नियोजन का अर्थ
नियोजन का अर्थ
संगठन व्यवसायिक हो या राजनैतिक, 6 धार्मिक या सामाजिक, सभी में नियोजन की आवश्यकता पड़ती है। कौन सा कार्य कब करना है, कार्य कहॉं पर करना है, कार्य को कैसे करना चाहिए, कार्य कितनी मात्रा में किया जाना चाहिए, कार्य किस समय प्रारम्भ करना चाहिए, कार्य कितने समय में पूरा होना चाहिए, कार्य करने में कितनी लागत आनी चाहिए, कार्य कराने के लिए सम्भावित स्त्रोत या व्यक्ति कौन कौन से हैं, कार्य करने में कौन कौन से संसाधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। कार्य में प्रयुक्त संसाधनों का कितनी मात्रा में मिश्रण किया जाना चाहिए आदि का निर्धारण करना ही नियोजन कहलाता है। अर्थात् कौन सा कार्य कब, कहॉं, कितनी मात्रा में, किन संसाधनों से, कितनी लागत पर, कितने समय में होना है आदि का निर्धारण नियोजन में ही होता है। इसीलिए नियोजन करना प्रत्येक संगठन के लिये अति आवश्यक है। संगठन अपने संसाध् ानों का सफल नियोजन करके ही सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
इस इकार्इ में नियोजन के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। इसके अध्ययन के पश्चात आप यह ज्ञात कर सकेंगे कि प्रगति के लिए नियोजन कितना आवश्यक है।
नियोजन का अर्थ
नियोजन भविष्य में किये जाने वाले कार्य के सम्बन्ध में यह निर्धारित करता है कि अमुक कार्य को कब किया जाय, किस समय किया जाय कार्य को कैसे किया जाय कार्य में किन साधनों का प्रयोग किया जाय, कार्य कितने समय में हो जायेगा आदि ।
उदाहरण : श्री शिवम से उनके व्यवसायिक सहयोगी श्री सत्यम किसी कार्य के सम्बन्ध में मिलना चाहते है। श्री शिवम द्वारा उनसे मिलने के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का निर्धारण नियोजन ही है।
- सत्यम से किस दिन मिला जाय?
- किस समय मिला जाय?
- कहॉं मिला जाय?
- किस सम्बन्ध में मुलाकात होनी है?
- किन बातों पर विचार विमर्श होना है?
- विचार विमर्श में किसको शामिल किया जाय आदि?
इस प्रकार किसी भी कार्य को करने से पहले उसके सम्बन्ध में सब कुछ पूर्व निर्धारित करना ही नियोजन कहलाता है। नियोजन का आशय पूर्वानुमान नहीं है अपितु यह किसी कार्य को करने के सम्बन्ध में पहले से ही निर्णय कर लेना है। व्यवसाय में पग पग पर निर्णय की आवश्यकता पड़ती है। व्यवसाय के प्रवर्तन से समापन तक निर्णयन की आवश्यकता पड़ती है। जो नियोजन पर ही आधारित होता है।
प्रबन्ध के क्षेत्र में नियोजन से आशय वैकल्पिक उद्देश्यों, नीतियों कार्यविधियों तथा कार्यक्रमों मे से सर्वश्रेष्ठ का चयन करने से है। पीटर एफ-ड्रकर के अनुसार ‘‘एक प्रबंधक जो भी क्रियायें करता है वे निर्णय पर आधारित होती है।’’
नियोजन की परिभाषाएँ
नियोजन के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने मत व्यक्त किये हैं जिन्हें हम परिभाषायें कह सकते हैं, उनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :-
