विकसित भारत 2020अध्याय - 1 ईश्वरी मंडी और मानवीय बाजार

विकसित भारत 2020
अध्याय - 1
ईश्वरी मंडी और मानवीय बाजार

पुंजीवाद के उदय के साथ बाजार का दो मायनों में विस्तार हुआ। पहला, वह भौगोलिक दृष्टि से उन इलाकों में फैला जहां वह न था यानी जहां विनिमय
पारस्परिकता के आधार पर होता था और उत्पादन से जुड़े प्रश्नों के उत्तर बाजार द्वारा नहीं इंगित किए जाते थे। दूसरा, बाजार के दायरे में वे गतिविधियां भी आ गई जो अब तक उससे बाहर थीं। अब उनको माल का रूप दे दिया गया यानी उनको खरीद-फरोख्त की वस्तुओं में बदल दिया गया। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं। संपत्ति का दायरा सिकुड़ने लगा और सामूहिक स्वामित्व और सार्वजनिक उपभोग
की वस्तुओं को भी बाजार के दायरे में ला दिया गया यानी उनकी खरीद- फरोखत होने लगी। उदाहरण के लिए स्वच्छ वायु और पेय जल नि:शुल्क नहीं रह गए ।
शहरों में अगर स्वच्छ वायु चाहिए तो पार्कों में प्रवेश शुल्क देकर जाइए और शुद्ध पेय जल के लिए बोतलबंद पानी खरीदिए या अपने घर में मशीन लगाइए अथवा जल बोर्ड को शुल्क अदा कर स्वच्छ जल प्राप्त कीजिए क्योंकि नदी, तालाब, कुएं और हैंडपंप का पानी पीना निरापद नहीं रहा। 

यहां तक कि पूजा-अर्जना, योगाभ्यास आदि भी नि:शुल्क नहीं रहे । तिरुपति के मंदिर में अगर आप वहां विराजमान देवता के दर्शन करना चाहते हैं और इसके लिए आप घंटों तक पंक्तिबद्ध होकर खड़ा नहीं होना चाहते तो ऊंचे शुल्क अदा करें (दूसरे शब्दों में, देवी-देवताओं तक की पहुंच को भी क्रय - विक्रय के दायरे में ला दिया गया है। 

कोई भी नया कार्य या नई परियोजना आरंभ करने के समय पूजा-पाठ करना आम हो गया है। चुनाव में विजय, मुकदमे में अनुकूल फैसले, बीमारी से निजात,
परीक्षा में सफलता आदि के लिए भगवान या देवी-देवता विशेष का अनुग्रह प्राप्त करना अपरिहार्य होता है। उसके लिए उचित शुल्क और सामग्रियों की व्यवस्था कर सीधे या बिचौलियों के जरिए अपना आग्रह इष्ट देवी- देवता तक पहुंचाया जाता हैं।

इस माल-करण की प्रक्रिया का स्पष्ट और विस्तत वर्णन हमें फ्रेंच साहित्यकार एमिल जोला की कृति लुर्द में मिलता है इसमें आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले फ्रांस में हुई एक घटना का उल्लेख है दक्षिण-पश्चिम फ्रांस में पहाड़ियों की तलहटी में एक तेज बहाव वाली नदी के दोनों किनारों पर बसा नगर है लुर्द। 1858
में तब सुर्खियों में आया जब एक गरीब आटा चक्की वाले की चौदह वर्षीय लड़की बर्नादेत सुबिरो के पास की एक कंदरा में कुमारी मेरी के अनेक बार तथाकथित दर्शन हुए। इसके चार साल बाद तत्कालीन पोप ने इस घटना की सत्यता की पुष्टि करते हुए उस स्थल को एक तीर्थस्थान घोषित कर दिया और पास के झरने में चमत्कारी गुण होने की बात कही।

वर्ष 1876 में वहां एक भव्य गिरजाघर बन गया । देखते ही देखते वहां लोगों को रेला लग गया। झरने के 'चमत्कारी' जल में स्नान कर अपने शारीरिक कष्टों से
मुक्ति पाने के लिए बीमार और अपंग बड़ी संख्या में वहां जुटने लगे हर साल औसतन पांच लाख लोग आने लगे। इन आगंतुकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए
विश्रामालयों, दुकानों, भोजनालयों, परिवहन सुविधाओं, अस्पतालों आदि की व्यवस्था हुई। झरने का जल बोतल बंद कर बेचने का कारोबार पनपा और उससे जुड़े लोग अच्छी-खासी कमाई करने लगे ।

