बेरोजगारी की समस्या और उसे दूर करने के उपाय

बेरोजगारी की समस्या और उसे दूर करने के उपाय |

प्रस्तावना:

भारत की गरीबी का एक मुख्य कारण देश में फैली बेरोजगारी है । यह देश की एक बड़ी समस्या है, जो शहरो और गांवो में समान रूप से व्याप्त है । यह एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है, जो आधुनिक युग की देन है । हमारे देश में इसने बड़ा गम्भीर रूप धारण कर लिया है । इसके कारण देश में शान्ति और व्यवस्था को खतरा पैदा हो गया है । अत: इस समस्या के तत्काल निदान की आवश्यकता है ।

भारत में बेरोजगारी के कारण:

इस गम्भीर समस्या के अनेक कारण हैं । बड़े पैमाने पर मशीनों का अंधाधुंध प्रयोग बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण है । इनके कारण मनुष्य के श्रम की आवश्यकता बहुत कम हो गई है । इसके अलावा हमारी जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है । जनसंख्या की वृद्धि के अनुपात से उत्पादन के कामी तथा रोजगार के अवसरों में कम वृद्धि होती है । इसलिए बेरोजगारी लगातार बढती ही जाती है ।

भारत में व्याप्त अशिक्षा भी बेरोजगारी का मुख्य कारण है । आज के मशीनी युग में शिक्षित और कुशल तथा प्रशिक्षित व्यक्तियो की आवश्यकता पडती है । इसके अलावा, हमारी शिक्षा प्रणाली भी दोषपूर्ण है । हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में साक्षरता को ही विशेष महत्त्व देते हैं । व्यावसायिक तथा तकनीकी शिक्षा की अवहेलना होती है । तकनीकी शिक्षा का जो भी प्रबन्ध है, उसमे सैद्धांतिक पहलू पर अधिक जोर दिया जाता है और व्यावहारिक पहलू पर ध्यान नहीं दिया जाता ।

यही कारण है कि हमारे इंजीनियर तक मशीनो पर काम करने से कतराते हैं । साधारण रूप से उच्च शिक्षा प्राप्त करके हम केवल नौकरी करने लायक बन पाते हैं । शिक्षा में श्रम को कोई महत्त्व नही दिया जाता । अत: शिक्षित व्यक्ति शारीरिक मेहनत के काम करने से कतराते हैं ।

सभी व्यक्ति सफेदपोशी की नौकरियो के पीछे भागते हैं । ऐसा काम इतने अधिक नहीं होते । जिनमें सभी शिक्षित व्यक्ति लग सके । इसीलिए क्लर्को की छोटी नौकरी तक के लिए भारी प्रतियोगिता होती है । रोजगार कार्यालयों में शिक्षित बेरोजगारों की लम्बी-लम्बी कतारे देखी जा सकती हैं । इनके रजिस्टरों में परजीकृत बेरोजगारी की सज्जा निरन्तर बढ़ती जा रही है ।

बेरोजगारी दूर करने के उपाय:

बेरोजगारी दूर करने के दीर्घगामी उपाय के रूप में हमें जनसख्या वृद्धि पर अकुश लगाना पड़ेगा । तात्कालिक उपाय के रूप में लोगों को निजी व्यवसायो में लगने के प्रशिक्षण की व्यवस्था करके उन्हे धन उपलब्ध कराना चाहिए, ताकि नौकरियो की तलाश कम हो सके ।

गांवो में बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए कुटीर उद्योग-धंधों को बढ़ावा देना चाहिए । इसके लिए पर्याप्त प्रशिक्षण सुविधाओ की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा समय पर कच्चा माल उपलका कराया जाना चाहिए ।

सरकार को उचित मूल्य पर तैयार माल खरीदने की गांरटी देनी चाहिए । यह काम सहकारी सस्थाओं के द्वारा आसानी से कराया जा सकता है । बेरोजगारी दूर करने के दीर्घगामी उपाय के रूप में हमे अपनी शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना पड़ेगा । हमें तकनीशियनों और हाथ का काम करने वालों की आवश्यकता है न कि क्लर्को की ।

अत: हाई स्कूल तक सामान्य साक्षरता के बाद हमें व्यावसायिक शिक्षा का व्यापक प्रबन्ध करना चाहिए । व्यावसायिक शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए कि शिक्षा पूरी करने कै बात नवयुवक झ पने हाथ से कॉम करने का आत्म -विश्वास संजो सकें पस्‌पैर नौकरियों रही तलाश कें धकाए अपन छोटा-मोटा काम शुरू कर राके सकें ।

उपसंहार:

हमें निराश नहीं होना चाहिए । हमारी शिक्षा-व्यवस्था सुधार किए जा रहै है । अपने कामम-धंधो को शुरू करने के औत्नेए रियाटाती व्याप्ने दरों पर धन उपलब्ध कराया जा रहा है । इन सब उपायों का परिणाम कुछ वर्षा में सामने आ जायेंगे । आवश्यकता इस बात की है कि हम आत्मविश्वाद्‌न और दृढ़ता के साथ सहयोग करें और मिल-जुल कर इस समस्या को हल करे ।

युवाओं का देश कहे जाने वाले भारत में हर साल 30 लाख युवा स्नातक व स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करते हैं। इसके बावजूद देश में बेरोजगारी दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ रही है।

सालाना बढ़ती शिक्षित बेरोजगारों की तादाद भारतीय शैक्षणिक पद्धति को सवालों के घेरे में खड़ा करती है, उस भारतीय शैक्षणिक पद्धति को जिसने भारतीयों को धर्म और अध्यात्म तो खूब सिखाया पर उसी भारत के युवाओं को उनकी काबिलियत सिद्ध करने का हुनर न सिखा सकी।

हाल ही में उच्च शिक्षा के लिए विश्व के ख्यात विश्वविद्यालयों, पाठ्यक्रमों, छात्रों व रोजगार के अवसरों पर हुए सर्वे ने भारतीय उच्च शिक्षा की वास्तविकता उजागर की है। इस सर्वे से साफ होता है कि आज भारत पढ़े-लिखो का अनपढ़ देश बन चुका है। हमारी तामझाम वाली उच्च शिक्षा हकीकत से कोसों दूर है, जबकि हम अपनी झूठी शान की तूती ही बजाते फिर रहे हैं।

हम अमेरिका, इंग्लैंड, चीन व जापान जैसे देशों की तुलना में कहीं भी खड़े दिखाई नहीं देते, जबकि इन देशों में छात्रों को न तो हाथ पकड़कर लिखना सिखाया जाता है और न ही वहां के पाठ्यक्रम भारत की तरह बेबुनियादी होते हैं।

इन देशों में प्रोफेशनल कोर्सों को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। बच्चों से लेकर युवाओं तक की बुनियादी पढ़ाई कम्प्यूटरों पर होती है जिससे वे कम्प्यूटर की दुनिया में महारत पा लेते हैं और अंग्रेजी उनकी पैतृक संपदा होने के कारण इन्हें कोई कठिनाई नहीं जाती।

परंतु इनकी तुलना में हमारा बुनियादी ढांचा बेहद कमजोर है। एक ओर जहां हम बच्चों को छठी-सातवीं से अंग्रेजी के ए, बी, सी, डी पढ़ाते हैं तो वहीं स्नातक स्तरों पर छात्रों को कम्प्यूटर की शिक्षा दी जाती है जिससे जाहिर है कि अमेरिका के बच्चे की अपेक्षा भारत का बच्चा पिछड़ा ही होगा।

उच्च शिक्षा के लिए सर्वे करने वाली संस्था एसोचैम ने भारतीय शिक्षा के साथ यहां के युवाओं को हर तरह से अयोग्य ठहराया है। संस्था का मानना है कि भारत में 85 फीसदी ऐसे शिक्षित युवा हैं, जो अच्छी-खासी पढ़ाई के बावजूद किसी भी परिस्थिति में अपनी योग्यता सिद्ध नहीं कर सकते। 47 फीसदी शिक्षित युवा रोजगार के लिए अयोग्य माने गए हैं, 65 फीसदी युवा क्लर्क का काम भी नहीं कर सकते और 97 फीसदी शिक्षित युवा अकाउंटिंग का काम सही तरीके से नहीं कर सकते।

