अस्पृश्यता निवारण और गांधी

अस्पृश्यता निवारण और गांधी

अस्पृश्यता का शाब्दिक अर्थ है - न छूना। इसे सामान्य भाषा में 'छूआ-छूत' की समस्या भी कहते हैं। अस्पृश्यता का अर्थ है किसी व्यक्ति या समूह के सभी लोगों के शरीर को सीधे छूने से बचना या रोकना। ये मान्यता है कि अस्पृश्य या अछूत लोगों से छूने, यहाँ तक कि उनकी परछाई भी पड़ने से उच्च जाति के लोग 'अशुद्ध' हो जाते है और अपनी शुद्धता वापस पाने के लिये उन्हें पवित्र गंगा-जल में स्नान करना पड़ता है। 

वैदिक काल ता का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। परंतु वर्णव्यवस्था के विकृत हो जाने और जाति पाँति की भेद भावना बढ़ जाने के कारण अस्पृश्यता को जन्म मिला। इसके ऐतिहासिक, राजनीतिक आदि और भी कई कारण बतलाए जाते हैं। किंतु साथ ही साथ, इसे एक सामाजिक बुराई भी बतलाया गया। "वज्रसूचिक" उपनिषद् में तथा महाभारत के कुछ स्थलों में जातिभेद पर आधारित ऊँचनीचपन की निंदा की गई है। कई ऋषि मुनियों ने, बुद्ध एवं महावीर ने कितने ही साधु संतों ने तथा राजा राममोहन राय, दयाानन्द जी ने इस सामाजिक बुराई की ओर हिंदू समाज का ध्यान खीचा। समय समय पर इसे मिटाने के जहाँ तहाँ छिट पुट प्रयत्न भी किए गए, किंतु सबसे जोरदार प्रयत्न तो गाँधी जी ने किया। उन्होंने इसे हिंदूधर्म के माथे पर लगा हुआ कलंक माना और कहा कि "यदि अस्पृश्यता रहेगी, तो हिंदू धर्म का - उनकी दृष्टि में "मानव धर्म" का - नाश निश्चित है।" स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए गाँधी जी ने जो चतु:सूत्री रचनात्मक कार्यक्रम देश के सामने रखा, उसमें अस्पृश्यता का निवारण भी था। 

भारत की आजादी की लड़ाई की यह विशेषता रही है कि इस लड़ाई के अग्रणी नेता महात्मा गाँधी ने उस लड़ाई में राजनैतिक आजादी के साथ-साथ सम्पूर्ण सामाजिक समता की स्थापना का लक्ष्य भी सामने रखा था। भारत गुलाम क्यों बना, इसके कारणों की खोज करते हुए उन्होंने पाया कि जाति भेद, अस्पृश्यता, सामाजिक अन्याय, महिलाओं का गौण दर्जा, श्रम को नीच समझना आदि अनेक कारण थे जिनसे हमारा समाज कमजोर बना। उन सभी कारणों के निराकरण हेतु गाँधीजी ने विभिन्न रचनात्मक कार्यक्रम आजादी की लड़ाई के साथ-साथ ही चलाए। उन्हीं कार्यक्रमों में से एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है, अस्पृश्यता-निवारण।

महात्मा गाँधी ने अस्पृश्यता-निवारण को आजादी की लड़ाई के साथ जोड़कर आजादी के लिए लड़ने वाले हर व्यक्ति को छूआछूत मिटाने के काम में भी लगाया। इस कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्होंने 1932 में ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की और देश के अधिकतर नेताओं को उसके साथ जोड़ा। हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष के नाते विख्यात उद्योगपति श्री घनश्यामदास बिरला को इस कार्य की प्रेरणा दी। श्रीमती रामेश्वरी नेहरू ने बरसों तक इस संस्था का दायित्व सम्भाला। पण्डित गोविन्द वल्लभ पंत (उत्तर प्रदेश), श्री सी. राजगोपालाचारी (तमिलनाडु), पण्डित गोपीनाथ बरदोलै (असम), राजेन्द्र प्रसाद तथा जगजीवनराम (बिहार), मोरारजी देसाई (गुजरात), पण्डित वियोगी हरी (मध्य प्रदेश), सेनापति बापट (महाराष्ट्र), आदि अनेकों नेता अस्पृश्यता-निवारण कार्य के अगुवा बने। उस जमाने में छूआछूत का भयंकर रूप था पर गाँधीजी की प्रेरणा से हजारों ने इस काम को उठाकर अनेकों विपदाएँ झेली, असीम कष्ट भुगते और अपने उद्देश्य में काफी सफलता भी पाई।