कुमारी मेरी का तथाकथित दर्शन करने वाली लड़की का जन्म 1844 में था और उसकी मृत्यु 1879 में हुई। वर्ष 1933 में तत्कालीन पोप ने उसे संत घोषित
कर दिया और उसकी भी पूजा-अर्चना शुरू हो गई। प्रामाणिक अभिलेखों के उसे दस वर्ष की उम्र में हैजा हुआ और फिर वह दमा और अन्य बीमारियों हुआ
अनुसार से ग्रस्त हो गई जिन्होंने जीवनपर्यंत उसका पिंड नहीं छोड़ा। उसकी दिमागी हालत कभी सामान्य नहीं रही। आज भी उसका शव वहाँं एक चर्च में रखा हुआ है।

वर्ष 1891 में फ्रांस के एक बड़े साहित्यकार एमिल जोला ने बीस कृतियों वाली अपनी उपन्यास-शृंखला की आखिरी कड़ी समाप्त कर पर्यटन द्वारा मन
बहलाव का अपना कार्यक्रम आरंभ किया। इसी क्रम में लुई पहुंच कर उन्होंने जो कुछ देखा उसने उन्हें चिंतित और व्यग्र कर दिया। रात-दिन लगकर उन्होंने 242 पृष्ठों में लुर्द से जुड़ी जानकारियों को सहेजा और एक उपन्यास लिखने का निर्णय
लिया।

लुर्द रहस्यात्मकता की ओर आकर्षण और विज्ञान के प्रति विद्रोह का प्रतीक था जो लाखों की संख्या में लोगों के खिंचे आने से स्पष्ट था। उन्होंने माना कि विज्ञान और अलौकिक शक्ति के परस्पर संघर्ष की यह अभिव्यक्ति थी। उन्हें आश्चर्य हुआ कि लुर्द की यह घटना तब हुई है जब फ्रांस में संशय, श्रद्धाहीनता और बुद्धिवाद का बोलबाला है और दकार्त, वाल्तेयर रूसो आदि से लेकर फ्रांसीसी तक ने चमत्कार और अलौकिक के वर्चस्व का नकारा है। तीर्थस्थान और दैवी चमत्कार के वाणिज्यीकरण ने विस्मय में डाल दिया है। उन्होंने गहराई में जाकर यह मालूम करने का प्रयास किया कि इस धार्मिक उद्यम को कैसे नियोजित ढंग से आरंभ किया गया है।

जोला की मुलाकात एक कैथोलिक लेखक हेनरी लैसे दे मौजो से हुई जो उस लड़की को जानते थे जिसे कुमारी मेरी के कथित दर्शन हुए थे। उन्होंने जोला को
बतलाया कि उस लड़की की दृष्टि सामान्य न थी जिस कारण वह चीजों को भली भांति नहीं देख पाती थी जोला ने इस लेखक से कहा : 'यदि इस बालिका ने इस
प्रकार के संसार को जन्म दिया तो यह इसलिए कि उसने अज्ञात के लिए अंतर्निहित आवश्यकता की ओर ध्यान दिया। आम लोग इस अज्ञात को मतवाद में लपेटते और उससे ईश्वरादिष्ट विक्षिप्त बालिका द्वारा दिव्य दर्शन की घटनाओं की व्याख्या के लिए धर्म में विश्वास की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि उसके कारण एक नगर बसा। पैसों की बारिश होने लगी, लोगों की भीड़ दौड़ी आई तो ऐसा इसलिए हुआ
कि इन घटनाओं ने चमत्कार के लिए हमारी असीम प्रचंड भूख को संतुष्ट किया। हम चाहते हैं कि हमें छला जाए और सांत्वना दी जाए। उसने ऐतिहासिक दृष्टि से अनुकूल घड़ी में अज्ञात का दरवाजा खोला और हर कोई उस ओर लपका।

