आजाद हिंद सरकार, क्रांतिकारी मोहन लहरी और बस्तर

आजाद हिंद सरकार, क्रांतिकारी मोहन लहरी और बस्तर
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आज आजाद हिंद सरकार के 75वी वर्षगांठ के मनाने का गौरवशाली दिवस है। इसी अवसर पर मैं श्री मोहन लहरी का साक्षात्कार प्रस्तुत कर रहा हूँ। लगभग 106 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा था, तथा इससे पहले वे बहुत लम्बे समय तक कांकेर के एक गेस्ट हाउस में गुमनामी का जीवन गुजार थे। श्री मोहन लहरी न केवल आजाद हिंद सरकार में प्रेस एण्ड पब्लिसिटी प्रभाग में महत्वपूर्ण पद पर रहे,  वे नेताजी सुभाष चन्द बोस तथा रासबिहारी बोस के बहुत करीबी साथी भी थे। क्रांतिकारी मोहन लहरी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्वतंत्र पत्रकारिता करने लगे थे। क्रांनिकल में छपे एक लेख से प्रभावित हो कर बस्तर के आखिरी महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव उन्हें अपना सलाहकार बना कर जगदलपुर ले आये थे।
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“गहरे पानी उतरने पर मोती मिलता है” यह कहावत सत्य सिद्ध हुई। अपने उपन्यास आमचो बस्तर के लिये सामग्री जुटाने कांकेर पहुँचा था। यहाँ चर्चा के दौरान मुझे मोहन लहरी जी के विषय में जानकारी मिली। यह ज्ञात हुआ कि बस्तर राज्य के अंतिम शासक प्रवीर चंद्र भंजदेव के वे लगभग साढे छ: साल तक सलाहकार रहे हैं। पत्थरों और कागजों से इतर मुझे इतिहास का जीवित गवाह मिल गया था। मैं नहीं जानता था कि उनसे मिलना अविस्मरणीय होगा, जीवन की एक उपलब्धि हो जायेगा। गेस्ट हाउस से लगभग सौ मीटर पहले ही मुझे बताया गया कि वयो वृद्ध, झक्क सफेद दाढी, कमर झुक गयी है, हाँथ में एक सर्पाकार छडी, भूरे रंग का कुर्ता, मटमैला पायजामा, कंधे पर सफेद कपडा....वह आहिस्ता आहिस्ता सामने से चला आ रहा व्यक्ति ही मोहन लहरी है। मैंने उनके चरण छुवे। मैंने खादी का कुर्ता पहना हुआ था और इस बात नें उन्हें अनोखी खुशी दी थी। “आदमी कुर्ता पायजामा पहनते हैं तो कितने अच्छे लगते हैं..” वे इतने प्रसन्न और सहज हो गये कि उन्होंने अपना एक हाँथ मेरे कंधे पर डाला और दूसरे से हाँथ लाठी टेकते हमें लिये गेस्ट हाउस की ओर बढ चले। मैंने रास्ते में उन्हें अपने आने का प्रायोजन बताया।

गेस्ट हाउस में बाहर की ओर कुर्सियाँ लगी हुई हैं। हम बैठ गये। बातचीत आरंभ करने जैसी कोई औपचारिकता नहीं रह गयी थी। कोई प्रश्न नहीं और कोई परिचर्चा नहीं। उस बरगद के पेड नें जान लिया था कि मुझ परिन्दे की प्यास क्या है। उन्होंने बोलना आरंभ किया तो अगले लगभग एक घंटे वे अतीत के पृष्ठ दर पृष्ठ होलते गये। उनकी आवाज आज भी जोशीली है, कंपन रहित और बुलंद है। उनकी आँखों में सम्मोहन है और व्यक्तित्व में विशालता।