देश में शिक्षा की गुणवत्ता का अंदाजा इसी आधार पर लगाया जा सकता है कि यहां इन्हीं शिक्षित युवाओं में से 90 फीसदी युवाओं से कामचलाऊ अंग्रेजी भी नहीं बनती। साथ ही एक दूसरी संस्था ने नौकरी-पेशा करने वाले युवाओं का सर्वे कर उनकी मासिक व सालाना आय पर अपनी रिपोर्ट पेश की।

इस रिपोर्ट में बताया गया कि देश का 58 फीसदी युवा बमुश्किल 65,000 रुपए सालाना कमा पाता है जबकि अधिकांश स्नातक छात्र देश के रोजगार कार्यक्रम मनरेगा की दर पर ही 6250 रुपए मासिक कमा लेते हैं, ऐसे में भारतीय शिक्षा से अच्छी मजदूरी कही जा सकती है, जो बिना लाखों खर्च किए पैसे तो देती है। भारत में एक ओर युवाओं को महाशक्ति माना गया लेकिन दूसरी ओर उसे बेरोजगारी व नाकामी की जंजीरों में भी जकड़ा गया है।

बहरहाल, युवाओं के लिए भारतीय उच्च शिक्षा पूरी तरह नाकाम साबित हुई है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा कि देश में शिक्षा सुधार के लिए कोई उपाय नहीं किए गए। देश में 650 शैक्षणिक संस्थान व 33,000 से ज्यादा डिग्री देने वाले कॉलेज हैं लेकिन इनमें दशकों पुराने पाठ्यक्रमों का आज भी उपयोग किया जा रहा है।

शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए न तो यूजीसी ही ध्यान दे पा रही है और न ही विश्वविद्यालयों का आला प्रशासन इस पर अपनी पकड़ बना पा रहा है, नतीजतन सारी की सारी घिसी-पिटी शिक्षा कॉलेजों के हवाले कर दी जाती है जिससे ये कॉलेज अपनी मनमानी कर पाठ्यक्रमों को निपटा देते हैं। यहां तक कि कॉलेज व विश्वविद्यालय छात्रों से मोटी-मोटी रकम लेकर उनकी फर्जी अंकसूची तक तैयार कर देते हैं जिससे जरूर कॉलेज व विश्वविद्यालयों का नाम रोशन होता है लेकिन छात्र को पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता।

दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि शैक्षणिक स्तर सुधारने के लिए आज तक कोई राष्ट्रीय समिति नहीं बनाई गई, जो राष्ट्रीय स्तर पर बैठक कर कोई बेहतर हल निकाल सके। यहां तक कि हमारी राजनीति में भी शिक्षा सुधार नीतियां नहीं बनाई गईं।

शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है लेकिन भारत की असंवेदनशील राजनीति को आरोप-प्रत्यारोप के अलावा अन्य किसी विषय पर विचार करने का समय ही नहीं है।

देश में वैसे तो एक से बढ़कर एक संस्थान हैं, पर कोई भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि नहीं बना सका है और न ही छात्रों को उनकी का‍बिलियत सिद्ध करने का पूरा हौसला दे सके हैं। देश का एक इतना बड़ा तबका शिक्षित होते हुए भी आज बेरोजगार है, जो भारत की विकासशीलता में भी बाधा बना हुआ है। यहां बेरोजगारी की स्थिति किसी महामारी से कम नहीं है।

देश के शीर्ष अर्थशास्त्रियों ने भी माना है कि देश में बढ़ती गरीबी युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी का ही नतीजा है। यदि भारत को आर्थिक मजबूती देनी है तो हमारे शासन को कहीं से भी भारतीय युवाओं को रोजगार मुहैया कराना होगा जिसके लिए सर्वप्रथम शिक्षा की गुणवत्ता बदलनी होगी।

स्कूली स्तर से ही अंग्रेजी व कम्प्यूटर का ज्ञान छात्रों को देना होगा, पाठ्यक्रमों को बदलना होगा व रोजगार के अवसरों पर भी ध्यान देना होगा। राजनीति में पार्टियों द्वारा प्रस्तुत अभिलेखों व कार्यों में शिक्षा को दर्शाना होगा।

कुल मिलाकर सभी को शिक्षा के प्रति अपनी झूठी शान को हटाकर जमीनी स्तर पर कार्य करना होगा, तभी जाकर देश का इतना बड़ा तबका पूर्ण साक्षर होगा व उसे रोजगार के बेहतर अवसर भी प्राप्त होंगे।

बेरोजगारी का अर्थ है कार्य सक्षम होने के बावजूद एक व्यक्ति को उसकी आजीविका के लिए किसी रोज़गार का न मिलना| रोज़गार के अभाव में व्यक्ति मारा-मारा फिरता है| ऐसे में तमाम तरह के अवसाद उसे घेर लेते हैं, फिर तो न चाहते हुए भी कई बार वह ऐसा कदम उठा लेता है, जिनकी कानून इजाजत नहीं देता| राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन ने बेरोजगारी को इस प्रकार से परिभाषित किया है यह वह अवस्था है, जिसमें काम के आभाव में लोग बिना कार्य के रह जाते हैं| यह कार्ययत व्यक्ति नहीं है, किंतु रोजगार कार्यालयों, मध्यस्थों, मित्रों, संबंधियों आदि के माध्यम से या संभावित रोज़गारदाताओं का आवेदन देकर या वर्तमान परिस्थितियों और प्रचलित मजदूरी दर पर कार्य करने की इच्छा प्रकट कर कार्य तलाशते है|

वर्ष 2011-12 के दौरान श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार, भारत में बेरोजगारी दर 3.8% हैं| देश के विभिन्न राज्यों में गुजरात में बेरोजगारी दर सबसे कम 1% है, जबकि दिल्ली एवं महाराष्ट्र में 4.8% एवं 2.8% है| सार्वधिक बेरोज़गारी दर वाले राज्य केरल और पश्चिम बंगाल थे| इस सर्वे के अनुसार, देश की महिलाओं की अनुमानित बेरोज़गारी दर 7% थी| बेरोजगारी समस्या के कारणों को जानने से पहले इसकी स्थितियों को जान लेते हैं| दरअसल, बेरोज़गारी की स्थितियां होती हैं|

इस दृष्टिकोण से भारत में प्राय निम्न्लिखित प्रकार की बेरोजगारी देखी जाती है|

खुली बेरोजगारी इससे से तात्पर्य उस बेरोज़गारी से है, जिसमें व्यक्ति को कोई काम नहीं मिलता| यह सबसे गंभीर समस्या है, इसमें कुशल एवं अकुशल श्रमिक को बिना काम किए ही रहना पड़ता ह| गांव से शहरों की ओर लोगों का पलायन इसकी मुख्य वजह है|

शिक्षित बेरोजगारी शिक्षित बेरोजगारी भी खुली बेरोज़गारी जैसी है, किंतु इसमें थोड़ा सा अंतर यह है कि व्यक्ति को उसकी शैक्षणिक योग्यता के अनुसार काम नहीं मिलता| उदाहरण राजमिस्त्री को काम के आभाव में मजदूर का काम करना पड़े| भारत में यह एक गंभीर समस्या है|

घर्षणात्मक बेरोजगारी बाजार में आए उतार-चढ़ाव या मांग में परिवर्तन जैसे स्थितियों के कारण उत्पन्न बेरोज़गारी की अवस्थाएं घर्षणात्मक बेरोजगारी कहलाती है|

मौसमी बेरोजगारी यह मुख्य रुप से कृषि क्षेत्र में पाई जाती है, इसमें कृषि श्रमिक वर्ष के कुछ महीने कृषि कार्य में संग्लन होते हैं तथा शेष अवधि में बेकार पड़े रहते हैं| भारत में कृषि क्षेत्र में सामान्यत: 7-8 महीने ही काम चलता है, शेष महीनों में कृषि में लगे लोगों को बेरोज़गार रहना पड़ता है| ऐसी बेरोजगारी मौसमी बेरोजगारी कहलाती है|