वर्ष भर के शोध के बाद जोला ने अपने नए उपन्यास लुर्द का श्रीगणेश किया। अलौकिक पर से रहस्य का माया जाल हटाने का अभियान आरंभ हुआ। उन्होंने पाया कि फ्रांस में अठारहवीं सदी से ही बुद्धिवाद की ऐसी आंधी चल रही थी कि अंधविश्वास और धार्मिक भ्रांतियों के पैर उखड़ने लगे थे। विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने वह सब कर दिखाना आरंभ कर दिया था जिसकी इसके पहले कल्पना मात्र ही की जा सकती थी। इस बीच मनोरोगग्रस्त एक छोटी लड़की को कुमारी मेरी के दर्शन की कथित घटना ने चर्च को संजीवनी बूटी देने का काम किया। इस प्रकार उसने अलौकिक को एक बड़े कारोबार का आधार बना दिया। 

तब से अब तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारी प्रगति हुई है। आदमी ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में प्रवेश कर उसकी छानबीन की है। वह चंद्रमा के धरातल पर भी उतरा है। उसने डारविन के क्रमिक विकास के जरिए मानव सृष्टि को समझने की कोशिश की है। हाल में आए शोध के परिणामों के अनुसार केवल हमारा ही ब्रह्मांड नहीं है बल्कि अनेक दूसरे ब्रह्मांड भी हैं। ये सब किसी अलौकिक शक्ति या भगवान के हस्तक्षेप के बगैर बने हैं। इन अनगिनत ब्रह्मांडों के अस्तित्व के पीछे ठोस भौतिक नियम है । 

मगर इन सबको दरकिनार कर एक बड़ी मंडी विकसित की गई है जिसका निरंतर विस्तार हो रहा है। उसमें सर्वशक्तिमान ईश्वर के अतिरिक्त अनगिनत नए- पुराने देवी-देवता और असंख्य विचौलिए हैं जिनकी अपनी दुकानें खुल गई हैं और उन्होंने परब्रह्म और उनकी मंडली में शामिल देवी-देवताओं के साथ अपने तार जीड़ रखे हैं। उचित दक्षिणा लेकर यजमानों की वकालत की जाती है और उनके लिए भौतिक सुख और धनधान्य और आत्मिक शांति के साथ ही परलीक में उचित और सुखद स्थान आरक्षित कराने के वायदे किए जाते हैं। 

आए दिन नए देवी-देवताओं का उदय हो रहा है। और किसी भी अन्य बाजार की तरह बाबा, बापू, अम्मा, योगीराज, संत आदि यजमानों का काम कराने के लिए उचित दक्षिणा लेकर मौजूद हैं। तांत्रिक, हस्तरेखा विशेषज्ञ और ज्योतिषी अपनी सेवाओं के लिए ग्राहक आकर्षित करने के उद्देश्य से प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से धुआंधार विज्ञापन कर रहे हैं। कंप्यूटर से जन्मपत्री बनाने की बात कह कर मासूम लोगों को विश्वास दिलाया जाता है कि विधाता ने ठनके भाग्य में जो कुछ लिखा है उसकी शत-प्रतिशत सही-सही जानकारी सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई क्रांतिकारी प्रगति और परिवर्तनों के फलस्वरूप अब पूर्णरूपेण संभव हो गया है ।

ब्रिटिश पत्रकार विलियम डैलरिम्पल ने एक लेख में किसी भी नए देवता के अस्तित्व में आने और प्रतिष्ठित होने का जो ब्यौरा दिया है वह हमें लुर्द की उपर्युक्त
घटना की याद दिला देता है। उनके अनुसार नवंबर 1998 की एक कोहरा भरी रात को राजस्थान का एक युवा भूस्वामी जोधपुर के निकट तब मर गया जब उसकी तेज रफ्तार चल रही बुलेट मोटर साइकिल दुर्घटनाग्रस्त हो गई। वह स्थानीय निकाय के में अपनी जीत का जश्न मनाकर लौट रहा था और नशे में धुत था। 

मृत ओम सिंह के पिता ने घटना स्थल के पास उसका एक स्मारक बनवाया जहां चबूतरे के ऊपर छतरी बनाकर उसी की मोटर साइकिल रखी गई। चंद दिनों में ही वहां लोगों की भीड़ उमड़ने लगी क्योंकि चमत्कार होने की बात फैली। मृत युवक को देवता घोषित कर दिया गया । दूर - दूर से नि:संतान औरतें आकर मोटर साइकिल पर बैठने और पूजा-पाठ करने लगीं कि उनकी संतान प्राप्ति की मनोकामना पूरी हो। कहा जाने लगा कि उनकी मनोकामना निरपवाद रूप से पूरी होने लगी। देखते ही देखते यह स्थान एक तीर्थ बन गया । ढोल-नगाड़े वाले, फूल-बेल पत्र विक्रेता, अनुष्ठान कराने वाले और चाय-पानी और भोजन सुलभ कराने वाले स्थायी रूप से वहां आ बसे। इस प्रकार वहाँ एक अच्छा-खासा बाजार बस गया।

