कौमी एकता और गांधी

कौमी एकता और गांधी

कौमी या सांप्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं। लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीति एकता नहीं है। राजनीतिक एकता तो जोर-जबरदस्‍ती से भी लादी जा सकती है। मगर एकता के सच्‍चे मानी तो हैं वह दिल्‍ली दोस्‍ती, जो किसी के तोड़े न टूटे। इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेसजन, फिर वे किसी भी धर्म के मानने वालें हो, अपने को हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी यहूदी वगैरा सभी कौमों के नुमाइंदा समझें। हिंदुस्‍तान के करोड़ों बाशिंदों में से हर एक के साथ वे अपने पन का-आत्‍मीयता का-अनुभव करें; यानी वे उनके सुख-दु:ख में अपने को उनका साथी समझें। इस तरह की आत्‍मीयता सिद्ध करने के लिए हर एक कांग्रेसी को चाहिए कि वह अपने धर्म से भिन्‍न धर्म का पालन करने वालें लोगों के साथ निजी दोस्‍ती कामय करे, और अपने धर्म के लिए उसके मन में जैसा प्रेम हो, ठीक वैसा ही प्रेम वह दूसरे धर्म से भी करें।
हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्‍ख, पारसी आदि को अपने मतभेद हिंसा का आश्रय लेकर और लड़ाई-झगड़ा करके नहीं निपटाने चाहिए। ...हिंदू और मुसलमान मुँह से तो कहते हैं कि धर्म में जबरदस्‍ती को कोई स्‍थान नहीं है। लेकिन यदि हिंदू गाय को बचाने के लिए मुसलमान की हत्‍या करें, तो यह जबरदस्‍ती के सिवा और क्‍या है? यह तो मुसलमान को बलात् हिंदू बनाने जैसी ही बात है। और इसी तरह यदि मुसलमान जो-जबरदस्‍ती से हिंदुओं को मसजिदों के सामने बाजा बजाने से रोकने की कोशिश करते हैं, तो यह भी जबरदस्‍ती के सिवा और क्‍या है? धर्म तो इस बात में है कि आस-पास चाहे जितना शोरगुल होता रहे, फिर भी हम अपनी प्रार्थना में तल्‍लीन रहें। यदि हम एक-दूसरे को अपनी धार्मिक इच्‍छाओं का सम्‍मान करने के लिए बाध्‍य करने की बेकार कोशिश करते रहे, तो भावी पीढ़ियाँ हमें धर्म के तत्‍त्‍व से बेखबर जंगली ही समझेंगी।

यदि अपने अंतर का आदेश मानकर कोई आर्यसमाजी प्रचारक अपने धर्म का और मुसलमान प्रचारक अपने धर्म का उपदेश करता है, और उससे हिंदू-मुस्लिम-एकता खतरे में पड़ जाती है, तो कहना चाहिए कि यह एकता बिलकुल ही ऊपरी है। ऐसी प्रचार-प्रवृत्तियों से हमें विचलित क्‍यों होना चाहिएᣛ? अलबत्‍ता, ये पवृत्तियाँ सच्‍चाई से प्रेरित होनी चाहिए। यदि मलकाना जाति के लोग हिंदू धर्म में वापिस आना चाहते हैं, तो उन्‍हें इसका पूरा अधिकार है; वे जब भी आना चाहें आ सकते हैं। लेकिन इस सिलसिले में ऐसे किसी प्रचार की अनुमति नहीं दी जा सकती, जिसमें दूसरे धर्मों को गालियाँ दी जाती हो, कारण, दूसरे धर्मों की निंदा में परमत-सहिष्‍णुता का सिद्धांत भंग होता है। ऐसे प्रचार से निपटने का सबसे अच्‍छा उपाय यह है कि उसकी सार्वजनिक रीति से निंदा की जाए। हर एक आंदोलन सामाजिक प्रतिष्‍ठा का जामा पहनकर आगे आने की कोशिश करता है। यदि लोग उसके इस नकली आवरण को फाड़ दें, तो प्रतिष्‍ठा के अभाव में वह मर जाता है।