शहरी बेरोजगारी बड़े पैमाने पर शहरीकरण किए जाने के दौरान शहरों में बढ़ती जनसंख्या की तुलना में रोज़गार के अवसरों का विस्तार नहीं हो पाता है, वही गांव में रोज़गार नहीं मिलने के कारण भी लोग शहर की ओर पलायन करते हैं, परंतु शहरों में सभी को काम नहीं मिल पाता| ऐसी बेरोजगारी शहरी बेरोजगारी कहलाती है|

ग्रामीण बेरोजगारी गाँवो के लोग पहले आपस में ही कामों को बँटवारा कर लेते थे| कोई कृषि कार्य में संग्लन में रहता था, तो कोई गाँव के अन्य कार्य में संपन्न करता था| गाँवो से शहरों की और पलायन के कारण गाँवो की यह व्यवस्था समाप्त हो गई है, जिसमें गाँवो के अधिकतर लोग बेरोज़गार हो गए हैं|

संरचनात्मक बेरोजगारी औद्योगिक क्षेत्र में जब संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं, तो इसमें कुछ अल्प-दक्ष या अनावश्यक कर्मचारियों की छंटनी के कारण उत्पन्न बेरोजगारी संरचनात्मक बेरोज़गारी कहलाती है| इसमें तीव्र प्रतियोगिता के कारण पुरानी तकनीक वाले उद्योग बंद होने लगते हैं तथा उनके स्थान नहीं मशीन ले लेती है| भारत में भी ऐसी बेरोजगारी पाई जाती है|

अल्प-रोज़गार वाली बेरोजगारी ऐसे श्रमिक, जिनको कभी-कभी ही काम मिलता है, हमेशा नहीं, इस बेरोज़गारी के अंतर्गत आते हैं| बेरोज़गारी की इस श्रेणी के अंतर्गत श्रमिकों को भी सम्मिलित किया जाता है, जिन्हें उनकी क्षमता के अनुसार काम नहीं मिल पाता|

अदृश्य बेरोजगारी ऐसी बेरोजगारी प्राय: कृषि क्षेत्र में दिखाई पड़ती है| खेतों में कुछ ऐसे श्रमिक भी कार्य करते हैं, जिन्हे यदि काम से हटा दिया जाए तो, उत्पादन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता| इस स्थिति में लोग कार्य करते तो दिखाई पड़ते हैं, पर वास्तव में देखा जाए तो वह बेरोज़गार ही होते हैं, क्योंकि उत्पादन में उनकी कोई भागीदारी नहीं होती | इसे प्रच्छन्न बेरोज़गारी भी कहा जाता है| प्रच्छन्न बेरोज़गारी की धारणा का उल्लेख सर्वप्रथम श्रीमती जॉन रॉबिंस ने किया है|

बेरोजगारी मापन की अवधारणा :-

सामान्य बेरोजगारी इसमें सामान्यत: है यह देखा जाता है कि लोग रोज़गार में होते हुए, बेरोज़गार हैं या श्रम शक्ति से बाहर हैं| इसमें लम्बी अवधि के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाता है, अतः यह दीर्घकालिक बेरोजगारी को दर्शाता है|

साप्ताहिक स्थिति बेरोजगारी इसके अंतर्गत सप्ताहभर अर्थात पिछले 7 दिनों की गतिविधियों का विश्लेषण कर बेरोज़गारी की माप प्रस्तुत की जाती है|

दैनिक स्थिति बेरोजगारी इसमें व्यक्ति की प्रतिदिन की गतिविधियों पर गोर करके बेरोजगारी की माप प्रस्तुत की जाती है|

उपयुक्त तीनो अवधारणाओं में दैनिक स्थिति, बेरोज़गारी की सर्वोत्तम में प्रस्तुत करती है| यदि कुल बेरोजगारों में युवाओं को देखा जाए, तो वर्ष 1993-94 से 2004-05 की अवधि में ग्रामीण तथा शहरी, दोनों क्षेत्रों में ही बेरोज़गारी दर में वृद्धि हुई है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के आर्थिक समृद्धि में बाधक है|

हमारे देश में बेरोजगारी के कई कारण है| जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि इसका एक सबसे बड़ा एवं प्रमुख कारण है| बढ़ती जनसंख्या के जीवन-निर्वहन हेतु अधिक रोज़गार सृजन की आवश्यकता होती है, ऐसा न होने पर बेरोज़गारी में वृद्धि होना स्वभाविक है| भारत में व्यावहारिक के बजाए सैद्धांतिक शिक्षा पर जोर दिया जाता है, फलस्वरूप व्यक्ति के पास उच्च शिक्षा की उपाधि तो होती है, परंतु न तो वह किसी कार्य में दक्ष हो पाता है और न ही अपना कोई निजी व्यवसाय शुरू कर पाता है|

इस तरह, दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली भी बेरोज़गारी को बढ़ाने में काफी हद तक जिम्मेदार है| देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की यह पंक्तियां भी हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली की कमियों को प्रमाणित करती है:- हमारे देश में हर साल 9 लाख पढ़े-लिखे लोग नौकरी के लिए तैयार हो जाते हैं, जबकि यह शतांश के लिए भी नौकरियाँ खाली नहीं| हमारे यहां स्नातक के स्थान पर वैज्ञानिकों और तकनीकों विशेषज्ञों की आवश्यकता है|

पहले अधिकतम ग्रामीण, कुटीर उद्योगों से अपनी आजीविका चलाते थे| ब्रिटिश सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीतियों के कारण देश में इनका पतन होता चला गया| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इसके उत्थान के लिए कुछ विशेष प्रयास नहीं किए गए, जिसके दुष्परिणामस्वरूप गाँवो की अर्थव्यवस्था चेन्न भिन्न हो गयी और ग्रामीण बेरोजगारी में वृद्धि हुई| औद्योगिकरण के मंद प्रक्रिया के कारण भी तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए रोजगार उपलब्ध करवाना संभव नहीं हो सका| हमारे देश प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न है, किंतु पूंजी एवं तकनीक के अभाव में हम इनका समुचित उपयोग नहीं कर पाते| भारत की बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है, किंतु कृषि के पिछड़ेपन के कारण इस क्षेत्र के लोगों को सालों भर रोजगार नहीं मिल पाता है|

बेरोज़गारी के कई दुष्परिणाम होते हैं | बेरोजगारी के कारण निर्धनता में वृद्धि होती है तथा भुखमरी की समस्या उत्पन्न हो जाती है| बेरोजगारी के कारण मानसिक अशांति की स्थिति में लोगों की चोरी, डकैती, हिंसा, अपराध की ओर प्रवाहित होने की पूरी संभावना रहती है| अपराध एवं हिंसा में हो रही वृद्धि का सबसे बड़ा कारण बेरोज़गारी ही है| कई बार तो बेरोज़गारी की भयावह स्थिति से तंग आकर आत्महत्या भी करते हैं| युवाओं की बेरोजगारी का लाभ उठाकर एक और जहां स्वार्थी राजनेता इनका दुरुपयोग करते हैं, वहीं दूसरी और धनी वर्ग व्यक्ति भी इनका शोषण करने से नहीं चूकते| ऐसी स्थिति में देश का राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण अत्यंत दूषित होता है|

जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण कर, शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार करते हुए व्यावसायिक एवं व्यवहारिक शिक्षा पर जोर देकर, कुटीर उद्योग को बढ़ावा देकर एवं औद्योगिकरण द्वारा रोज़गार के अवसर सृजित कर हम बेरोज़गारी की समस्या का काफी हद तक समाधान कर सकते हैं| महात्मा गांधी ने भी कहा था:- भारत जैसे विकासशील देश लघु एवं कुटीर उद्योग की अनदेखी कर विकास नहीं कर सकता|

ग्रामीण क्षेत्र के लिए अनेक रोज़गार मुख्य योजनाएं चलाए जाने के बावजूद बेरोजगारी की समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो रहा है| ऐसे स्थिति के कई कारण है| कभी-कभी योजनाओं को तैयार करने की दोषपूर्ण प्रक्रिया के कारण इनका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पाता या ग्रामीणों के अनुकूल नहीं हो पाने के कारण भी कई बार यह योजनाएं कारगर साबित नहीं हो पाती|