ओम सिंह के चाचा शैतान सिंह के शब्दों में 'शुरू से सिर्फ उसके परिवारजन और मित्र ही आए परंतु बाद में अन्य लोगों ने यह महसूस कर आना आरंभ किया
कि वहां निश्चित रूप से कोई शक्ति विराजमान है। केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि मुसलमान भी बड़ी तादाद में आने लगे। उस स्थान के पास से गुजरने वाले ट्रक
ड्राइवर वहां रुक कर और चढ़ावा चढ़ा कर जाते हैं हर वर्ष पहले की अपेक्षा कहीं अधिक भीड़ जुटती है।' कहना न होगा कि राजस्थान के इस नवीनतम देवस्थान पर बसों, ट्रकों और विभिन्न प्रकार की अन्य सवारियों से हजारों की संख्या में भक्त आते
हैं। अनेक लोगों का दावा है कि दिवंगत ओम सिंह उनके सपनों में नियमित रूप से आता और उनसे वार्तालाप करता है।

आज भारत में पूजा-अर्चना के पचीस लाख स्थल हैं जबकि केवल पंद्रह लाख स्कूल और पचहत्तर हजार अस्पताल हैं। देश में चलने वाली पैकेज यात्रा में तीर्थाटन का हिस्सा पचास प्रतिशत है। ताजमहल की तुलना में कम दर्शनार्थी तिरुपति स्थित बालाजी मंदिर और जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर में नहीं आते। वर्ष 2008 में बालाजी मंदिर में माथा टेकने के लिए दो करोड़ तीस लाख और माता वैष्णो देवी के दरबार में एक करोड़ 70 लाख से अधिक भक्त पहुंचे। डैलरिम्पल ने एक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए लिखा है कि 2007 में 30 प्रतिशत भारतीयों ने माना कि पिछले पांच सालों में वे अधिक धर्मनिष्ठ हो गए हैं ।

याद रहे कि यह सब कुछ जीवन और समाज में बढ़ती अनिश्चितता का प्रतिबिंबन है। लोग दहशत की भावना से ग्रस्त हो दैवी बीमा पॉलिसी एजेंटों से खरीद रहे हैं जो खरीदारों को आश्वस्त करने में सिद्धहस्त हैं कि दैव उनकी रक्षा करेगा। 

इस तरह एक बड़ा बाजार विकसित हो गया है जहां दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों के निवारण की गारंटी दी जा रही है । दक्षिणा देने के सामर्थ्य के हिसाब से दलाल या बिचौलिए उपलब्ध। इन सबको बढ़ावा देने में कारपोरेट क्षेत्र का ही नहीं बल्कि सरकारी क्षेत्र का भी हाथ है । देव स्थानों के लिए उदारतापूर्वक जमीन दी गई है। यहां तक कि सार्वजनिक भूमि पर तथाकथित आध्यात्मिक
संस्थानों द्वारा अतिक्रमण को नजर अंदाज किया जाता है। जर्मींदारी उन्मूलन के समय अविभाजित बिहार में देवी-देवताओं को रैयत मान उनके नाम जमीन का पट्टा दिया गया था उनको जमीन की खरीद-फरोख्त में पक्ष बनाया गया था अभी हाल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने अयोध्या विवाद में श्रीरामलल्ला विराजमान को भी एक पक्ष मानकर विवादित भूमि में एक-तिहाई हिस्सा दिया है। 

कई कथित दैवी बिचौलिए अनेक अजीबो-गरीब दावे करने और चमत्कार दिखाने में माहिर हैं। एक ने तो यह भी दावा किया है कि वे भारतभूमि से भ्रष्टाचार को सदा-सदा के लिए विदा करने का नुस्खा जानते हैं। 