“मेरी उम्र अब एक सौ तीन साल की होने चली है भाई जी...मेरा जन्म 1908 में होशंगाबाद में हुआ था...तब सी. पी एण्ड बरार था उसके बाद में मध्यप्रदेश बना उसके बाद में छतीसगढ बना।” बोलते हुए एक हाँथ से उहोंने अष्टावक्र सदृश्य छडी पकडी हुई थी और दूसरे हाँथ को अपनी बातों की प्रभावी अभिव्यक्ति को दिशा देने के लिये इस्तेमाल कर रहे थे। इस बीच गेस्ट हाउस से चाय भी आ गयी थी इस लिये मूल विषय से हट कर बाते होने लगी। छतीसगढ के साहित्यिक परिदृश्य पर एकाएक लहरी जी नें तल्ख टिप्पणी की “यहाँ साहित्य पढा किसने है? जो लिख रहे हैं उनकी भाषा और व्याकरण देखो...जबरदस्ती के जोड तोड वाले और बिना समझ वाले कवि और साहित्यकार हो गये हैं।....। बस्तर के राजा का सलाहकार रहा हूँ भाई जी पचास साल पहले। किसी गाँव में वो भेज देते थे कि पूजा है वहाँ सौ रुपये दे देना। मैं जाता था तो लोग खटिया बिछा देते थे और पौआ ला कर रख देते थे कि लो पीयो। इसमें भी साहित्य है भैय्या। पूरा जीवन देखा है मैने यहाँ बस्तर में, छतीसगढ में...लोग यहाँ भात पकाते थे, बच जाता था तो उसमें पानी डाल देते थे जिसको दूसरे दिन खाते थे, इसमें भी इतिहास है यहाँ का। आज आदमी पतलून पहने लगा है तो समझता है हम सभ्य हो गये? इसमें उसको अपना विकास नजर आता है। भाई जी विकास नहीं हो रहा है, विनाश हो रहा है। हमारी संस्कृति पर हमला हो रहा है। विदेशी लोग हमला कर रहे हैं और हमारी संस्कृति को मिटा रहे हैं।“ अंतिम वाक्य कहते हुए उनकी आँखें आग्नेय हो उठी थी। मोहन लहरी की बुलंद आवाज़ में कहे गये इन वक्तव्यों से न केवल सिहरन हुई बल्कि वह उच्च कोटि की सोच भी सामने आयी जिसे लिये आजादी के ये परवाने जान हथेली पर लिये अपना सब कुछ दाँव पर लगाये रहते थे।

“मेरी पत्नी फिलिपिन की रहने वाली थी भाई जी फ्लोरा फ्रांसिस नाम था। सिंगापुर के रेडियो स्टेशन में वो काम करती थीं, अंग्रेजी की एनाउंसर थी। उसके पिताजी मनीला में वायलिन वादक थे। बैंकाक में हमने शादी की थी। उसनें मेरा भाषण सुना तो मुझसे शादी नहीं होने पर जिन्दगी भर कुँवारी रहने की बात अपने परिवार से कह दी। माँ बाप तैयार हो गये। तेरह चौदह साल हमारा साथ रहा। मैं गया था बैंकाक...राजनीतिक काम से घूमता था। रास बिहारी बोस के साथ काम करता था भाई जी। तब मैं जापानी बडी अच्छी बोलता था, मुझे फ्रेंच और जर्मन भाषा भी आती है। अब तो सब भूल गया हूँ, कोई बोलता नहीं है साथ में। वहीं एक पहाडी पर रहता था...आठ टन बारूद का बम गिरा हमारे बंगले पर। मेरी पत्नी और मेरी लडकी के साथ ही मेरा सब कुछ जल गया। लौट के आया, यह सब देखा तो मैं पागल हो गया। कुछ दिनों वही अस्पताल में रहा।...। वहाँ की जो मैट्रोन थी मुझसे पूछती थी अकेले में क्या देखते रहते हो? मैं कहता था बम देखता हूँ और देखता हूँ कि सब कुछ जल गया है, धुँआ उड रहा है।....।"