प्रशासनिक खामियों के कारण भी योजनाएँ या तो ठीक ढंग से क्रियान्वित नहीं होती या ये इतनी देर से प्रारंभ होती हैं कि उनका पूरा-पूरा लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल पाता| इसके अतिरिक्त भ्रष्ट शासनतंत्र के कारण जनता तक पहुंचने से पहले ही योजनाओं के लिए निर्धारित राशि में से दो-तिहाई तक बिचौलिया खा जाते हैं| फलत: योजनाएं या तो कागज तक सीमित रह जाते हैं या फिर वे पूर्णत: निर्थक साबित होती हैं|

बेरोजगारी एक अभिशाप है| इसके कारण देश की आर्थिक वृद्धि बाधित होती है| समाज में अपराध एवं हिंसा में वृद्धि होती है और सबसे बुरी बात तो यह है कि बेरोज़गार व्यक्ति को अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहते हुए अपने घर ही नहीं बाहर के लोगों द्वारा भी मानसिक रुप से प्रताड़ित होना पड़ता है| बेरोजगारी की समस्या का समाधान केवल सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं होता हो सकता, क्योंकि सच्चाई यही है कि सार्वजनिक ही नहीं निजी क्षेत्र के उद्यमों की सहायता से भी हर व्यक्ति को रोज़गार देने किसी भी देश की सरकार के लिए संभव नहीं है|

बेरोजगारी की समस्या का समाधान तभी संभव है, जब व्यावहारिक एवं व्यवसायिक रोजगारोंन्मुखी शिक्षा पर ध्यान केंद्रित कर लोगों को स्वरोज़गार अथवा निजी उद्योग एवं व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए प्रेरित किया जाए| आज देश की जनता को अपने पूर्व राष्ट्रपति श्री वराहगिरी वेंकटगिरि कि कही बात:- “प्रत्येक घर कुटीर उद्योग है और हम भूमि के प्रत्येक एकड़ एक चरागाह” से शिक्षा लेकर बेरोज़गारी रूपी दैत्य का नाश कर देना चाहिए|

बेरोजगारी का अर्थ

बेरोजगारी उस सिथति को दर्शाती है जिसमें श्रमिककामगार कार्य करने के लिये योग्य तथा तत्पर है लेकिन उसे रोजगार नहीं मिलता है। दूसरे शब्दों में, बेरोजगारी वह सिथति है जहाँ व्यकित कार्य करने के लिये योग्य तथा तत्पर होते हुए भी वह काम पाने में असफल रहता है, जो उसे आम या आजीविका प्रदान करता है।

बेरोजगारी की दर -

बेरोजगार व्यकितयों की संख्या तथा कुल श्रम शकित का अनुपात बेरोजगारी को प्रकट करता है तथा प्रतिशत रूप में निम्न प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं- बेरोजगारी की दर = बेरोजगार व्यकितयो की संख्या  x 100

                                 कुल श्रम शकित

बेरोजगारी के कारण - भारत में बेरोजगारी की समस्या ने स्वतंत्राता के समय से ही चौंकाने वाले हालात अखितयार कर लिया है। ऐसे कर्इ घटक हैं जिनकी बेरोजगारी को बढ़ाने में उनकी प्रमुख भूमिका होती है, कुछ घटकों का निम्न प्रकार से वर्णन किया है-

 

1. उच्च जनसंख्या वृद्धि - पिछले कुछ दशको से देश की तेजी से बढ़ती हुर्इ जनसंख्या ने बेरोजगारी की समस्या को तेजी से (उग्ररुप से) बढ़ाया है। देश की तेजी से बढ़ती हुर्इ जनसंख्या के कारण प्रत्येक योजनाकाल में बेरोजगारी के परिमाण में वृद्धि हुर्इ है, जिससे एक भयानक (खतरनाक) सिथति उत्पन्न हो गर्इ। भारत के आर्थिक विकास वृद्धि की अपेक्षा जनसंख्या की वृद्धि दर अधिक रही है। इस प्रकार आर्थिक विकास के होते हुए भी अद्र्धशती में बेरोजगारी की समस्या भयानक रूप से बढ़ी है।

2. आर्थिक विकास की अपर्याप्त दर - यधपि भारत एक विकासशील देश है, लेकिन देश की सम्पूर्ण श्रम-शकित को अवशोषित (खपाने में) करने में वृद्धि दर अपर्याप्त है। देश की अतिरिक्त श्रम शकित को समायोजित करने में रोजगार के अवसर अपर्याप्त हैं, परिणास्वरूप देश की जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुर्इ है।

3. कृषि के अलावा अन्य क्रियाओं में रोजगार के अवसरों का अभाव - देश के अन्य क्षेत्राों की अपेक्षा रोजगार उपलब्ध कराने में कृषि क्षेत्रा की प्रमुख भूमिका रही है। ग्रामीण बेरोजगारी का प्रमुख कारण कृषि की निम्न विकास दर है। चूँकि जनसंख्या का लगभग 2 से 3 भाग कृषि कार्य में संलग्न है जिस कारण भूमि पर जनसंख्या का दबाव अधिक है। अत% श्रम शकित का एक भाग छिपी बेरोजगारी से ग्रसित है।

4. मौसमी रोजगार - भारत में कृषि मौसमी रोजगार उपलब्ध कराती है। अत% जब कृषि कार्य नहीं किया जाता है तब कृषि बेरोजगार हो जाता है।

5. संयुक्त परिवार प्रणाली - भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली छिपी-बेरोजगारी को बढ़ावा देती है। सामान्यत% परिवार के सदस्य परिवार के खेतों मेंपारिवारिक धन्धों में संलग्न होते हैं। इन आर्थिक क्रियाओं (धन्धों) में आवश्यकता से अधिक परिवार के सदस्य निहित (संलग्न) होते हैं।

6. भारतीय विश्वविधालयों से बढ़ती हुर्इ स्नाताको की संख्या - पिछले दशक के दौरान भारतीय विश्वविधालयों से स्नातकों की संख्या में वृ)ि ने शैक्षणिक बेरोजगारी को बढ़ाया है। भारतीय शैक्षणिक प्रणाली में कला विषयों की अपेक्षा तकनीकी तथा अभियंता (इंजीनियरिग) क्षेत्रा में अधिक प्रतिस्थापन पर जोर दिया जा रहा है लेकिन तकनीकी स्नातकों के मèय भी बेरोजगारी विधमान है।

7. उधोगों का धीमा विकास - देश में औधौगिकीकरण तीव्र नहीं है तथा औधोगिक श्रमिकों को रोजगार के अवसर अल्प है। औधोगिक क्षेत्रा अतिरिक्त कृषि श्रम (कामगारों) को समायोजित (खपा) नहीं पाता है। जो कृषि क्षेत्रा में छिपी बेरोजगारी को बढ़ावा देते हैं।

8. अनुपयुक्त तकनीक - शहरी औधोगिक क्षेत्रा में बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण अनुपयुक्त तकनीकों का प्रयोग है। देश में प्रचुर मात्राा में उपलब्èा श्रम शकित का आवश्यकता के अनुसार प्रयोग के बजाय उच्च पूँजी-गहन तकनीक का प्रयोग करते हैं जो श्रम के प्रयोग को न्यूनतम करता है। इस प्रकार की तकनीक का प्रयोग भारत के लिए अनुपयुक्त है, जो अधिक श्रम शकित को समायोजित करने की अपेक्षा बेरोजगारी को बढ़ावा देती है।

भारत में संगठित एवं असंगठित क्षेत्र में रोजगार

सामान्यत% यह विश्वास किया जाता है कि असंगठित क्षेत्रा की अपेक्षा संगठित क्षेत्रा में पारिश्रमिक (प्रतिफल) उच्च होता है। इसके अलावा संगठित क्षेत्रा रोजगार सुरक्षा और अन्य लाभों को भी उपलब्ध कराता है। संगठित क्षेत्रा के अन्तर्गत समान दक्षता वाले व्यकितयो के लिये निहित लाभो तथा उच्च पारिश्रमिक निजी क्षेत्रा की अपेक्षा अधिक प्राप्त होता है। 1999-2000 के दौरान कुल रोजगार सृजन में संगठित क्षेत्रा का योगदान 8.34% है, जिसमें सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रा का भागीदारी क्रमश: 5.77 तथा 2.57% है।