बिली र्इं गोत्ज : नियोजन मलूत: चयन करता है और नियोजन की समस्या उसी समय पैदा होती है जबकि किसी वैकल्पिक कार्यविल्पिा की जानकारी हुर्इ हो। कूण्टज और ओ डोनल - व्यवसायिक नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है किसी क्रिया के कारण का सचेत निर्धारण है, निर्णयों को लक्ष्यों तथ्यों तथा पूर्व-विचारित अनुमानों पर आधारित है ।’’ एम.र्इ.हर्ले - ‘‘क्या करना चाहिए इसका पहले से ही निधार्रण करना नियोजन कहलाता है।वैज्ञानिक लक्ष्यों, नीतियों, विधियों तथा कार्यक्रमों में से सर्वश्रेष्ठ का चयन करना ही व्यावसायिक नियोजन कहलाता है। मेरी कुशिंग नाइल्स - ‘‘नियोजन किसी उदद्ेश्य को पूरा करने के लिए सर्वोत्तम कार्यपथ का चुनाव करने एवं विकास करने की जागरूक प्रक्रिया है। यह वह प्रक्रिया है जिस पर भावी प्रबन्ध प्रकार्य निर्भर करता है’’। जार्ज आर. टेरी - ‘‘नियोजन भविष्य में झोंकने की एक विधि है। भावी आवश्यकताओं का रचनात्मक पुनर्निरीक्षण है जिससे कि वर्तमान क्रियाओं को निर्धारित लक्ष्यों के सन्दर्भ में समायोजित किया जा सके। उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि, ‘‘नियोजन प्रबंध का एक आधारभूत कार्य है, जिसके माध्यम से प्रबन्ध द्वारा अपने साधनों को निर्धारित लक्ष्यों के अनुसार समायोजित करने का प्रयास किया जाता है और लक्ष्य पूर्ति हेतु भविष्य के गर्भ में झॉंककर सर्वोत्तम वैकल्पिक कार्यपथ का चयन किया जाता है जिससे कि निश्चित परिणामों को प्राप्त किया जा सके।’’
नियोजन की विशेषताएॅ
नियोजन की परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण के आधार पर इसकी निम्नलिखित विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं -
नियोजन प्रबंध का प्राथमिक कार्य है क्योंकि नियोजन प्रबन्ध के अन्य सभी कार्यो जैसे स्टाफिंग, सन्देशवाहन, अभिप्रेरण आदि से पहले किया जाता है। नियोजन का सार तत्व पूर्वानुमान है।नियोजन में ऐक्यता पायी जाती है अर्थात एक समय में किसी कार्य विशेष के सम्बन्ध में एक ही योजना कार्यान्वित की जा सकती है। प्रबंध के प्रत्येक स्तर पर नियोजन पाया जाता है। नियोजन उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन है। नियोजन एक सतत एवं लोचपूर्ण प्रक्रिया है। नियोजन एक मार्गदर्शक का कार्य करती है। नियोजन में प्रत्येक क्रियाओं में पारस्परिक निर्भरता पायी जाती है।नियोजन में संगठनात्मकता का तत्व पाया जाता है।निर्णयन नियोजन का अभिन्न अंग है। नियोजन भावी तथ्यों व आंकड़ों पर आधारित होता है। यह इन क्रियाओं का विश्लेषण एवं वर्गीकरण करता है। इसके साथ ही यह इन क्रियाओं का क्रम निर्धारण करता है। नियोजन लक्ष्यों, नीतियों, नियमों, एवं प्रविधियों को निश्चित करता है, नियोजन प्रबन्धकों की कार्यकुशलता का आधार है।
नियोजन की प्रकृति
नियोजन की परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से नियोजन की प्रकृति के सम्बन्ध में निम्नलिखित बिन्दु दृष्टिगोचर होते हैं -