"मैं जब ठीक हुआ तो नेता जी...सुभाष बाबू नें मुझसे पूछा कि आगे कैसे काम करना चाहते हो। मैंने कहा नेताजी काम तो आपके साथ ही करेंगे और जहाँ रहेंगे वहाँ से आपके लिये ही काम करेंगे। मैं रंगून आ गया। जनरल ऑगसांन के साथ रहा हूँ मैं। वहाँ से मैं ‘वॉयस ऑफ बर्मा’ नाम का पेपर निकालता था।...। पहले मैनें जापान के अखबार नीशि-नीशि के लिए भी पत्रकारिता की है।"....."भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी मैं फोर्टीसेवन में नहीं आ सका, मैं भारत में फोर्टीनाईन में आया था। सेकेंड वर्ल्ड वार के टाईम में जो सडक बनी थी इंडिया, बर्मा और चाईना को जोडती थी। उस से हो कर मैं आया तो हिलगेट जहाँ से बर्मा छूट जाता है और इंडिया शुरु हो जाता है वहाँ पर मुझे पकडने के लिये अठारह-बीस सिपाही आ गये, बन्दूख वाले। तब जवाहर लाल नेहरू का जमाना था। उसके बाद हमको ला कर एक बंग्ले में ठहराया गया। कमरे के बाहर बंदूख ले कर सिपाही खडे हो गये तब मुझे लग गया कि मुझे गिरफ्तार कर लिया गया है। उस एरिया का पोलिटिकल ऑफिसर था सुरेश चन्द्र बरगोहाईं, सबके नाम मुझे याद हैं। तो पॉलिटिकल ऑफिसर बरगोहाईं नें दिल्ली फोन कर दिया कि सुभाष चंद्र बोस के एक साथी आये हैं। हम तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सरकार के मिनिस्ट्री आफ प्रेस पब्लिसिटी एंड प्रोपागेंडा के प्रोग्रामिंग आफिसर थे भाई जी। तो हमे जाने दिया लेकिन सी.आई.डी पीछे लग गयी। मैं जहाँ जाता वहाँ मेरी बात नोट करते। उस समय देवकांत बरुआ नाम के एक एडवोकेट थे और असाम में सेक्रेटरी थे। उनने फिर मदद की। मेरे पास जो विदेशी मुद्रा थी उसको बदलवा कर पाँच हजार रुपये दिये। इस तरह से मैं भारत में आया, फिर कलकता चला गया। वहाँ भी सी.आई.डी से परेशान हो के मैने सीधे नेहरू जी को चिट्ठी लिखी, तब मुझे मुक्ति मिली। इसके बाद नेहरू जी से दार्जलिंग में मेरी मुलाकात हुई। उन्होंने फिर हमको चाईल्ड वेल्फेयर काउंसिल, मध्यप्रदेश का अध्यक्ष बना दिया। मैं खुद घूम घूम कर आँगनबाडियाँ खोली हैं...सिवनी, छिन्दवाडा सब जगह।....।"

"बहुत काम किया है भईया जी। धर्मयुग और बांबे क्रानिकल जैसे अखबार में भी मैने काम किया है। सईय्यद अब्दुल्ला बरेलवी के साथ मैं बॉम्बे क्रॉनिकल में सहायक सम्पादक था।....। बडा अच्छा समय था भाई जी। राजेन्द्र प्रसाद जी को मैने कई बार अपनी कविता सुनाई थी। इतने इमानदार आदमी थे कि सरकारी खाना नहीं खाते थे। घर में उनकी पत्नी खिचडी पकाती थी और वही वो खाते थे। हमनें भी उनके साथ खिचडी खाई है।"....."लेजिस्लेटिव एसेम्बली में उन दिनों पुरुषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष होते थे। उस जमाने में इलेक्टेड, सलेक्टेड और नॉमीनेटेड तीन तरह के सदस्य होते थे लेजिस्लेटिव असेम्बली में। एक बार कलकता में टंडन जी का अभिनंदन किया गया था किसी होटल में। बहुत बडा और मंहगा होटल था। टंडन जी नें होटल की चाय भी नहीं पी और खाना भी बाहर से आया, वो बडे सिद्धांतवादी थे भाई जी। एक बार उनका लडका किसी पोस्ट के लिये इंटरव्यू देने गया था। लडका वहाँ से आया तो उसने टंडन जी के पाँव छुवे और बोला बाबूजी मेरा अपॉईंटमेंट हो गया है। टंडन जी नें पूछा कि इंटरव्यू में क्या पूछा गया था। लडके ने बताया कि पहले मेरा नाम पूछा फिर पिताजी का नाम पूछा, फिर मुझे चुन लिया गया। टंडन जी नें लडके की नौकरी छुडवा दी बोले भ्रष्टाचार हुआ है। एसे ही किसी कारण से टंडन जी नें एसेम्बली भी छोड दी थी। एसे थे उस जमाने के नेता। हमने उनको एक बार वंदेमातरम गा कर सुनाया था तो टंडन जी बडे भावुक हो गये थे। बोले एसा वंदेमातरम गान हो मैंने पहले कभी सुना नहीं है।"