कुल गैर-कृषि श्रम शकित के लगभग 4ध्5 भाग को असंगठित क्षेत्रा सृजित करता है, यही सिथति उच्चतर औधोगिक देशो में भी है। इसे निम्न सारणी से स्पष्ट किया गया है-

संगठित क्षेत्रा पर सार्वजनिक क्षेत्रा का प्रभुत्व है जो कुल रोजगार का 70% है। ये मुख्य रूप से (प) खदानें (पप) विधुत एवं जल तथा (पपप) सामुदायिक एवं सामाजिक सेवाएँ क्षेत्रा में हैं। ये सामूहिक रूप से सार्वजनिक क्षेत्रा के रोजगार का लगभग 60% का निर्माण करते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उनमें से सभी रोजगार की ऋणात्मक लोच को दर्शाते हैं। एक तथ्य इस बात को रेखांकित करता है कि 1999-2000 के दौरान कुल रोजगार में सार्वजनिक क्षेत्रा के भाग (अंश) में अल्पवृद्धि हुर्इ है।

लघु उधोग एवं स्वरोजगार को शामिल करते हुए अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्रा में रोजगार के सृजन के मुख्य स्रोत हैं। यथा-

1.    कृषि तथा इससे सम्बनिधत क्रियाएं,

2.    व्यापार, रेस्त्राां तथा होटल पर्यटन सहित,

3.    कुछ सामाजिक क्षेत्रा जैसे-शिक्षा तथा स्वास्थ्य,

4.    लघु एवं मध्यम उधम, मुख्य रूप से ग्रामीण गैर-कृषि क्षेत्रा तथा

5.    परिवहन तथा निर्माण।

उपर्युक्त सारणी में दिखाया गया है कि रोजगार की वृद्धि दर में कमी संगठित क्षेत्रा की अपेक्षा असंगठित क्षेत्रा में हुर्इ है। उधोगवार रोजगार की प्रवृत्तियाँ -

सारणी तीन में, विभिन्न उपक्षेत्राों में श्रम शकित के आकार को दिखाया गया है। यह देखा जा सकता है कि पिछले दो दशकों में कृषि, आखेट, वनक्षेत्रा तथा मत्स्य इत्यादि ने भारतीय अर्थव्यवस्था में विधमान श्रम शकित के एक बड़े हिस्से को अवशोषित किया है। यही प्रवृत्ति पूर्व के दशकों में देखी गर्इ है। इस वर्ग में श्रम शकित के असंगठित भाग का आकार क्रमश% 1983 में 203.8 मिलियन, 1987-88 में 209.9 मिलियन, 1993-94 में 238.3 मिलियन तथा 1999-2000 में 238.6 मिलियन था।

विशिष्ट समूह की रिपोर्ट ने यह दावा किया है कि श्रम-गहन तकनीकी का प्रयोग करते हुए अन्तर एवं अन्तरा क्षेत्राों की संरचना (बनावट) में परिवर्तनों के द्वारा असंगठित क्षेत्रा की वृद्धि दर अर्थपूर्ण रूप से बढ़ायी जा सकती है। संगठित क्षेत्रा में, विशिष्ट रूप से सार्वजनिक क्षेत्रा के घटक में बजाय सब के अपवादस्वरूप वित्तीय क्षेत्रा एवं सामाजिक क्षेत्रा जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि को छोड़कर, रोजगार सृजन की सम्भावना ऋणात्मक रोजगार लोच की वजह से कम है, लेकिन इन दो क्षेत्राों का कुल रोजगार में योगदान कुल रोजगार का 3.3% है। दसवीं योजना में दिये हुए लक्ष्य बेरोजगार की सम्भावना बहुत उच्च है।

भारत में बेराजगारी बेरोजगारी-

भारत एक ऐसा देश है जिसने बेरोजगारी की एक बड़ी समस्या का सामना किया है। एक व्यकित जो कार्य करने के लिए योग्य तथा तत्पर है लेकिन वह कार्य विहीन है, के रूप में बेरोजगारी को परिभाषित किया जा सकता है। यह ऐचिछक एवं अनैचिछक बेराजगारी की सिथति है। बेरोजागरी की कुछ विशेषताओं को यहां इंगित किया गया है, जो निम्न हैं-

1              ग्रामीण क्षेत्रा की अपेक्षा शहरी क्षेत्रा में बेरोजगारी का विस्तार अधिक है।

2              पुरुषों की अपेक्षा महिलाओ में बेरोजगारी की दर अधिक है।

3              कुल बेराजगारी में शैक्षणिक बेरोजगारी का विस्तार अधिक है।

4              अन्य क्षेत्राों की अपेक्षा कृषि क्षेत्रा में बेराजगारी अधिक है।

5              भारत एक अद्र्धविकसित देश है यधपि अर्थव्यवस्था विकासशील है। बेरोजगारी की प्रकृति उच्चतर औधोगिक देशों से प्रमुखतया भिन्न है।

 भारत गाँवों का देश है क्योंकि इसकी तीन चौथार्इ जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्राों में निवास करती है। स्पष्टत% ग्रामीण कामगारों (श्रमिको) के लिए कृषि एक प्रमुख व्यवसाय है। फिर भी कृषि उन लोगों के लिए एक लाभदायी रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाती है।

अत: ग्रामीण क्षेत्राों में बेरोजगारी है जो निम्न तीन व्यापक रूपों में दिखार्इ देती है-

1              खुली और दीर्घकालिक बेराजगारी

2              मौसमी बेरोजगारी

3              प्रच्छन्न बेराजगारी

1. खुली और दीर्घकालिक बेराजगारी - कृषि क्षेत्रा में भूमिहीन श्रमिकों का एक बड़ा समूह कृषि कार्य करके रोजगार की तलाश करता है। ऐसे किसान भी हैं, जो खाली समय में श्रम करके आय अर्जित करना चाहते है। लेकिन आज भी भारत के अविकसित कृषि क्षेत्रा में जनसंख्या के भारी दबाव के कारण बहुत से लोग रोजगार पाने में असफल रहते है और इस प्रकार दीर्घकालिक बेराजगारी के शिकार रहते है। चूँकि वे स्पष्टत% रोजगार की तलाश करते है इसलिए उनकी बेरोजगारी छिपी नहीं रह पाती है इसलिये ये खुली बेरोजगारी कहलाती है।

 

2. मौसमी बेरोजगारी - कृषि, जो गाँवो में एक प्रमुख आर्थिक क्रिया है, एक मौसमी स्वरुप है। फसलों की बुआर्इ एवं कटार्इ के समय लोग व्यस्त हो जाते हैं और रोजगार की दर उच्च हो जाती है लेकिन बुआर्इ और कटार्इ के मध्य के समय में लोगों के पास करने को बहुत कुछ नहीं होता है और इस तरह वे बेरोजगार रह जाते हैं। बहुत से ग्रामीण उधोग जैसे- चीनी मिलें, चावल और कपास उत्पादक इकार्इयाँ इत्यादि कृषि उत्पाद के प्रसंस्करण पर निर्भर हैं, वे भी मौसमी रोजगार ही उपलब्ध करा पाते हैं। इस प्रकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था मौसमी बेरोजगारी की अवधि में बड़े पैमाने पर वैकलिपक मौसमी रोजगार ही दे पाती है।

 

3. प्रच्छन्न बेरोजगारी - बेरोजगारी का यह ऐसा रूप है, जिसमें व्यकित अपने आप को बेरोजगार महसूस नहीं करते हैं लेकिन तकनीकी रूप से वे बेरोजगार ही होते हैं। रोजगार के दो रूप हैं 

