नेपाल यात्रा

चंपारण में शैक्षणिक भ्रमण के दौरान मेरी पहली विदेश यात्रा - नेपाल (रियाज़ अहमद अंसारी)

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के महात्मा गाँधी फ्यूजी गुरूजी समाज कार्य अध्ययन केंद्र के अंतर्गत बी.एस. डब्ल्यू. के अंतिम छमाही का  मैं छात्र हूँ। अंतिम छमाही में हमें चंपारण के तीन बुनियादी विद्यालय का अध्ययन करना था। जिसके लिए हम 14/02/2018 को सुबह सेवाग्राम रेलवे स्टेशन से यात्रा कर पटना पहुंचे, फिर पटना से नरकटियागंज के भितिहरवा गांव के कस्तूरबा महिला विद्यालय में ठहरें। 14 फ़रवरी से 23 फरवरी तक के लिए हमारा अध्ययन कार्य जारी है। इसके दौरान कार्य से कुछ फुर्सत लेकर हमारे शिक्षकों ने हमें नेपाल घुमाने का निर्णय लिया। हमारी भी बहुत इच्छा थी कि हम नेपाल घूमें क्योंकि चम्पारण के भितिहरवा गांव से नेपाल की दूरी मात्र 25 किमी है। हमारे कुछ साथी चार पहिया वाहन से गए और मेरे साथ कुछ साथी दो पहिया वाहन से निकले। जब हम नेपाल यात्रा पर जा रहे थे तो मन बहुत ही उल्लासित था। पड़ोसी देश को देखने की काफी उत्सुकता थी। हम सभी साथी बहुत ही खुश थे क्योंकि हमारी यह पहली अंतर्राष्ट्रीय यात्रा थी। जब हमने यात्रा शुरू की तो रास्ते में बहुत सारी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। कुछ समय पहले ही चंपारण में भीषण बाढ़ आई थी जिसकी वजह से रास्ते बहुत ख़राब थे। सड़क रेत, धुल और मिट्टी के मिश्रण से बहुत ही ख़राब हो चुका था। इस कारण दो पहिया वाहन ले जाने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। 8 किमी जंगल का रास्ता भी पार करना था जो अत्यंत ही रोमांचकारी था। उस जंगल में बाघ, चिता, भालू, बन्दर, हिरन इत्यादि जानवर हैं। जंगल को पार करने के बाद हम अंततः भारत और नेपाल की सीमा पर पहुंचे। वहां पर एक नदी है जो भारत और नेपाल को बाँटती है। जिसका नाम पंडई नदी है और वह नदी लगभग सूखी हुई थी। उसमें रेत की सफ़ेद चादर दूर-दूर तक फैली हुई थी। वह परिदृश्य अत्यंत ही लुभावना था। वहां पर मिटटी और पत्थर के मिश्रण से जियो बैग बनाया जा रहा था। उसको देखकर हम लोगों को उसके बारे में जानने की उत्सुकता हुई। मैंने नजदीक जाकर उसको देखा और जानने का प्रयास किया कि इसका क्या उपयोग है। वहां कार्य कर रहे मजदूरों से पूछने पर पता चला कि जियो बैग का उपयोग मिटटी के कटाव को रोकने में किया जाता है। हमने सीमा सुरक्षा बल से अनुमति लेकर बार्डर पार किया। फिर नेपाल देश में जाते ही एक अलग ही अनुभूति महसूस हुई। हमें इस बात की ख़ुशी हुई कि हम इतनी जल्दी अपने देश से दूसरे देश में आ गए। वहां हमने नदी के रेत में उतर कर अच्छी अनुभूति महसूस की। वहां के स्थानीय नेपाली माओवादी कम्युनिस्ट नेता रामशरण जी ने हमें नेपाल को करीब से जानने का मौका दिया। उन्होंने हम लोगों को नेपाल की बारीकी से जानकारी दी और घूमने की अच्छी-अच्छी जगह पर हमें घुमाया। पहाड़ी और टीलों के रास्ते होते हुए एक पुल पर वे हम लोगों को लेकर गए। उस पुल का नाम लक्ष्मण पुल है। पुल पर हमने अपने साथियों और शिक्षकों के साथ कुछ तस्वीरें ली और फिर वहां हिरन को भी उछलते-कूदते देखा और उसकी तस्वीर भी खींची। वहाँ पर अधिकतर घर लकड़ी के बने हुए थे और ये दो मंजिले घर भी थे। जो बहुत ही लुभावने दिख रहे थे। वहां पर मैंने एक नेपाल की बजुर्ग महिला के साथ तस्वीर खिंचवाई। मुझे वहां सबसे अच्छी चीज यह लगी कि वहां के लोग हिंदी भाषा बोलते थे तो उनकी मुंह से भाषा की ट्यूनिग जबरदस्त लगती थी। नदी के किनारे कुछ दुकानें लगी हुई थी। हैरान होने की बात यह थी कि वहां पर शराब और बियर किराने की दुकानों पर रखी हुई थी। और सबसे अच्छा अनुभव मेरा यह रहा कि मैंने वहां जो चाय पिया। वाह क्या चाय थी! उसका स्वाद अपने देश की तुलना में बहुत ही अलग था। नदी के किनारे के जंगल दूर-दूर तक बहुत ही ख़ूबसूरत दिख रहे थे। शाम भी ढल चुकी थी, हमने जल्दी-जल्दी कुछ यादगार तस्वीरें खिंचाई। रास्ते में जार्ज पँचम का बंगला भी देखा जो अब खंडहर बन चुका है। और फिर हम सभी अपने शिक्षकों के साथ वापिस अपने निवास स्थान पर जंगलों और उन कठिन रास्ते को ठण्ड के कुहासे को चीरते हुए अँधेरी रात में 2 पहिये वाहन पर वापस भितिहरवा पहुंच गए।

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