेंट किया था । गांधीजी की व्यक्तिगत नैतिकता और ईमानदारी का पूरा–पूरा सम्मान करते हुए हमें याद रखना चाहिए कि उस समय बिरला घराना कपड़ा उद्योग में अग्रणी था । जिसके मालिक घनश्यामदास बिरला गांधीजी के बेहद करीबी लोगों में थे । क्या यह केवल संयोग है एक लंगोटी में ब्रिटेन की यात्रा कर आने वाला वह ‘अधनंगा फकीर’ पूंजीपतियों अथवा जमींदारों के बंगलों में ठहरता था। यहां तक कि उन्होंने आखिरी सांस भी बिरला के ही भवन में ली थी।

बेन ब्रैडले द्वारा अपने एक लेख में व्यक्त की गई यह घटना हालांकि बहुत बाद की है, किंतु गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की पृष्ठभूमि को समझने में सहायक हो सकती है। 1933 में मंदी के चलते मुंबई समेत देश के अन्य शहरों में कपड़ा मिलों में काम करने वाले श्रमिकों की मजदूरी में अचानक कटौती कर दी गई। एक तरफ महंगाई की मार, दूसरी ओर वेतन की कटौती, मजदूरों को एक साथ दोहरे संकट का शिकार बनना पड़ा । इससे उनमें आक्रोश फैलना स्वाभाविक था । श्रमिकों ने मिल–मालिकों पर दबाव बनाने की कोशिश की तो उन्होंने पुलिस की मदद से श्रमिकों को कुचलना आरंभ कर दिया । मजदूरों को कम वेतन पर काम करने के लिए बाध्य किया जाने लगा । इस बीच मिल मालिक कारखानों के विस्तार पर पूरा–पूरा ध्यान दे रहे थे । मजदूरी के नाम पर पूंजी की कमी और बढ़ते व्यापारिक घाटे का दावा करने वाले मिल–मालिकों की विस्तार योजनाओं में कोई कमी नहीं थी। कपड़ा मिलें जोर–शोर से आधुनिकीकरण में जुटी थीं । नई प्रौद्योगिकीयुक्त मशीनें लगाई जाने लगी थीं, जिससे एक साथ छह करघे जुड़े थे। एक श्रमिक छह करघों का संचालन एक साथ कर सकता था. इससे मिल मालिकों की आय में आशातीत वृद्धि हुई. मगर नई तकनीक श्रमिकों के लिए बेरोजगारी का संकट लेकर आई थी। वे घटी दरों पर रात और दिन की पारियों में काम करने को विवश थे । ऊपर से महंगाई बढ़ती ही जा रही थी. इससे उनके आक्रोश का बढ़ना निश्चित था । उग्र श्रमिकों ने काम पर जाना बंद कर दिया. मद्रास, धुलिया, नागपुर, शोलापुर, आमलनेर, अहमदाबाद, कुरिया यानी जहां–जहां कपड़ा मिलें थीं, सब जगह ऐसे ही हालात थे। दबाव से उकताकर अहमदाबाद में शेरा॓क मिल के मजदूरों ने अंततः हड़ताल घोषित कर दी ।हड़ताल की घोषणा के साथ ही मिल मालिक दमन पर उतारू हो गए।

उस समय ‘मिल मजदूर यूनियन’ नामक श्रम–संगठन पर गांधीजी का नियंत्रण था । ‘मिल मजदूर यूनियन’ ने यह तर्क देते हुए कि श्रमिकों ने हड़ताल पर जाने से पहले संगठन की अनुमति नहीं ली, उन्हें अपने संगठन से बहिष्कृत करना आरंभ कर दिया । उसी समय बेजबाड़ा मिल के मालिकों ने मजदूरी में 25 प्रतिशत कटौती का ऐलान कर दिया । इस नाजायज कटौती के विरुद्ध मामला मध्यस्थता के लिए ‘आर्बीट्रेशन बोर्ड’ के सम्मुख पहुंचा। गांधीजी वहां श्रमिकों की ओर से उपस्थित हुए। उस समय के हालात पर टिप्पणी करते हुए बेन ब्रैडले ने अपने आलेख में लिखा है—