नियोजन की निरन्तरता -नियोजन की आवश्यकता व्यवसाय की स्थापना के पूर्व से लेकर, व्यवसाय के संचालन में हर समय बनी रहती है। व्यवसाय के संचालन में हर समय किसी न किसी विषय पर निर्णय लिया जाता है जो नियोजन पर ही आधारित होते हैं। भविष्य का पूर्वानुमान लगाने के साथ साथ वर्तमान योजनाओं में भी आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने पड़ते हैं । एक योजना से दूसरी योजना, दूसरी योजना से तीसरी योजना, तीसरी योजना से चौथी योजना, चौथी योजना से पांचवीं योजना, इस प्रकार नियोजन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।नियोजन की प्राथमिकता - नियोजन सभी प्रबन्धकीय कार्यों में प्राथमिक स्थान रखता है। प्रबन्धकीय कार्यों में इसका प्रथम स्थान है। पूर्वानुमान की नींव पर नियोजन को आधार बनाया जाता है।इस नियोजन रूपी आधार पर संगठन, स्टाफिंग, अभिप्रेरण एवं नियंत्रण के स्तम्भ खड़े किये जाते हैं। इन स्तम्भों पर ही प्रबंध आधारित होता है। प्रबंध के सभी कार्य नियोजन के पश्चात ही आते हैं तथा इन सभी कार्यों का कुशल संचालन नियोजन पर ही आधारित होता है।नियोजन की सर्वव्यापकता - नियोजन की प्रकृति सर्वव्यापक होती है यह मानव जीवन के हर पहलू से सम्बन्धित होने के साथ साथ संगठन के प्रत्येक स्तर पर और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में पाया जाता है।संगठन चाहे व्यावसायिक हो या गैर व्यावसायिक (धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, या सामाजिक) छोटे हों या बड़े, सभी में लक्ष्य व उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए नियोजन की आवश्यकता पड़ती है।नियोजन की कार्यकुशलता - नियोजन की कार्य कुशलता आदाय और प्रदाय पर निर्भर करती है। उसी नियोजन को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है जिसमें न्यूनतम लागत पर न्यूनतम अवांछनीय परिणामों को प्रबट करते हुए अधिकतम प्रतिफल प्रदान करें। यदि नियोजन कुशलता पूर्वक किया गया है तो व्यक्तिगत एवं सामूहिक सन्तोष अधिकतम होगा।नियोजन एक मानसिक क्रिया - नियोजन एक बौद्धिक एवं मानसिक प्रक्रिया है। इसमें विभिन्न प्रबन्धकीय क्रियाओं का सजगतापूर्वक क्रमनिर्धारण किया जाता है। नियोजन उद्देश्यों तथ्यों व सुविचारित अनुमानों की आधारशिला हैं।
नियोजन के उद्देश्य
नियोजन एक सर्वव्यापी मानवीय आचरण है। मानव को प्रत्येक क्षेत्र में सतत विकास के लिए नियोजन का सहारा लेना पड़ता है। संगठनों में भी नियोजन प्रत्येक स्तर पर देखने को मिलता है। नियोजन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं -
नियोजन कार्य विशेष के निष्पादन के लिये भावी आवश्यक रूपरेखा बनाकर उसे एक निर्दिष्ट दिशा प्रदान करना है। नियोजन के माध्यम से संगठन से सम्बन्धित व्यक्तियों (आन्तरिक एवं बाह्य) को संगठन के लक्ष्यों एवं उन्हें प्राप्त करने की विधियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती हैं। नियोजन संगठन की विविध क्रियाओं में एकात्मकता लाता है जो नीतियां के क्रियान्वयन के लिये आवश्यक होता है। नियोजन उपलब्ध विकल्पों में सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन है। जिसके परिणामस्वरूप क्रियाओं में अपव्यय के स्थान पर मितव्ययता आती है। भावी पूर्वानुमानों के आधार पर ही वर्तमान की योजनायें बनायी जाती हैं। पूर्वानुमान को नियोजन का सारतत्व कहते हैं।