अब हिंदू-मुसलमानों के झगड़ों के दो स्‍थायी कारणों का क्‍या इलाज हो सकता है, इसकी जाँच करें।
पहले गोवध को लीजिए। गोरक्षा को मैं हिंदू धर्म का प्रधान अंग मानता हूँ। प्रधान इसलिए कि उच्‍च वर्गों और आम जनता दोनों के लिए यह समान है। फिर भी इस बारें में हम जो मुसलमानों पर ही रोष करते हैं, यह बात किसी भी तरह मेरी समझ में नही आती। अँग्रेजों के लिए रोज कितनी ही गाएँ कटती हैं। परंतु इस बारे में तो हम कभी जबान तक भी शायद ही हिलाते होंगे। केवल जब कोई मुसलमान गाय की हत्‍या करता है, तभी हम क्रोध के मारे लाल-पीले हो जाते हैं। गाय के नाम से जितने झगड़े हुए हैं, उनमें से प्रत्‍येक में निरा पागलपन भरा शक्तिक्षय हुआ है। इसके एक भी गाय नहीं बची। उलटे, मसलमान ज्‍यादा जिद्दी बने हैं और इस कारण ज्‍यादा गाएँ कटने लगी है।

गोरक्षा का प्रारंभ तो हमी को करना है। हिंदुस्‍तान में ढोरों की जो दुर्दशा है वैसी दुनिया के किसी भी दूसरे हिस्‍से में नहीं। हिंदू गाड़ीवानों को थककर चूर हुए बैलों को लोंहे की तेज आर वाली लकड़ी से निर्दयता के साथ हाँकते देखकर मैं कई बार रोया हूँ। हमारे अधभूखे रहने वाले जानवर हमारी जीती-जागती बदनामी के प्रतीक हैं। हम हिंदू गाय को बेचते हैं इसलिए गायों की गर्दन कसाई की छुरी का शिकार होती है।

ऐसी हालत में एकमात्र सच्‍चा और शोभास्‍पद उपाय यही है कि मसलमानों के दिल हम जीत लें और गाय का बचाव करना उनकी शराफत पर छोड़ दें। गोरक्षा-मंडलों को ढोंरों को खिलाने-पिलाने, उन पर होने वाली निर्दयता को रोकने, गोचर-भूमि के दिन-दिन होने वाले लोप को रोकने, पशुओं की नसल सुधारने, गरीब ग्‍वालों से उन्‍हें खरीद लेने और मौजूदा पिंजरापोलों को दूध की आदर्श स्‍वावलंबी डेरियाँ बनाने की तरफ ध्‍यान देना चाहिए। ऊपर बताई हुई बातों में से एक को भी करने में हिंदू चूकेंगे, तो वे ईश्‍वर और मनुष्‍य दोनों के सामने अपराधी ठहरेंगे। मुसलमानों के हाथ से होने वाले गोवध को वे रोक न सकें, तो इसमें उनके मत्‍थे पाप नहीं चढ़ता। लेकिन जब वे गाय को बचाने के लिए मुसलमानों के साथ झगड़ा करने लगते हैं, तब वे जरूर भारी पाप करते हैं।

मसजिदों के सामने बाजे बजने के सवाल पर-अब तो मंदिरों के भीतर होने वाली आरती का भी विरोध किया जा है-मैंने गंभीरता पूर्वक सोचा है। जिस तरह हिंदू गोवध से दु:ख होते हैं, उसी तरह मुसलमानों को मसजिदों के सामने बाजा बजने पर बुरा लगता है। लेकिन जिस तरह हिंदू मुसलमानों को गोवध न करने के लिए बाध्‍य नहीं कर सकते, उसी तरह मुसलमान भी हिंदुओं का डरा-धमकाकर बाज या आरती बंद करने के लिए बाध्‍य नहीं कर सकते। उन्‍हें हिंदुओं की सदिच्‍छा का विश्‍वास करना चाहिए। हिंदू के नाते मैं हिंदुओं को यह सलाह जरूर दूँगा कि वे सौदेबाजी की भावना रखे बिना अपने मुसलमान पड़ोसियों के भावों को समझें और जहाँ संभव हो वहाँ उनका खयाल रखें। मैंने सुना है। कि कई जगह हिंदू लोग जान-बुझकर और मुसलमानों का जी दुखाने के इरादे से ही आरती ठीक उस समय करते हैं जब कि मुसलमानों की नमाज शुरू होती है। यह एक हृदय हीन और शत्रुतापूर्ण कार्य हे। मित्रता में मित्र के भावों का पूरा-पूरा खयाल रखा ही जाना चाहिए। इसमें तो कुछ सोच-विचार की भी बात नहीं है। लेकिन मुसलमानों को हिंदुओं से डरा-धमकाकर बाजा बंद करवाने की आशा नहीं रखनी चाहिए। धमकियों अथवा वास्‍तविक हिंसा के आगे झुक जाना अपने आत्‍म-सम्‍मान और धार्मिक विश्‍वासों का हनन है। लेकिन जो आदमी मौके हमेशा यथासंभव कम करने की और संभव हो तो टालने की भी पूरी कोशिश करेगा।