विज्ञान के दर्शनशास्त्र की ज्ञाता मीरा नंदा ने रेखांकित किया है कि भारत में नवउदारवादी आर्थिक चिंतन और भूमंडलीकरण का दबदबा बढ़ने के साथ ही हिंदू
धार्मिक ज्वार उठने लगा है। विशेष रूप से मध्यमवर्गीय हिंदू उसकी चपेट में है। 'राज्य-मंदिर-कारपोरेट गठजोड़' के आगे बढ़ने से धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक संस्थान महत्वहीन बनते जा रहे हैं । 'दूसरे शब्दों में, विनिमयनकारी व्यवस्था ने आकर
नवउदारवादी बाजार व्यवस्था को बढावा दिया है जिससे भारत की ईश्वर मंडी धार्मिक अनुष्ठान सेवाओं की मांग और पूर्ति को काफी बढ़ावा मिला है।

धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने के बावजूद राज्य ने ईश्वर मंडी को सुदृढ़ करने के लिए भूमि-आवंटन और अनुदान सहित अनेक प्रकार की मदद दी है। नए मंदिरों के निर्माण और पुजारियों के वेतन के लिए सरकारी खजाने का इस्तेमाल बेझिझक हो रहा है। सरकार ने अपने ही द्वारा बनाए गए नियम-कानूनों को धता बताने में कोई हिचक नहीं दिखाई है।

ईश्वर मंडी में आने वाले गरीब और धनी, दोनों ही होते हैं। गरीब जहां अपनी विपन्नता और उससे उत्पन्न कष्टों से निजात चाहते हैं, वहीं अमीर अपेक्षाकृत अधिक धनवान बनना चाहते हैं। दोनों ही भावी अनिश्चितता के शिकार होते हैं। इसलिए दोनों ईश्वर मंडी में भटकते मिलते हैं । वे ईश्वर और देवी-देवताओं के अनुग्रह को उनके विक्रेताओं, थोक और खुदरा से प्राप्त करना चाहते हैं।

ईश्वर मंडी का विस्तार वैसे ही होता है जैसे आम बाजार का। उसका पूरा क्षेत्र संगठित नहीं होता। उसका विस्तार गली-कूचों में भी होता है जैसे छोटी-छोटी दुकानें पटरियों से लेकर गलियों तक में दिखती हैं । पहले फोटो या पत्थर रख कर भगवान या देवी-देवता की दुकान की शुरुआत की जाती है और जैसे-जैसे आय बढ़ती है, निवेश की क्षमता में वृद्धि होती है और भव्य मंदिर और उससे जुड़े तामझाम के निर्माण में पूंजी लगाई जाती है । लुर्द की तरह ही वहां अन्य मालों के विक्रेता भी आते हैं। 

व्यवसायी हों या राजनेता या फिर अफसर अथवा बाहुबली, सब ईश्वर मंडी में चढ़ावा चढ़ा या भव्य कार्यक्रमों के आयोजन का सहारा ले अपनी छवि को चमकाने की कोशिश करते हैं। एक हद तक धन बटोरने या अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए अपने द्वारा अपनाए गए संदेहास्पद तौर-तरीकों पर परदा डालने की कोशिश करते हैं। यह बात जोर-शोर से प्रचारित की जाती है कि उनकी धन-दौलत या व्यवसाय में वृद्धि भगवत कृपा का परिणाम है। वे शोषक नहीं हैं बल्कि दयालु हैं। इसलिए मजदूरों और अन्य कर्मियों को उनके साथ झगड़ा नहीं करना चाहिए। इस प्रकार ईश्वर मंडी आम बाजार का अंग बन जाती है । 

अनेक व्यापारी, राजनेता, बाहुबली अथवा अफसर अपने दैनिक कार्यक्रम की शुरुआत देवी-देवता की वंदना या पूजा- अर्चना के साथ करते हैं क्योंकि वे चाहते हैं कि उनके इष्ट देव सदा उनके कार्यों में, बिना यह देखे कि वे गलत हैं या सही, सहायक बने रहें । 