"मैंने एक किताब लिखी थी – ‘नेताजी स्पीक्स’ जिसका ट्रांस्लेशन हुआ है बांगला में ‘आमी सुभाष बोलछी’ और हिन्दी में भी किसी जमाने में ये किताब आई थी। एक और किताब ‘टोकियो टू इम्फाल’ मैंने बर्मा में लिखी थी जो रंगून में छपी थी, बर्मा पब्लिशर्स नें छापी थी।....। यह मेरा इतिहास है भैय्या जी, अब अकेला हूँ और सरकार के भरोसे हूँ। कुछ पुराने किस्सों के साथ जी रहा हूँ भाई जी, जिन्हें कोई जानता नहीं है।"
लहरी जी अपने बारे में बात करते हुए भावुक हो गये थे। उन्होंने हाँथ के इशारे से हमें पीछे आने के लिये कहा और स्वयं गेस्ट्हाउस में अपने कमरे की ओर बढ गये। साधारण कमरा था जिसमें एक पलंग बिछा हुआ था। कमरे के एक ओर दो कुर्सियाँ भी रखी हुई थी।...।“यहीं रहता हूँ भाई जी दो ढाई महीने से।” लहरी जी नें हमें कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया।

इस उम्र में भी मोहन लहरी जी की याददाश्त कमाल की थी। बातचीत के आरंभ में ही मैंने उन्हें बताया था कि बस्तर के अतीत पर शोध के लिये निकला हूँ अत: यहाँ के अंतिम शासक महाराजा प्रबीर चंद्र भंजदेव के विषय में भी जानना चाहता हूँ। बिना इस सम्बंध में मेरे प्रश्न की प्रतीक्षा किये ही उन्होंने बोलना आरंभ किया – “ प्रवीण चंद्र भंजदेव अपने साथ भोपाल से ले आये थे मुझको। उस जमाने में वो एम एल ए थे। राजे-रजवाडे तो खतम हो गये थे लेकिन प्रवीर चंद्र बस्तर का राजा और गुलाब सिंह, रीवा का राजा दोनों अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। राजा लोहे की खदान को ले कर सरकार से लड रहा था। बस्तर के पास कांकेर का रजवाडा था जिसमें राजा होते थे नरहर देव। उनको कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने भानुप्रतपदेव को गोद ले कर राजा बनाया था। उनका भाई था कुमार त्रिभुवन देव...बहुत अच्छे स्वभाव का था। मैंने इनके साथ भी अच्छा समय व्यतीत किया है । जब सारे रजवाडे खतम हो गये तब भी बस्तर के राजा को एक दिन फिर से राजा बन जाने के उम्मीद थी। लन्दन में रहने की वजह से महाराजा प्रबीरचन्द की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। मैं एक पेपर निकालता था भोपाल से..उस पेपर को राजा नें कहीं से पढा। मेरी भाषा से प्रभावित हो के उसके खोज कर के मुझको बुलवाया। मुझे भी बडा अलग काम लगा और मैं राजा का प्रस्ताव मान कर उनका सलाहकार बन कर बस्तर चला आया। साढे छ: साल मैं उनका सलाहकार रहा भाई जी। बडे जिद्दी थे प्रबीर और मनमौजी। उस जमाने के गृहमंत्री को भी वो कुछ नहीं समझते थे। यह सब उनके सोच की गलती थी। एक लुंगी पहनते थे सिल्क की और सिल्क का ही कुर्ता। दाढी बढी हुई। हम रात रात भर बात करते थे कितनी बार सुबह हो गयी।..।"