नियोजन का उद्देश्य संस्था के भौतिक एवं मानवीय संसाधनों में समन्वय स्थापित कर मानवीय संसाधनों द्वारा संस्था के समस्त संसाध् ानों को सामूहिक हितों की ओर निर्देशित करता है। नियोजन में भविष्य की कल्पना की जाती है। परिणामों का पूर्वानुमान लगाया जाता है एवं संस्था की जोखिमों एवं सम्भावनाओं को जॉचा परखा जाता है। नियोजन के परिणामस्वरूप संगठन में एक ऐसे वातावरण का सृजन होता है जो स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करता है। नियोजन में योजनानुसार कार्य को पूरा किया जाता है जिससे संगठन को लक्ष्यों की प्राप्ति अपेक्षाकृत सरल हो जाती है। नियोजन, संगठन में स्वस्थ वातावरण का सृजन करता है जिसके परिणामस्वरूप स्वस्थ मोर्चाबन्दी को भी प्रोत्साहन मिलता है। नियोजन समग्र रूप से संगठन के लक्ष्यों, नीतियों, उद्देश्यों, कार्यविधियों कार्यक्रमों, आदि में समन्वय स्थापित करता है।
नियोजन के प्रकार
नियोजन समान तथा विभिन्न समयावधि व उद्देश्यों के लिए किया जाता है इस प्रकार नियोजन के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं :-
दीर्घकालीन नियोजन - जो नियोजन एक लम्बी अवधि के लिय े किया जाए उसे दीर्घकालीन नियोजन कहते हैं। दीर्घकालीन नियोजन, दीर्घकालीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। जैसे पूंजीगत सम्पत्तियों की व्यवस्था करना, कुशल कार्मिकों की व्यवस्था करना, नवीन पूंजीगत योजनाओं को कार्यान्वित करना, स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा बनाये रखना आदि। अल्पकालीन नियोजन - यह नियोजन अल्पअवधि के लिय े किया जाता है। इसमें तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति पर अधिक बल दिया जाता है। यह दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, तिमाही, छमाही या वार्षिक हो सकता है। भौतिक नियोजन - यह नियोजन किसी उद्देश्य के भौतिक संसाधनों से सम्बन्धित होता है। इसमें उपक्रम के लिए भवन, उपकरणों आदि की व्यवस्था की जाती है। क्रियात्मक नियोजन - यह नियोजन संगठन की क्रियाओं से सम्बन्धित होता है। यह किसी समस्या के एक पहलू के एक विशिष्ट कार्य से सम्बन्धित हो सकता है। यह समस्या, उत्पादन, विज्ञापन, विक्रय, बिल आदि किसी से भी सम्बन्धित हो सकता है। स्तरीय नियोजन - यह नियोजन ऐसी सभी सगंठनों में पाया जाता है जहॉं कुशल प्रबन्धन हेतु प्रबंध को कर्इ स्तरों में विभाजित कर दिया जाता है यह उच्च स्तरीय, मध्यस्तरीय तथा निम्नस्तरीय हो सकते हैं। उद्देश्य आधारित नियोजन - इस नियोजन में विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नियोजन किया जाता है जैसे सुधार योजनाओं का नियोजन, नवाचार योजना का नियोजन, विक्रय सम्वर्द्धन नियोजन आदि।
नियोजन के सिद्धान्त
नियोजन करते समय हमें विभिन्न तत्वों पर ध्यान देना होता है। इसे ही विभिन्न सिद्धान्तों में वर्गीकृत किया गया है। दूसरे शब्दों में नियोजन में निम्नलिखित सिद्धान्तों पर ध्यान देना आवश्यक है।