‘‘मिल मालिक संगठन’ के सदस्यों में अधिकांश राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे । संगठन का अध्यक्ष तो पूरी तरह से कांग्रेसी था और वह स्वदेशी माल वस्तुओं के उपयोग का पूर्ण पक्षधर था, जो उसकी अपनी मिलों में बनती थीं। महात्मा गांधी तो स्वदेशी का पक्ष लेते ही थे, इसलिए कि उन्हें मिल मालिकों की ओर से चंदा प्राप्त होता था। सेठ चमनलाल पारिख जो मिल मालिकों की ओर से ‘आबीर्टेशन बोर्ड’ के समक्ष उपस्थित हुए थे, समर्पित कांग्रेसी नेता थे। महात्मा गांधी कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे। ऐसे में यह सोचना व्यर्थ ही है कि मजदूरी में 25 प्रतिशत की कटौती को लेकर ‘आर्बीट्रेशन बोर्ड’ का क्या निर्णय रहा होगा। गांधीजी द्वारा वेतन कटौती हेतु सहमत होने के लिए मजदूरों पर जोर डालने की यह कोई पहली घटना नहीं थी।'

भारतीय वांङमय में कहा गया है—‘सबै भूमि गोपाल की।'  ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की व्याख्या के समय कुछ ऐसा ही विचार गांधीजी के मन में रहा होगा। हो सकता है, उस समय गांधी जी के मन–मस्तिष्क पर राबर्ट ओवेन जैसे उदार पूंजीपतियों की छवि रही हो। लियो टाल्सटाय, थोरो और रस्किन की प्रेरणाओं को तो स्वयं गांधीजी ने ही स्वीकारा है । चीन और रूस में हुई सामाजिक क्रांति से मन ही मन घबराए हुए उस समय के प्रायः सभी धनकुबेर महात्मा गांधी के संपर्क में थे। गांधीजी की प्रेरणा पर उनमें से कुछ पूंजीपतियों ने ट्रस्ट बनाए भी, लेकिन वे उनके वाणिज्यिक और पारिवारिक हित–साधन से आगे न बढ़ सके। अधिकांश ने उसका उपयोग पुरस्कार–प्रोत्साहन द्वारा बुद्धिजीवियों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए किया । कहा जा सकता है कि गांधीजी का ‘सत्याग्रह’ यानी राजनीति का अहिंसात्मक अनुप्रयोग तो कामयाब हुआ, किंतु आर्थिक क्षेत्र में उनका अहिंसावादी दृष्टिकोण सिवाय कुछ नारों और राजनीतिक अभिव्यक्तियों से आगे न बढ़ सका । जैसाकि ऊपर कहा गया है, कुछ नामी–गिरामी उद्योगपति टोपी–खद्दर पहनकर उनके पीछे जरूर चले, मगर इसके पीछे उनकी गांधीवाद में आस्था कम स्वयं को वर्ग–संगर्ष के उन नतीजों से बचाए रखने की छटपटाहट अधिक थी, जिसकी धमक भारतीय जनसमाज को नई चेतना से सराबोर कर रही थी। लेनिन और ट्राटस्की जैसे जननेता रूस की क्रांति को भारत में दोहराना चाहते थे, ताकि एशिया महाद्वीप में पूंजीवाद के पर कतरे जा सकें । गांधीजी का ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार भले ही अव्यावहारिक मान लिया गया हो, मगर उसको उछाला खूब गया। सही मायने में तो उसने भारतीय किसानों–मजदूरों को सर्वहारा क्रांति से विमुख रखने, हालात से समझौता करने तथा दूसरों से दया की उम्मीद बनाए रखने के लिए प्रेरित किया।

जैसा कि पीछे कहा गया है, गांधीजी समाजवादी नहीं थे । किंतु उनकी विचारधारा जिसे प्रायः गांधीवाद कह दिया जाता है, समाजवाद के विकल्प के रूप में प्रस्तुत की जाती है । पिछले दिनों यह मांग की गई थी गांधीजी को जिन धनी सेठों ने भूमि–भवन दान दिए, उनके आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक मदद पहुंचाई उनके बारे में शोध किया जाना चाहिए । यह काम अवश्य होना चाहिए कि गांधीजी को सार्वजनिक कार्य के लिए कब किस पूंजीपति ने कौन–सी संपत्ति भेंट की थी, उसका उन दिनों मूल्य क्या था? आखिर हिंद स्वराज के हिंदी संस्करण में भारतीय उद्योगपतियों के कारखानों में बने कपड़े का उपयोग करने की अनुमति के पीछे कुछ तो वजह रही होगी।

संपादन व संकलन
आनंद श्री कृष्णन
हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा, महाराष्ट्र

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