(प) मात्राात्मक - अर्थात कितने लोग रोजगार में हैं और 

(पप) गुणात्मक - अर्थात रोजगार शुदा व्यकित कितना उत्पादन करते हैं, जिसका तात्पर्य रोजगार की उत्पादकता से है। भारत में भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है। अत% प्रति व्यकित उत्पादकता घटती जाती है। ऐसी सिथति जिसमें बड़े पैमाने पर श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता शून्य है अर्थात उनका कार्य, कोर्इ अतिरिक्त उत्पादन नहीं देता है। यदि उन्हें कृषि कार्य से हटा दिया जाये तो इस प्रकार की बेरोजगारी, प्रच्छन्न (छिपी) बेरोजगारी कहलाती है। इस बेरोजगारी का प्रमुख कारण जनसंख्या के बढ़ते दबाव के साथ वैकलिपक रोजगार की अनुपलब्धता है।

शहरी बेरोजगारी

शहरी क्षेत्रा में व्यापक पैमाने पर बेरोजगारी है, जिसमें निम्न प्रमुख% हैं-

1.    औधोगिक श्रमिकों में बेरोजगारी,

2.    शहरी शिक्षितों के मध्य बेरोजगारी,

3.    तकनीकी बेरोजगारी,

4.    शहरी एवं ग्रामीण दोनों में युवाओ में मध्य बेरोजगारी।

 

1.    औधोगिक श्रमिकों में बेरोजगारी - औधोगिक विकास की प्रक्रिया पर्याप्त रूप से इतनी तीव्र नहीं हो पायी है कि ग्रामीण क्षेत्रा से प्रवासित समस्त श्रम इनमें समायोजित हो सके। औधोगिक विस्तार का तरीका मुख्यत% पूँजी-गहन तकनीक (श्रम-बचत तकनीक) पर आधारित है। इस प्रकार की तकनीक द्वारा औधोगिक उत्पादन में तो तीव्र वृद्धि हो सकती है लेकिन रोजगार के अवसरों में नहीं। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रा से जो लोग अधिकांशत% रोजगार की तलाश में शहरी औधोगिक केन्द्रों की तरफ आये हैं, वे रोजगार पाने में असफल रह जाते हैं और इस प्रकार औधोगिक श्रमिकों के मध्य बेरोजगारी में वृद्धि हो जाती है।

2.    शहरी शिक्षितों के मध्य बेरोजगारी - विधालय एवं विश्वविधालयी स्तरों पर शहरी क्षेत्राों में शैक्षणिक सुविधाओं में विस्तार और सामाजिक प्रतिष्ठा जो कि शिक्षा से आती है तथा शिक्षण संस्थाओ में नामांकन वृद्धि ने बढ़ती हुर्इ चेतना को त्वरित रूप से बढ़ा दिया है। प्रतिवर्ष ऐसे लाखो स्नातकों को निकाल रहे हैं जो श्रम बाजार में प्रवेश कर जाते हैं, लेकिन शिक्षा प)ति रोजगारोन्मुख नहीं है, इसलिये यह शिक्षा योग्यतानुसार रोजगार प्रापित में प्रोत्साहित नहीं कर पाती है। परिणामस्वरूप बहुत से लोग रोजगार पाने में असफल रह जाते हैं और बेराजगारी में वृद्धि करते हैं।

3.    तकनीकी बेरोजगारी - तकनीकी परिवर्तन सभी क्षेत्राों में तेजी से परिवर्तन लाता है। जो लोग परम्परागत तकनीकों का प्रयोग कर रहे थे वे उधोग, परिवहन एवं अन्य क्षेत्राो में अत्याधुनिक तकनीक के आने से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाने से बेरोजगार हो जाते हैं। उदाहरण के लिये मोटर यातायात ने मानवीय हाथों से ढकेले जाने वाली गाडि़यों, तांगों आदि के रोजगार में लगे रहते है को बेरोजगार कर दिया है। अधिकांश कार्य कम्प्यूटरीकृत हो जाने से ऐसे बहुत से लोग बेरोजगार हो गए जो इस तकनीक का ज्ञान नहीं रखते हैं। इस समस्या का समाधान उस तरह के बेरोजगार श्रमिकों को तकनीकी रूप से प्रशिक्षण द्वारा किया जा रहा है।

4.    शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही क्षेत्राों में युवाओं के मध्य बेरोजगारी - 15 से 35 आयु वर्ग के युवकों में बेरोजगारी ,विभिन्न आयु वर्ग की श्रम शकित के समूह में उच्चतम शिखर पर है। यह बेरोजगारी, ग्रामीण व शहरी दोनों ही क्षेत्राों में विधमान है। यदि इनको रोजगार दिया जाता है तो राष्ट्रीय आय में इनका योगदान (अंश) उच्च हो सकता है यदि इस आयु समूह के लोग अधिक समय के लिए बेरोजगार रह जाते हैं तो ये सामाजिक तनाव का भयंकर कारण बन सकते हैं, अत% इस समस्या पर èयान देने की जरूरत है। 

शहरी और ग्रामीण क्षेत्राों की बेरोजगारी की उपरोक्त व्याख्या का मूल्याकंन करके पुन% आगे और स्पष्ट किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रा में, जिन्होंने संदर्भित सप्ताह के दौरान बेरोजगारी दर्ज करार्इ, जिनमें- 67% ने सम्पूर्ण सप्ताह से भी कम समयावधि में और 50% ने ) सप्ताह से भी कम की समयावधि में कार्य किया अर्थात कार्य पर उपसिथति दी (सारणी-4)। ग्रामीण घरेलू मजदूरों में 73% उन लोगों ने, जो बेरोजगारी अनुभव करते हैं, ने सम्पूर्ण सप्ताह से भी कम समयावधि में कार्य ग्रहण किया और 55% ने ) सप्ताह से भी कम की समयावधि में कार्यग्रहण किया। साप्ताहिक सिथति के हिसाब से इनमें से किसी को भी बेरोजगार नहीं माना जायेगा। इसलिये गरीबी उत्थान की योजनाएँ जो बेरोजगारों को èयान में रखकर बनार्इ जाती है के दृषिटकोण से दैनिक सिथति के माप बेरोजगारी के मूल्याकंन के सर्वोत्तम माप प्रतीत होंगे।

सारणी रू 5 में 1983ए 1993-94 तथा 1999-00 की अखिल भारत की बेरोजगारी की दर को प्रदर्शित किया है। गणना से दो तथ्य उभरते हंै, ग्रामीण क्षेत्राों की तुलना में शहरी क्षेत्रा में बेरोजगारी की दर अपेक्षाकृत उच्च है। शहरी क्षेत्रा में दरें 8-9.5% जबकि ग्रामीण क्षेत्रा में दरें 7-8% अर्थात 1% के बिन्दु तक ही घटती-बढ़ती हैं। दूसरी विशेषता यह है कि महिला बेरोजगारी की दर मुख्य रूप से उच्च है बजाय पुरूषों के शहरी क्षेत्रा जबकि वे ग्रामीण क्षेत्रा में वे इसके लिये पुरूषो से बराबरी करती है। पुरूषों की 7-9% की दर से तुलना करते हुए शहरी महिला बेरोजगारी की दर को 9.5-11% के बीच रखा गया है। ग्रामीण क्षेत्रा में 1983 में महिला बेरोजगारी की दर का अन्तर अधिक नहीं है जबकि राज्यों के बीच काफी मात्राा में अन्तर दृषिटगोचर होता है।

सारणी रू 6 गरीब एवं घरेलू श्रमिकों के बीच अर्थपूर्ण रूप से बेरोजगारी को दर्शाती है, साथ ही शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही क्षेत्राों में घरेलू श्रमिकों की 12% की वृद्धि दर को भी व्यक्त करती है। ये दरें सम्पूर्ण जनसंख्या की दर से अधिक है। सारणी रू 6 में यह अनुमानित कर सकते कि ग्रामीण क्षेत्रा में स्पष्ट रूप से मौसमी बेरोजगारी पार्इ जाती है। जबकि शहरी क्षेत्रा में ऐसा नहीं। जुलार्इ से सितम्बर के बीच मानसून के महिनों में बेरोजगारी की दर-15% के अधिकतम स्तर पर होती है, उस समय खेतों में अधिक कार्य नहीं किया जा सकता। खरीफ (अक्टूबर से दिसम्बर) के समयान्तराल में बेरोजगारी की दर लगभग 10% के उच्चतम स्तर पर होती है। इस प्रकार कृषि मौसमी बेरोजगारी को दर्शाती है।