गाँधीजी द्वारा चलाए गए अस्पृश्यता-निवारण और सामाजिक समता की स्थापना के कार्य के पीछे एक अनोखा दर्शन है प्रायश्चित का। गाँधीजी कहा करते थे कि जिनके पुरखों ने अस्पृश्यता चलाने का पाप किया है, उन्हीं को प्रायश्चित के रूप में अस्पृश्यता-निवारण का कार्य करना चाहिए और अछूत माने जाने वाले भाई-बहनों की सेवा कर उन्हें समानता की भूमिका पर लाना चाहिए। इस दर्शन को अंजाम देते हुए अनेकों उच्चवर्णीय माने जाने वाले व्यक्तियों ने इस कार्य का बीड़ा उठाया। मध्य प्रदेश के स्व. दाते, तमिलनाडु के वैद्यनाथ अय्यर, महाराष्ट्र के काकासाहब बर्वे जैसे सज्जनों ने इस कार्य हेतु अपना पूरा जीवन अर्पित किया। प्रायश्चित की यह भूमिका अहिंसा द्वारा समाज में परिवर्तन लाने की पद्धति को प्रकट करती है, पोषक को सेवक बनाती है, क्रोध को नहीं, करुणा को परिवर्तन का माध्यम बनाती है, संघर्ष द्वारा नहीं, सौहार्द्र पर आधारित सहयोग द्वारा समाज की गलत मान्यताओं में बदलाव लाती है। गाँधीजी ने जिस प्रकार राजनैतिक आजादी हासिल करने के लिए अहिंसा, सत्याग्रह की पद्धति अपनाई, अंग्रेजों की हुकूमत को मिटाया पर अंग्रेजों के साथ मित्रता बनाए रखी, उसी तरह अस्पृश्यता-निवारण के कार्य की सफलता के साथ-साथ दोनों समाजों में सौहार्द्र बनाए रखने का भी प्रयास जारी रखा। गाँधीजी का सिद्धांत था कि अन्याय को मिटाना है; अन्याय करने वाले का हृदय परिवर्तन करना है। पाप से घृणा करो, पापी से नहीं; उसे बदलो।

गाँधीजी द्वारा चलाए गए ‘हरिजन सेवक संघ’ का कार्य भारत के हर प्रदेश में चलता रहा जिसका सबसे बड़ा हिस्सा था इस समाज के बालक-बालिकाओं की शिक्षा हेतु छात्रालयों तथा विद्यालयों को चलाने का। आजादी से पहले के जमाने में शासकीय अनुदान तो मिलता ही नहीं था। समाज में चंदा माँग-माँगकर गाँधी-सेवक इस काम को चलाते थे। इसी तरह हजारों छात्रों को शिक्षित किया गया जिनमें से कई आज मन्त्री, सांसद, विधायक, प्रोफेसर, कुलपति, शिक्षक, डॉक्टर, वकील, आई.ए.एस., आई.पी.एस. आदि बने हैं। हरिजन सेवक संघ के ‘भूतपूर्व छात्रों’ के सम्मेलनों में अनेकों ने बताया कि किस तरह गाँधी-सेवकों ने प्यार से उन्हें पाला था, पढ़ाया था और कैसे उन्हें वे अपने माता-पिता से बढ़कर मानते हैं। इन्हीं बालकों में से तिरुवनन्तपुरम केरल के छात्रावास का एक बालक भारत का राष्ट्रपति बना। श्री के.आर. नारायणन ने अपने सम्मान में हरिजन सेवक संघ के दिल्ली परिसर में आयोजित समारोह में भाव भरे शब्दों में कहा था, “अगर गाँधीजी के हरिजन सेवक संघ का वह छात्रावास नहीं होता तो मैं अपने जीवन में कुछ नहीं बनता; आज किसी गाँव में गायें चराता होता।”