मुझे इस बात का पूरा निश्‍चय है कि यदि नेता न लड़ना चाहें, ता आम जनता को लड़ना पसंद न‍हीं है। इसलिए यदि नेता लोग इस बात पर राजी हो जाएँ कि दूसरे सभ्‍य देशों की तरह हमेशा देश में भी आपसी लड़ाई-झगड़ों का सार्वजनिक जीवन से पूरा उच्‍छेद कर दिया जाना चाहिए और वे जंगलीपन और अधार्मिकता के चिह्र माने जाने चाहिए, तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि आम जनता शीघ्र ही उनका अनुकरण करेगी।
जब ब्रिटिश शासन नहीं था और अँग्रेज लोग यहाँ दिखाई नहीं पड़ते थे, तब क्‍या हिंदू, मुसलमान और सिक्‍ख हमेशा एक-दूसरे से लड़ते ही रहते थे? हिंदू इतिहासकारों और मुसलमान इतिहासकारों ने उदाहरण देकर य‍ह सिद्ध किया है कि उस समय में हम बहुत हद तक हिल-मिलकर और शांतिपूर्वक ही रहते थे। और गाँवों में तो हिंदू-मुसलमान आज भी नहीं लड़ते। उन दिनों वे बिलकुल ही नहीं लड़ते थे। ... यह लड़ाई-झगड़ा पुराना नहीं है। ... मैं तो हिम्‍मत के साथ यह कहता हूँ कि वह ब्रिटिश शासकों के आगमन के साथ ही शुरू हुआ है; और जब ग्रेट ब्रिटेन और भारत के बीच आज जो दुर्भाग्‍यपूर्ण, कृत्रिम और अस्‍वाभाविक संबंध है वह बदलकर सही और स्‍वाभाविक बन जाएगा, जब उसका रूप एक ऐसी स्‍वेच्‍छापूर्ण साझेदारी का हो जाएगा, जो किसी भी समय दोनों में से किसी भी पक्ष की इच्‍छा पर तोड़ी जा सके, उस समय आप देखेंगे कि हिंदू, मुसलमान, सिक्‍ख, ईसाई, अछूत, एंग्‍लो-इंडियन और यूरोपियन सब हिल-मिलकर एक हो गए हैं।
मुझे इस बात में रंचमात्र भी संदेह नहीं है कि सांप्रदायिक मतभेद का कुहासा आजादी के सूर्य का उदय होते ही दूर हो जाएगा।

आज के दौर में कौमी एकता का गांधीवादी स्वरूप

देश में तेजी से गहराते सांप्रदायिक विभाजन के संदर्भ में महात्मा गांधी के चिंतन और विचारों की अहमियत और अधिक बढ़ जाती है। वह सांप्रदायिक विभाजन के खिलाफ लगातार संघर्ष करते रहे और स्थितियां कितनी ही कठिन क्यों न हों, उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनका सपना था स्वाधीन भारत में एकता, सद्भाव और सौहार्द। जब कभी उन्हें सांप्रदायिक तनाव की कोई सूचना मिलती थी तो वह बहुत विचलित हो जाते थे। सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ वह अक्सर अनशन का सहारा लेते थे और लोगों को यह समझाने में कामयाब हो जाते थे कि समाज में दो समुदायों-वगरें के बीच तनाव कितना खतरनाक है। उन्होंने आजादी की लड़ाई में सामाजिक एकता की अहमियत को महसूस कर लिया था और वह इसे अपनी सबसे बड़ी शक्ति मानते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि हम सभी एक परिवार की तरह है और हमें मिल-जुलकर शांतिपूर्ण तरीके से रहना चाहिए। उनके लिए सहिष्णुता सामाजिक एकता की कुंजी थी। दुर्भाग्य से आज हम अपने समाज में सबसे अधिक सहिष्णुता का अभाव ही देख रहे हैं और यही हमारी अनेक समस्याओं की जड़ है। कोई भी ऐसा समाज जिसमें सहनशीलता का गुण न हो, प्रगति की आशा नहीं कर सकता। गांधीजी का स्पष्ट मत था कि सभी समुदायों के नेताओं को एक-दूसरे से संपर्क बनाए रखना चाहिए और ऐसे प्रयास करने चाहिए कि समाज में एकता कायम रहे। वह हर स्तर पर सांप्रदायिक सोच को हतोत्साहित करने के पक्ष में थे। उनका विचार था कि हम अपने समाज में जिस एकता की कामना करते हैं वह तभी कायम रह सकती है जब हम दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति सम्मान और उदारता का भाव रखें। यह लोकतंत्र के लिए भी आवश्यक है। उन्हें इसका अहसास था कि जिस समाज में एक वर्ग का वर्चस्व स्थापित हो जाता है वह सच्चा लोकतांत्रिक समाज नहीं बन सकता है।