प्रााथमिकता का सिद्धान्त - यह सिद्धानत इस मान्यता पर आधारित है कि नियोजन करते समय प्राथमिकताओं का निर्धारण किया जाना चाहिए और उसी के अनुसार नियोजन करना चाहिए। लोच का सिद्धान्त - प्रत्येक नियोजन लोचपूर्ण होना चाहिए। जिससे बदलती हुर्इ परिस्थितियों में हम नियोजन में आवश्यक समायोजन कर सकें। कार्यकुशलता का सिद्धान्त- नियोजन करते वक्त कार्यकुशलता को ध् यान में रखना चाहिए। इसके तहत न्यूनतम प्रयत्नों एवं लागतों के आध् ाार पर संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहयोग दिया जाता है। व्यापकता का सिद्धान्त - नियोजन में व्यापकता होनी चाहिए।नियोजन प्रबन्ध के सभी स्तरों के अनुकूल होना चाहिए। समय का सिद्धान्त - नियोजन करते वक्त समय विशेष का ध्यान रखना चाहिए जिससे सभी कार्यक्रम निर्धारित समय में पूरे किये जा सकें एवं निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। विकल्पों का सिद्धान्त - नियोजन के अन्तगर्त उपलब्ध सभी विकल्पों में से श्रेष्ठतम विकल्प का चयन किया जाता है जिससे न्यूनतम लागत पर वांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। सहयोग का सिद्धान्त - नियोजन हेतु सगंठन में कायर्रत सभी कामिर्कों का सहयोग अपेक्षित होता है। कर्मचारियों के सहयोग एवं परामर्श के आधार पर किये गये नियोजन की सफलता की सम्भावना अधिकतम होती है। नीति का सिद्धान्त - यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है नियोजन को प्रभावी बनाने के लिए ठोस एवं सुपरिभाषित नीतियॉं बनायी जानी चाहिए। प्रतिस्पर्द्धात्मक मोर्चाबन्दी का सिद्धान्त - यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि नियोजन करते समय प्रतिस्पध्र्ाी संगठनों की नियोजन तकनीकों, कार्यक्रमों, भावी योजनाओं आदि को ध्यान में रखकर ही नियोजन किया जाना चाहिए। निरन्तरता का सिद्धान्त - नियोजन एक गतिशील तथा निरन्तर जारी रहने वाली प्रक्रिया है। इसलिये नियोजन करते समय इसकी निरन्तरता को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिये। मूल्यांकन का सिद्धान्त - नियोजन हेतु यह आवश्यक है कि समय समय पर योजनाओं का मूल्यांकन करते रहना चाहिए। जिससे आवश्यकता पड़ने पर उसमें आवश्यक दिशा परिवर्तन किया जा सके। सम्प्रेषण का सिद्धान्त - प्रभावी सम्प्रेषण के माध्यम से ही प्रभावी नियोजन सम्भव है।नियोजन उसके क्रियान्वयन, विचलन, सुधार आदि के सम्बन्ध में कर्मचारियों को समय समय पर जानकारी दी जा सकती है और सूचनायें प्राप्त की जा सकती हैं।
नियोजन की प्रक्रिया
नियोजन छोटा हो या बड़ा, अल्पकालीन हो या दीर्घकालीन, उसे विधिवत संचालित करने हेतु कुछ आवश्यक कदम उठाने पड़ते हैं। इन आवश्यक कदमों को ही नियोजन प्रक्रिया कहते हैं। नियोजन प्रक्रिया के प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं -
लक्ष्य निर्धारण करना - व्यावसायिक नियोजन का प्रारम्भ लक्ष्यों को निर्धारित करने से होता है। सर्वप्रथम संगठन का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। इसके पश्चात इसे विभागों और उपविभागों में विभाजित कर दिया जाता है। कर्मचारी जिस विभाग से सम्बन्धित हो, उसे उस विभाग के लक्ष्य के बारे में अवश्य ही जानकारी होनी चाहिए। लक्ष्य निर्धारण से ही योजनाओं का क्रियान्वयन सरलतापूर्वक किया जा सकता है। पूर्वानुमान करना - लक्ष्य निर्धारण के पश्चात पूर्वानुमान की आवश्यकता पड़ती है। व्यवसाय से सम्बन्धित विभिन्न बातों का पूर्वानुमान लगाना पड़ता है। जैसे - पूंजी की आवश्यकता है? कितना उत्पादन करना है? कच्ची सामग्री कहॉं से क्रय करना उपयुक्त