जब भारत की संविधान परिषद का गठन हुआ तब हरिजन सेवक संघ के सचिव और महान सेवक श्री ठक्कर बापा गाँधीजी की सलाह से उसके सदस्य बने। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने हेतु ठक्कर बापा ने एक मसविदा तैयार किया, संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के सामने प्रस्तुत किया और उसे स्वीकृत कराने के लिए काफी प्रयास किया। जब वह मंजूर हो गया तो ठक्कर बापा ने ‘मेरा काम हो गया’ कहकर संविधान परिषद से त्यागपत्र दे दिया।

गाँधीजी बहुत अधिक महत्व देते थे, ‘भंगी-मुक्ति’ कार्यक्रम को। सफाई कर्मचारियों के बच्चों की पढ़ाई, उन्हें वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराना तथा उठाऊ-पाखानों का बहाऊ-पाखानों में परिवर्तन आदि कार्य ‘हरिजन सेवक संघ’ द्वारा चलाए गए कार्यों में विशेष स्थान रखते थे। इसी कार्य के लिए जीवन समर्पित करने वाले गुजरात हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष श्री ईश्वरभाई पटेल ‘पद्मश्री’ से विभूषित किए गए हैं।

गाँधीजी उस मन्दिर में नहीं जाते थे जहाँ अस्पृश्यों का प्रवेश वर्जित था। उनका मन्दिर में प्रवेश कराने के अनेकों कार्यक्रम गाँधीजी की प्रेरणा से चलाए गए। केरला के वायकोम मन्दिर-प्रवेश हेतु सत्याग्रह चला जिसके लिए गाँधीजी ने आचार्य विनोबा भावे को भेजा था। मदुरै के मीनाक्षी मन्दिर में प्रवेश-कार्य के लिए माता रामेश्वरी नेहरू पहुँची थीं। इस कार्य में वैद्यनाथ अय्यर आदि सेवकों को पण्डों की लाठियों का शिकार होना पड़ा था। बिहार के वैद्यनाथधाम में हरिजन भाईयों को साथ लेकर प्रवेश करने पर विनोबाजी पर पण्डों ने प्रहार किया था जिससे वे सदा के लिए श्रवणशक्ति खो बैठे थे।

गाँधीजी और डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर के बीच, कुछ मतभेदों के बावजूद, अच्छे सम्बन्ध थे। गाँधीजी के उपवास को समाप्त करने में और ‘पूना पैक्ट’ में डॉ. अम्बेडकर की महत्वपूर्ण भूमिका रही। डॉ. अम्बेडकर ने अपने एक मित्र बताया कि ‘मुझे गाँधीजी ने मन्त्री बनाया।’ आजाद भारत के प्रथम मन्त्रिमण्डल में प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने गाँधीजी के ही आग्रह पर डॉ. अम्बेडकर को मन्त्री बनाया था।

गाँधीजी का एक स्वप्न था कि सफाई कर्मचारी परिवार की कोई लड़की भारत के राष्ट्रपति पद को विभूषित करे। उन्होंने यह भी कहा था कि अगर मुझे दुबारा जन्म लेना पड़ा तो मैं चाहूँगा कि किसी सफाई-कर्मचारी के घर जन्म लूँ।

संपादन व संकलन

आनंद श्री कृष्णन

हिंदी विश्वविद्यालय



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