सारणी रू 8 में विभिन्न राज्यों की ग्रामीण तथा शहरी बेरोजगारी को प्रदर्शित किया गया है। केरल, तमिलनाडू तथा पशिचमी बंगाल में बेरोजगारी की दर 20% अथवा इससे अधिक विधमान है।

भारत में बेरोजगारी के माप

एक व्यकित वर्ष में 73 दिनों के लिये प्रतिदिन 8 घ.टे कार्य करता है तो वह प्रमाणिक व्यकित वर्ष के आधार पर' रोजगार में माना जाता है। योजना आयोग ने विशिष्ट (एक्सपर्ट) समिति की सिफारिश के आधार पर बेरोजगारी के मापों को बताया। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (छैै) द्वारा 27वें दौर में बेरोजगारी के माप की तीन अवèाारणाएँ विकसित की गर्इं।

1.    सामान्य सिथति बेरोजगारी - इसे, व्यकितयों की संख्या जो वर्ष के एक बड़े भाग (लम्बी अबधि के लिए) में बेरोजगार रह जाते हैं, के रूप में मापा जाता है। यह माप, जो नियमित रोजगार की तलाश करते हैं, उदाहरण के लिए-शिक्षित एवं दक्ष (कुशल) व्यक्ति जो आकसिमक कार्य को स्वीकार नही कर सकते के लिये  उपयुक्त है। यह खुली बेरोजगारी को सूचित करती है।

2.    साम्ताहिक सिथति बेरोजगारी - वे व्यकित जो सप्ताह की सन्दर्भ अवधि में किसी भी दिन कम से कम एक घ.टे का भी कार्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं, ऐसी बेरोजगारी, साप्ताहिक सिथति बेरोजगारी को प्रदर्शित करती है।

3.    दैनिक सिथति बेरोजगारी - सर्वेक्षण सप्ताह के दौरान वे व्यकित जिन्होंने एक दिन अथवा कुछ दिनों के लिये रोजगार प्राप्त नहीं किया है, यह दैनिक सिथति बेरोजगारी को सूचित करता है। 

बेरोजगारी के मापों की विस्तार से सूचना सारणी 9 में दी गर्इ है। राष्ट्रीय सेम्पल सर्वेक्षण ने 61वें दौर जुलार्इ 2004 से जून 2005 में रोजगार एवं बेरोजगारी के बारे में महत्त्वपूर्ण स्रोतों के बारे में सूचना दी है। राष्ट्रीय सेम्पल सर्वेक्षण संगठन को 61वां दौर के अनुसार 19993-94 से 1999-2000 की तुलना में 1999-2000 से 2004-05 के दौरान रोजगार में तीव्र वृ)ि हुर्इ है (सारणी 9 को बताता है।)

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) का उद्देश्य लगभग 50 मिलियन रोजगार के अवसरों का सृजन करना था। जिसमें पाँच वर्ष (2002-07) के दौरान 30 मिलियन रोजगार की वृद्धि सामान्य प्रक्रिया से और अतिरिक्त 20 मिलियन विशेष पहलों द्वारा सृजित करने की बात कही गर्इ थी। छैैव् के 61वें दौर के परिणामों से प्रकट होता है कि वर्ष 2000 से वर्ष 2005 के दौरान 47 मिलियन से भी अधिक व्यकितयों को रोजगार मुहैया कराया गया। सामान्य शांति सिथति  के आधार पर रोजगार से निवल वार्षिक वृद्धि वर्ष 1993-94 से वर्ष 1999-2000 की अवधि के दौरान 5.47 मिलियन से बढ़कर वर्ष 1999¬2000 से वर्ष 2004-05 के दौरान 9.58 मिलयन हो गया। इसी दौरान श्रम-बल 2.48 प्रतिशत की वार्षिक रोजगार वृद्धि की तुलना में अत्यधिक तीव्र गति से बढ़कर 2.54% वार्षिक के स्तर पर पहुँच गया था। इसके परिणामस्वरूप, रोजगार की तेजी से वृद्धि के बावजूद बेरोजगारी 1999-2000 में श्रम बल के 2.78% की तुलना में 2004-05 में बढ़कर 3.06% पर थी। बेरोजगारी की यह सिथति वर्ष 1983 में (38वाँ दौरा) 2.88 से गिरकर 1993 में (50वाँ दौर) 2.62 रह गर्इ थी।

उपरोक्त सारणी से यह प्रकट होता है कि छैैव् के 55वें और 61वें दौरों के बीच बेरोजगारी में वृद्धि होना था। इसके अतिरिक्त और वर्तमान साप्ताहिक सिथति के अनुसार पुरूषो के बीच बेरोजगारी में गिरावट आर्इ थी, लेकिन वर्तमान दैनिक सिथति के अनुसार ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्राों में इसमें वृद्धि हुर्इ थी। इस सिथति के अनुसार बेरोजगारी की प्रकृति में विश्लेषणात्मक अन्तर है (उदाहरण के लिए, चिरकालिक बेरोजगारी बनाम आवर्तक तथा प्रच्छन्न बेरोजगारी)। छैैव् के 61वें दौर से हाल ही में जारी हुए अधिक प्रभावित विश्लेषणो से आधारित कारणों के साथ-साथ संभावित लक्षणों का पता चलेगा।

रोजगार वृद्धि में गिरावट आने की प्रवृत्ति में बदलाव जो वर्ष 1993-94 में समाप्त 10 वर्षों की अवधि में 2.1% वार्षिक थी और 1999-2000 में समाप्त हुर्इ 5 वर्ष की अवधि में गिरकर 1.6% हो गर्इ थी। वर्ष 2004-05 में समाप्त 5 वर्ष की अबधि में बढ़कर 2.5% वार्षिक हो गर्इ थी, एक उत्साहवर्धक घटना है, तथापि तीव्र गति से रोजगार में वृद्धि करने की आवश्यकता है जो न केवल बढ़ते हुए श्रम बल को खपाने के लिए बलिक विशेष रूप से चल रहे जनसांखियकी परिवर्तनों के लिए भी जरूरी है, लेकिन हर प्रकार से बेरोजगारी की दर को कम करना होगा। कुल रोजगार में कृषि का हिस्सा 1993-94

में 61.67% से गिरकर 1999-2000 में 58.54% हो गया और वर्ष में 2004-05 पुन% कम होकर 54.19% रह गया था। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की घटती हुर्इ भागीदारी से कृषि में काफी अधिक मात्राा में अतिरिक्त श्रम बल को खपाने की गुंजाइश बहुत सीमित प्रतीत होती है, जबकि निर्माण और सेवाओं, विशेष रूप से परिवहन भ.डारण और संचार ने अर्थव्यवस्था में रोजगार क्षेत्रा में रोजगार में वृद्धि के अवसर अपनी सामथ्र्य की अपेक्षा कम प्रतीत होते हैं।

बेरोजगारी के समाधान की चुनौती

बेरोजगारी देश की बड़ी समस्या है। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान नकेंद्र मोदी ने रोजगार के अवसर बढ़ाने का वादा किया था। इसके लिए व्यापक योजना पर अमल आवश्यक है, क्योंकि सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हुए हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र व स्वरोजगार में संभावना बढ़ानी होगी।

स्किल डेवलपमेंट योजना आगे चलकर बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर सकती है। इसीलिए मोदी सरकार ने इस पर काम करने के लिए अलग से मंत्रालय बनाया है।

यह अच्छी बात है कि सरकार के कई आर्थिक सुधारों के चलते अनेक क्षेत्रों से रोजगार के अवसर बढ़ाने की संभावना है। रिजर्व बैंक ने बुनियादी ढांचा वित्तपोषण कंपनी आईडीएफसी व सूक्ष्म वित्त कंपनी बंधन फाइनेंशियल सर्विसेज को दो नए बैंकिंग लाइसेंस दिए हैं। इससे बैंकिंग क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।

विशेषज्ञों का दावा है कि इस वर्ष बैंकिंग क्षेत्र की नियुक्तियों में पच्चीस प्रतिशत तक वृद्धि होगी। यह बढ़ोतरी अर्थव्यवस्था में तेजी, नीतिगत मोर्चे पर बदलाव तथा कारोबारी धारणा में सुधार के कारण हो रही है। पीपल स्ट्रांग के अनुसार, सभी स्तरों पर भर्तियां होंगी।