होगा? उत्पादन में कितना समय लगना चाहिए। उत्पादन लागत कितनी होनी चाहिए? किसे कितना पारिश्रमिक देना चाहिए? विक्रय मूल्य कितना हो? विक्रय कब, कहॉ, कितना किया जाना चाहिए? आदि इसके अतिरिक्त व्यावसायिक वातावरण से सम्बन्धित अन्य तथ्यों को भी पूर्वानुमान किया जाता है। इसमें तेजी, मन्दी, सरकारी नीतियॉं, वैश्विक दशायें आदि प्रमुख हैं। सीमा निर्धारण करना - नियोजन की सीमायें भी होती हैं ऐसे नियोजन जिन पर संगठन का पूर्ण नियंत्रण होता है नियंत्रण योग्य सीमायें कहलाती हैं। इनमें कम्पनी की नीतियॉं, विकास कार्यक्रम कार्यालय तथा शाखाओं की स्थिति आदि आते हैं। अर्द्धनियंत्रण में ऐसे नियोजन को सम्मिलित किया जाता है जिन पर संगठन का पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है, इसे आंशिक रूप से ही नियंत्रित किया जा सकता है। इसे अर्द्ध नियंत्रण योग्य नियोजन कहते हैं।इसमें मूल्य नीति, विक्रय क्षेत्र,पारिश्रमिक, अनुलाभ आदि प्रमुख हैं। अनियंत्रण योग्य नियोजन वह है जिन पर संगठन का कोर्इ नियंत्रण नहीं होता है। इसमें देश की जनसंख्या, राजनीतिक वातावरण, कर दरें, भावी मूल्य स्तर, व्यापार चक्र आदि प्रमुख हैं। नियोजन की सीमाओं में प्रबन्धकों में परस्पर मतभेद हैं। यह संगठन एवं उसके लक्ष्यों पर ही निर्भर करता है कि उनके नियोजन की सीमायें क्या होनी चाहिए। वैकल्पिक कार्यविधियों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन - नियोजन के इस चरण में वैकल्पिक कार्यविधियों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया जाता है। विकल्पों के विश्लेषण से हमें यह जानकारी प्राप्त हो जाती है कि उपलब्ध विकल्पों में क्या गुण दोष हैं तथा इनके मूल्यांकन से हमें यह पता चलता है कि कौन सा विकल्प किन परिस्थितियों में हमें सर्वोत्तम परिणाम देगा। श्रेष्ठतम विकल्प का चयन - नियोजन के इस चरण में उपलब्ध विकल्पों के विश्लेषण एवं मूल्यांकन के पश्चात संगठन के लिए श्रेष्ठतम विकल्प का चयन किया जाता है। यह आवश्यक नहीं है कि एक संगठन के लिए जो श्रेष्ठतम विकल्प हो वही दूसरे संगठन के लिए भी श्रेष्ठतम विकल्प हो। अत: प्रत्येक संगठन आवश्यकतानुसार श्रेष्ठ विकल्प का चयन करता है। योजनाओं का निर्माण - श्रेष्ठतम विकल्प के चयन के पश्चात योजनाओं और उपयोजनाओं का निर्माण किया जाता है। जिससे लक्ष्य को प्राप्त करने में सरलता हो। इन योजनाओं में समय, लागत, लोचशीलता, प्रतिस्पर्द्धा की नीति,आदि घटकों का भी ध्यान रखा जाता है। उपयोजनायें, मूल योजनाओं के क्रियान्वयन को सरल कर देती है। इसके पश्चात योजनाओं के सुचारू संचालन के उद्देश्य से क्रियाओं के निष्पादन का क्रम व समय भी निध्र्धारित कर दिया जाता है। योजनाओं के निर्माण के समय विभिन्न कर्मचारियों का सहयोग लिया जाता है जिससे योजनाओं का भली-भॉंति निर्माण हो सके। अनुगमन - योजनाओं के क्रियान्वयन के पश्चात उनकी सफलताओं का मापन किया जाता है और यदि आवश्यक हुआ तो योजनाओं में आवश्यक संशोधन किया जाता है। बदलती हुर्इ आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं सम्भावित परिवर्तनों के सम्बन्ध में भी योजनाओं में आवश्यक संशोध् ान किया जाता है इस प्रकार अनुगमन में योजनाओं के क्रियान्वयन के पश्चात हमें जो परिणाम प्राप्त होते हैं। उन्हीं के अनुसार हम आवश्यक कदम उठाते हैं।