आज हमें गांधीजी को याद करते हुए अपने अंदर झांकने की जरूरत है। अपने समाज और अपनी राज्यसत्ता की ओर देखने की जरूरत है। क्यों हम एक राष्ट्र की हैसियत से कोई कदम नहीं उठा पा रहे हैं? क्यों समाज और राज्यसत्ता के विभिन्न अंग अपने-अपने हित में कुछ न कुछ हलचल करते रहते हैं-अधिकतर एक-दूसरे के विरोध में। इनमें सामंजस्य की स्थापना करने वाला अंग राच्य अक्सर ऐसा ही काम करता पाया गया है जिससे वह कमजोर हुआ है। वह सभ्यता का वाहक बनने के स्थान पर बाधक बनकर उभरा है। भारतीय समाज की वर्तमान बीमारी को समझने के लिए राच्यतंत्र तथा उसके संचालक वर्ग के विषय में सोचना जरूरी है। राच्य बीमार हो तो समाज स्वस्थ नहीं रह पाता। ऐसा राच्य जो समाज के आंतरिक संबंधों को तथा समस्याओं को उलझा देता है वह अस्वस्थ राच्य होता है। राच्य की स्वाभाविक स्थिति में जीवन जटिल न होकर सरल बना रहता है। लोगों के कष्टों का निवारण होता रहता है। जब राच्य समाज की स्वाभाविक गतिविधियों को, इच्छाओं-आकांक्षाओं तथा आदशरें को उलझा देता है तथा समाज में व्यवस्था के स्थान पर अव्यवस्था व्याप्त हो जाती है तब राच्य का ध्यान केवल अपने शासकीय अधिकारों पर ही केंद्रित होने लगता है।

आज हमारे समाज के भीतर सद्भाव की जो कमी महसूस हो रही है उसके पीछे कहीं न कहीं राच्यसत्ता की विफलता ही जिम्मेदार है। यह विफलता चाहे नीतियों के स्तर पर हो अथवा प्रशासनिक तंत्र के कामकाज की। समाज में एक-दूसरे के प्रति दूरी बढ़ाने वाले तत्व अधिक से अधिक ताकतवर क्यों होते जा रहे हैं? चूंकि राच्यसत्ता अपनी जिम्मेदारियों को सही तरह नहीं निभा पा रही है इसलिए आम जनता के मन में उसके प्रति एक असंतोष का भाव उत्पन्न हो रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि खाई विभिन्न समाजों के बीच भी गहरा रही है और इसका मुख्य कारण यह है कि जिनसे समाज और राष्ट्र को दिशा देने की अपेक्षा की जाती है वे अपना काम सही तरह नहीं कर रहे हैं।

आज समाज अपनी विषमताओं-विसंगतियों में उलझा नजर आ रहा है। सभी के लिए यह सवाल चिंता का विषय बनना चाहिए कि हम इन विषमताओं से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहे हैं? भेदभाव, असमानता और ताकत के मनमाने इस्तेमाल के कारण समाज एकजुट नहीं हो पा रहा है। समाज की जटिलताओं को व्यवस्थित रूप से सुलझाने की क्षमता तब राच्यसत्ता में बनी रहती हैं जब राच्य का संचालक वर्ग समाज की उत्ताम परंपराओं का वाहक हो, विधर्मी शक्तियों से लड़ने की साम‌र्थ्य रखता हो, न कि लोभ और भय को बढ़ावा देकर देश को अपने हित में क्षीण करने पर उतारू हुआ हो। वही सत्ता आम जनता का सम्मान पाती है जिसमें नैतिकता साफ झलकती हो। यह विडंबना है कि सत्ताधारी लोग अपनी-अपनी सत्ता के दायरों में विभिन्न साधनों, नियमों तथा तौर-तरीकों से ऐसा तंत्र खड़ा कर देते हैं कि सामान्य देशवासी कदम-कदम पर ठगा महसूस करते हैं। इसके चलते समाज धीरे-धीरे अपनी शक्ति खोने लगता है। आज ऐसा ही चारो ओर दिखाई दे रहा है। प्रत्येक समाज का अपना एक विधान होता है। यह विधान नैतिकता, मूल्यों और आस्थाओं पर टिका होता है। अगर इस विधान का ख्याल नहीं रखा जाएगा तो ऐसा समाज अपने सुरक्षित भविष्य की आशा नहीं कर सकता। अगर राजनीति समाज और देश को दिशा देने के लिए तैयार न हो तो समाज को खुद ही अपनी बेहतरी की राह तलाशनी होगी।



संपादन व संकलन

आनंद श्री कृष्णन

हिंदी विश्वविद्यालय

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