यह उद्योग का मानक है कि जब किसी क्षेत्र में वृद्धि होती है, तब वेतन का स्तर भी बढ़ता है। नौजवानों के लिए यह उत्साहजनक खबर है। इसके अलावा माइकल पेज इंडिया की ओर से कहा गया कि निवेश बैंकिंग, कार्पोरेट व निजी बैंकिंग तथा गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों में विभिन्न स्तरों पर नौकरियां बढ़ेंगी। ग्लोबलहंट संस्था भी एक हद तक इन दावों से सहमत है। औद्योगिक क्षेत्र में जब पूंजी निवेश बढ़ेगा, तो रोजगार के अवसर में भी तेजी आएगी।

रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए मोदी सरकार इससे अलग भी काम कर रही है। जो लोग अपना छोटा कारोबार शुरू करना चाहेंगे, सरकार उन्हें असान किस्तों पर ऋण देगी। इससे रोजगार के अवसरों में दुगनी वृद्धि होने का अनुमान है। (आईएएनएस/आईपीएन)

शिक्षित वर्ग की बेकारी की समस्या |

श्रमिक वर्ग की बेकारी उतनी चिंत्य नहीं है जितनी शिक्षित वर्ग की । श्रमिक वर्ग श्रम के द्वारा कहीं-न-कहीं सामयिक काम पाकर अपना जीवनयापन कर लेता है ।

किंतु शिक्षित वर्ग जीविका के अभाव में शारीरिक और मानसिक दोनों व्याधियों का शिकार बनता जा रहा है । वह व्यावहारिकता से शून्य पुस्तकीय शिक्षा के उपार्जन में अपने स्वास्थ्य को तो गँवा ही देता है, साथ ही शारीरिक श्रम से विमुख हो अकर्मण्य भी बन जाता है । परंपरागत पेशे में उसे एक प्रकार की झिझक का अनुभव होता है ।

शिक्षित वर्ग की बेकारी की समस्या पर प्रकाश डालते हुए लखनऊ में आयोजित एक पत्रकार सम्मेलन में प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- ”हर साल लगभग नौ-दस लाख पढ़े-लिखे लोग नौकरी के लिए तैयार हो जाते हैं, जबकि हमारे पास मौजूदा हालात में एक सैकड़े के लिए भी नौकरियाँ नहीं हैं ।”

इस कथन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि माँग से कहीं अधिक शिक्षितों की संख्या का होना ही इस समस्या का मूल कारण है । विश्वविद्यालय, कॉलेज व स्कूल प्रतिवर्ष बुद्धिजीवी, क्लर्क और कुरसी से जूझनेवाले बाबुओं को पैदा करते जा रहे हैं । नौकरशाही तो भारत से चली ही गई, किंतु नौकरशाही की बू भारतवासियों के मस्तिष्क से नहीं गई है । लॉर्ड मैकाले के स्वप्न की नींव भारतवासियों के मस्तिष्क में गहराई तक जम गई ।

विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु आया विद्यार्थी आई.ए.एस और पी.सी.एस. के नीचे तो सोचता ही नहीं । यही हाल हाई स्कूल और इंटरवालों का भी है । ये छुटभैये भी पुलिस की सब-इंस्पेक्टरी और रेलवे की नौकरियों के दरवाजे खटखटाते रहते हैं । कई व्यक्ति ऐसे हैं, जिनके यहाँ बड़े पैमाने पर खेती हो रही है । यदि वे अपनी शिक्षा का सदुपयोग वैज्ञानिक प्रणाली से खेती करने में करें तो देश की आर्थिक स्थिति ही सुधर जाए ।

कुछ भी हो, अध्ययन समाप्त करने के बाद युवकों के सिर पर जो बेरोजगारी का भूत सवार रहता है, वही उनमें असंतोष का कारण भी बनता जा रहा है । यह सत्य है कि हमारी पंचवर्षीय योजनाओं के कारण देश में रोजगार बढ़ रहे हैं, परंतु यह समुद्र में बूँद के समान है । शिक्षा और रोजगार का संबंध स्थापित करने के लिए बहुत कुछ कार्य करने की आवश्यकता है ।

शिक्षित वर्ग की बेकारी को दूर करने के लिए वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करना आवश्यक है । शिक्षा सैद्धांतिक न होकर पूर्णत: व्यावहारिक होनी चाहिए, ताकि स्वावलंबी स्नातक पैदा हो सकें और देश की भावी उन्नति में योग दे सकें । औद्योगिक शिक्षा-प्रणाली में शरीर और मस्तिष्क का संतुलन रहता है ।

अत: इस प्रकार की शिक्षा हमारे लिए लाभप्रद है । वर्तमान बेकारी की विभीषिका को शिक्षा के ही मत्थे मढ़ना एक प्रकार से न्याय का गला घोंटना होगा । यह कहना कि वर्तमान बेकारी का भार अधिकांश रूप में शिक्षित वर्ग पर ही है, सत्य से दूर हट जाना होगा ।

अभी हमारे देश में पूर्ण शिक्षा का प्रचार हुआ ही कहाँ है ? सत्य तो यह है कि हमारे देश की कृषि और औद्योगिक प्रगति में अभी इतनी शक्ति नहीं आई कि वह बेरोजगारी की समस्या को सही रूप में हल कर सके ।

शिक्षित वर्ग की बेकारी दूर करने के लिए विभिन्न विद्वानों ने अपने मत प्रकट किए हैं:

१. वर्तमान शिक्षा-प्रणाली को औद्योगिक शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तित करने के पक्ष में सभी एकमत हैं । इस समस्या का निवारण करने के लिए कई आयोगों की स्थापना की गई ।

२. उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में कुटीर उद्योग-धंधों और हस्त-कौशल की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए, ताकि विद्यार्थी शिक्षा समाप्त कर लेने पर स्वतंत्र रूप में अपनी जीविका चला सके ।

३. कृषि आयोग कृषि-शिक्षण के पक्ष में है । वह प्राइमरी, उच्चतर माध्यमिक और उच्च शिक्षा सभी में कृषि-शिक्षण को प्राथमिकता देने का प्रबल पक्षधर है ।

उपयुक्त परिस्थितियों के अभाव में कुशल इंजीनियरिंग प्रतिभावाले युवक को अध्यापन का काम करना पड़ता हें; वकील को डॉक्टर बनना पड़ता है; चित्रकार, कवि, संगीतज्ञ आदि को विवश होकर पेट के लिए अपनी कला से पराड्‌मुख हो कोई दूसरा धंधा अपनाना पड़ता है । इस प्रकार की राष्ट्रीय क्षति अत्यंत चिंतनीय है ।

आज के प्रगतिशील सभ्य देशों में मनोविज्ञानी छात्रों की प्रगतिशील अवस्था से ही व्यक्तिगत रुचि और प्रवृत्तियों का अध्ययन करने लगते हैं और जिस ओर उनकी प्रतिभा एवं व्यक्तिगत गुणों का सर्वाधिक विकास संभव हो सकता है, उसी ओर उन्हें जाने की सम्मति देते हैं । यही कारण है कि हमारे देश की अपेक्षा वहाँ कहीं अधिक मौलिक विचारक, विज्ञानवेत्ता, अन्वेषक और कलाकार पैदा होकर राष्ट्र के गौरव में चार चाँद लगा देते हैं ।

हमें अपने यहाँ की प्राकृतिक स्थितियों-परिस्थितियों और उलझनों का हल मिट्‌टी व पानी से निकालना श्रेयस्कर होगा । गाँवों के देश भारत की समृद्धि संभवत: नागरिक पाश्चात्य पद्धति से पूर्णत: न हो सके, इसे भी भुलाना नहीं होगा । तभी भारत का सर्वांगीण विकास संभव है ।

संपादक : आनंद श्री कृष्णन
७६३१२३००६१
अस्क पब्लिकेशन

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

अभिप्रेरणा अर्थ, महत्व और प्रकार

शोध प्रारूप का अर्थ, प्रकार एवं महत्व

शोध की परिभाषा, प्रकार,चरण