नियोजन का महत्व
नियोजन की अनुपस्थिति में व्यवसायिक सफलता प्राप्त करना असम्भव है। जिस प्रकार एक उद्देश्यहीन व्यक्ति जीवन में सफल नहीं हो सकता है उसी प्रकार बिना नियोजन के कोर्इ भी संगठन, व्यावसायिक या गैर व्यावसायिक, सफल नहीं हो सकता है। नियोजन ही संगठन का मार्गदर्शन करता है तथा मार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्त करने में सहायक होता है। अर्नेस्ट सी. मिलर ने ठीक ही कहा है कि, ‘‘बिना नियोजन के कोर्इ भी कार्य केवल निष्प्रयोजन क्रिया होगी जिससे अव्यवस्था के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त न होगा। नियोजन का महत्व निम्नलिखित बिन्दुओ से और भी अधिक स्पष्ट होता है -
संगठन के उददेश्यों पर ध्यान केन्द्रित करना - प्रत्येक व्यावसायिक संगठन के आधारभूत लक्ष्य होते हैं। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ही नियोजन किया जाता है। नियोजन से संगठन के प्रबंधकों का लक्ष्य की ओर ध्यान केन्द्रित रहता है, जिससे संगठन के प्रत्येक कर्मचारी जागरूक और सतर्क बने रहते हैं।संगठन के लक्ष्यों के प्रति सभी का ध्यान केन्द्रित रहने से अन्र्तविभागीय क्रियाओं में परस्पर समन्वय बना रहता है।इस प्रकार नियोजन विभिन्न क्रियाओं को व्यवस्थित करता है। नियोजन ही संगठन की नीतियों, क्रियाविधियों, कार्यक्रमों तथा अन्य विभागों में समन्वय स्थापित करता है। लागत व्ययों को कम करना - नियोजन के माध्यम से संगठन की प्रत्येक क्रिया निर्धारित ढंग से की जाती है। यह विधि उपलब्ध विकल्पों में श्रेष्ठतम होती है जिससे व्ययों में कमी आती है। संकट की परिस्थितियों में इनसे निपटने के लिए नियोजन का ही सहारा लेना पड़ता है। अनेकों व्यावसायिक व्याधियों के उपचार हेतु पूर्वानुमान का सहायक होता है। नियोजन से कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। जिससे लागत व्यय में कमी आ जाती है। भविष्य की अनिश्चितता का सामना करने के लिए - भविष्य सदा अनिश्चित रहता है। आज के व्यावसायिक वातावरण ने इस अनिश्चितता को और भी अधिक बढ़ा दिया है। इन अनिश्चितताओं पर पूर्ण रूप से तो नहीं अपितु काफी हद तक नियोजन के माध्यम से निपटा जा सकता है। भविष्य के गर्भ में झांककर अनिश्चितताओं का उपचार करना ही तो नियोजन है। बाढ़, अग्निकाण्ड, भूकम्प, व्यापारिक उतार चढ़ाव, बदलती हुर्इ बाजार स्थिति कर व्यवस्थाओं में बदलाव आदि अनिश्चितता ही तो है जिन का नियोजन के माध्यम से सामना किया जा सकता है। प्रबन्धकीय कार्यो में समन्वय स्थापित करना - प्रबन्धकीय कार्यों में नियोजन का प्रथम स्थान है। बिना नियोजन के अन्य सभी प्रन्धकीय कार्यों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। नियोजन के माध्यम से ही समुचित नियंत्रण, समन्वय, निर्देशन, अभिप्रेरण, स्टाफिंग आदि किये जा सकते हैं। अत: सभी प्रबन्धकीय कार्यों में समन्वय स्थापित करने के लिए नियोजन अपरिहार्य है। मनोबल एवं अभिप्रेरण में वृद्धि - एक कुशल नियोजन पद्धति के अन्तर्गत प्रत्येक