कलयुग

"कलयुग के इस दौर में क्यूँ बच्चों के दिल पत्थर हो गए”

इन झुर्रियों में जिंदगी की अलग-अलग पड़ाव की कई कहानियां दर्ज हैं लेकिन ये  कहानियां अभी खत्म नहीं हुई लिखी जा रही हैं, दर्द की, तड़फ की, अकेलेपन की,  जो गहराती झुर्रियों के साथ और गहराती जा रही हैं। पूरी जिंदगी जिम्मेदारियों का बोझ ढ़ोया और आज संतान और समाज दोनों ही उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुंह फेरा तो बुजुर्गों को इस उम्र में भी जी तोड़ मेहनत करनी पड़ रही है।आज जब बुढ़ापे को बैसाखी की जरूरत थी, आराम की जरूरत थी,सहारे की जरूरत थी, तो इनके अपने ही बेगाने हो गए।लेकिन इन बुजुर्गों के दिल में आज भी ज़िन्दगी से लड़ने का जज़्बा जिंदा है,स्वाभिमान और खुद्दारी जिंदा है। ये आज भी अपने पेट के खातिर खुद काम कर रहे हैं औऱ मेहनत की कमाई से खा रहे हैं।बुढापा इन पर बोझ नही रहा अब।हां इन्हें इस बात का अफसोस जरूर होता कि क्या इनके अपने इन्हें दो वक्त की रोटी नही दे सकते थे।आज लोग कुत्ता पाल सकते हैं, उसे खिला सकते हैं लेकिन मां-बाप खुद के ही घर में रोटी रोटी को मोहताज़ हैं। आखिर क्यूं ?

आनंद श्री कृष्णन
एम. एस. डब्लू

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