"प्रवीर चंद्र को मैने उनकी एक सनक के कारण छोड दिया था। वो लन्दन से एक अलशेशियन कुत्ता ले कर आये थे। किसी कारण से कुत्ता मर गया। राजा का प्यारा कुत्ता मरा तो उसने खूब बाजे गाजे के साथ जगदलपुर में घुमा कर शवयात्रा निकलवाई। खाना मैं राजा के साथ ही खाता था। प्रबीर चन्द्र नें मुझसे कहा कि आपने ध्यान नही दिया। अगर समय पर किसी डाक्टर को दिखवा दिया होता तो मेरा प्यारा कुत्ता मरा नहीं होता। मैं भी उखड गया भाई जी। मैंने कहा कि राजा साहब मैं आपका सलाहकार हूँ लेकिन किसी कुत्ते की हिफाजत के लिये आपके साथ नहीं आया हूँ। राजा नाराज हो गया और खाना छोड के चला गया। मैं भी उठ कर आ गया। मेरी सेवा में राजा की लगाई हुई एक कार थी। मैंने ड्राईवर से कहा कि बस स्टैंड ले चलो। फिर मैं कांकेर आ गया। यहाँ रजवाडे में भानुप्रतापदेव नें मेरा स्वागत किया और मुझे यहीं रुक जाने के लिये कहा।"

"प्रबीर चन्द्र को गोली मार दी गयी थी भाई जी। मेरे वहाँ से आने के बाद बस्तर का गोलीकांड हुआ था। राजा और कलेक्टर नरोन्हा में बहुत तनातनी चल रही थी। तब से अब तक भाई जी समय भी बदल गया है। तब जगदलपुर भी बहुत पिछडा हुआ था। दुकाने भी बहुत कम थी एक दो जगह ही बाजार लगता था। महल के पास ही एक अंडे वाला दो तीन पकौडे वाले बैठते थे। उस जमाने के एक कवि हैं लाला जगदलपुरी। आज भी बस्तर में उनका बहुत नाम है भाई जी। उनसे मेरा परिचय है। हाल में जगदलपुर गया था। वहाँ के नेता हैं न बलीराम कश्यप उनहोने बुलवाया था। आज कल वहाँ नक्सलवादी हो गये हैं तो सबके साथ मेरी भी वहाँ के आरक्षक लोग तलाशी करने लगे। मैंने अपनी लाठी से उनको धकेल कर डांट दिया। मैं नेता जी के साथ काम कर चुका हूँ और तुम मेरी तलाशी लेते हो?"

“नक्सलवादी वहाँ क्रांति कर रहे हैं?” बहुत धीरे से मैंने लहरी जी से सम्मुख कहा था। मेरे इस वाक्यांश में छिपा प्रश्न संभवत: वे समझ गये और एकदम से लहरी जी का सुर बदल गया। “इसे क्रांति नहीं कहते हैं भाई जी, ये क्रांति नहीं है। क्रांति का मतलब अलग होता है। हमने नेता जी के साथ रह कर क्रांति को जिया है और देखा है।.....। आज मेरे पास बढी हुई उम्र के अलावा कुछ नहीं है। जो कुछ भी मेरे पास था चोरी चला गया। बहुत सारी तस्वीरे थीं। नेताजी के साथ की तस्वीरें। पट्टाभिसीता रमैय्या के लिखे बहुत सारे पत्र जो रायपुर में किसी नें चुरा लिये। यही सब सम्पत्ति थी अब खाली हाँथ हूँ। बस बोलना जानता हूँ भाई जी और इसी से जो चाहो आपको दे सकता हूँ। पुरानी बाते याद हैं बस। लेकिन इतना समय हो गया कि अपनी बिटिया का चेहरा भी भूल गया हूँ जो जापान में बमबारी में मारी गयी थी।“ यही हमारी बातचीत में उनका आखिरी वाक्य था, फिर लहरी जी के स्वर में भावुकता घर कर गयी थी।
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लहरी जी अब हमारे बीच नहीं हैं, उन्हे सादर नमन करते हुए आज आजाद हिंद सरकार के 75वी वर्षगांठ के अवसर पर मैं सभी को हार्दिक बधाई देता हूँ।
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संकलन व संपादन :
आनंद श्री कृष्णन
हिंदी विश्वविद्यालय

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