स्तर पर प्रबन्धकों की भागिता एवं कर्मचारियों को प्रोत्साहित किया जाता है। जिससे मनोबल एवं अभिप्रेरण में वृद्धि होती है। कर्मचारियों को यह पता होता है कि कौन सा कार्य कब, कहॉं, कैसे, कितने समय में होना है? इससे उनके मनोबल में वृद्धि होती है। उतावले निर्णयों पर रोक - नियोजन के अन्तर्गत विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन किया जाता है। विकल्प के चयन के समय परिस्थितियों, समस्याओं, कठिनाइयों व मिव्ययता का पर्याप्त ध्यान रखा जाता है। इससे उतावले निर्णयों पर रोक लगती है जिससे अनावश्यक हानि से संगठन सुरक्षित रहता है। प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में सुधार नियोजन से संगठन की प्रतिस्पर्धा क्षमता में अभिवृद्धि होती है। नियोजन के माध्यम से ही एक संगठन प्रतियोगिता का सामना करने में सफल हो सकता है। कुशल नियोजन से ही एक संगठन अपने प्रतिद्वन्दी संगठन पर विजय प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार नियोजन से प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में सुधार होता हैं। सृजनात्मकता को प्रोत्साहन - नियोजन में भविष्य के गर्भ में झांककर बेहतर विकल्पों का चयन किया जाता है। इससे संगठन की सृजनात्मकता को प्रोत्साहन मिलता है। शोध, नवप्रवर्तन आदि सृजनात्मकता के प्रोत्साहन का ही परिणाम है। नियोजन मानव जीवन के सभी पहलुओं पर सम्बन्धित होता है। प्रत्येक संगठन की सफलता और विफलता नियोजन पर ही निर्भर करती है। कुशल नियोजन व्यावसायिक संगठन ही नहीं अपितु मानव जीवन, समाज एवं राष्ट्र को भी प्रगति के पथ पर अग्रसर करता है। नियोजन के महत्व के संदर्भ में जितना भी कहा जाय कम है।
नियोजन बनाम पूर्वानुमान
जिस प्रकार उद्देश्यहीन व्यक्ति के लिए जीवन में सफलता पाना असम्भव होता है। उसी प्रकार बिना नियोजन के व्यावसायिक सफलता असम्भव है। नियोजन पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की ओर सभी का ध्यान केन्द्रित करता हैं। नियोजन दूरदर्शिता का प्रयास होता है। कुशल नियोजन रचनात्मक विचारों को जन्म देता है। नियोजन संकटों का पहले से ही अनुमान लगाने और उनका सामना करने में प्रबन्धकों की सहायता करता है। इससे कर्मचारियों का मनोबल बढ़ता है। नियोजन तकनीक का विधिवत उपयोग करने से ही सही परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।
नियोजन के पूर्व नियोजन की आधारशिला तैयार की जाती है। नियोजन की आधारशिला ही पूर्वानुमान कहलाती है। प्रत्येक आधुनिक व्यवसायी चेतन या अचेतन रूप से पूर्वानुमान अवश्य लगाता है। वस्तुत: आर्थिक एवं व्यावसायिक विश्लेषण को ही व्यावसायिक पूर्वानुमान कहते हैं। पूर्वानुमान का आधार आकस्मिकता का नियम है जिसके अनुसार वर्तमान गतिविधियों भूतकालीन गतिविधियों पर तथा भावी गतिविधियाँ वर्तमान गतिविधियों पर आधारित होती हैं। पूर्वानुमान के आधार पर ही बजट का निर्माण किया जाता है। पूर्वानुमान व्यवसाय का अभिन्न अंग है एवं नियोजन की समस्त क्रियायें इसी पर आधारित होती हैं। पूर्वानुमान हेतु गणितीय एवं सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग किया जाता है।
Comments
Post a Comment