ईश्वर मंडी के साथ ही मानव बाजार भी बड़ी तेजी से फैला है। लोगों को गुलाम बनाकर काम कराने की प्रथा बहुत पुरानी है। दासता और सामंती व्यवस्था के दौरान दासों या कृषि कर्मियों का आगमन इसलिए हुआ कि उत्पादक शक्तियों में परिणामात्मक और गुणात्मक उन्नति के कारण अधिशेष उत्पादन की संभावना काफी बढ़ी। लेकिन आधुनिक पूंजीवाद के उदय के बाद उत्पादन के साधनों और उत्पादक
शक्तियों के विस्तार को देखते हुए मजदूरों की कमी महसूस की जाने लगी। इसको पूरा करने के लिए अफ्रीका और एशिया के देशों से जोर-जबर्दस्ती और बहका- फुसला कर मजदूरों को उन देशों में लाने का धंधा शुरू हुआ जहां पूंजीवादी व्यवस्था तेजी से विकसित हो रही थी। अफ्रीका को एक प्रकार से गुलामों की मंडी के रूप में तब्दील कर दिया गया। वहां से लोगों को पकड़कर जबर्दस्ती पश्चिम यूरोप और
उत्तरी अमरीका के देशों में लाया जाने लगा। वहां उनकी खरीद-फरोख्त होने लगी और उनसे बागानों और कारखानों में काम कराया जाने लगा। 

एशिया से अपढ़ लोगों को बहका-फुसला कर अंग्रेज, डच, फ्रेंच आदि अपने उपनिवेशों में ले गए। वहां उन्हें लगभग गुलाम बतौर गरन्ने और अन्य बागानों में काम पर लगाया जाता रहा। मौरिसस, फिजी, वेस्ट इंडीज, गुयाना, सूरिनाम, दक्षिण अफ्रीका आदि में उनके वंशज आज भी काफी संख्या में हैं। 
यद्यपि गुलामों की खरीद-फरोख्त का यह धंधा काफी कुछ खत्म हो गया। फिर भी मानव मंडी फल-फूल रही है। आज भी गरीब देशों और इलाकों से बच्चों और स्त्रियों को खरीद कर काम कराने, वेश्यावृत्ति में लगाने, या कई खाड़ी देशों में ऊंट-दौड़ में मनबहलाव के लिए ले जाया जाता है । भारत के कई महानगरों में बालिकाओं को उनके गरीब मां-बाप से खरीद कर वेश्यालयों में ढकेलने का धंधा अनेक कानूनों के बाद भी जारी है । इतना ही नहीं, भारत में बाल-श्रमिकों का इस्तेमाल अब भी कई प्रकार के उत्पादन में जारी है यद्यपि यह गैर कानूनी है और आए दिन छापे मारकर उन्हें मुक्त कराने का सिलसिला भी जारी है। कहना न होगा कि यह सब तब तक नहीं रुक सकता जब तक उन आर्थिक कारकों का निराकरण न हो जो मनुष्य को खरीद-फरोख्त की वस्तु बनने पर मजबूर करते हैं । 

मानव रक्त और अंग-प्रत्यंगों का बाजार भारत समेत अनेक विकासशील देशों में बड़ी तेजी से बढ़ और फल-फूल रहा है । औसत आयु बढ़ने और खान-पान और रहन-सहन में बदलाव के कारण लीवर, गुर्दा, हृदय आदि तेजी से खराब होने लगे हैं। उनके प्रत्यारोपण की तकनीक विकसित हुई है देशी- विदेशी, धनी-धनाढय अपने खराब अंग-प्रत्यंगों को निकलवा कर नए का प्रत्यारोपण करवा रहे हैं। स्वेच्छया अंग-प्रत्यंग दान देने वालों की कमी है इसलिए जोर-जबर्दस्ती अथवा लालच देकर अंग-प्रत्यंग प्राप्त किए जाने का सिलसिला जारी है। इसमें काफी बड़ी संख्या में डाक्टर और अन्य, बिचौलियों की भूमिका में कार्यरत हैं। भारी मात्रा में पैसों का लेन-देन होता है। बहुत कुछ यही कुछ रक्तदान के ऊपर भी लागू है। सरकारी कानून-कायदों के बावजूद रक्त की खरीद-फरोख्त धड़ल्ले से जारी है।

कहना न होगा कि आज की दुनिया में बाजार सर्वशक्तिमान बन गया है और कोई भी जगह यह कार्यकलाप नहीं है जहां उसका वर्चस्व नहीं बढ़ रहा है। राजनीति, साहित्य, संस्कृति आदि सब क्षेत्रों में खरीद- फरोख्त हो रही है भले ही वह कानून की नजर में अवैध हो । वोट, संसद में सवाल पूछने, लाॉबिंग, ठेके और करार, तरह-तरह की नियुक्तियों, पुरस्कार और अलंकरण आदि कोई भी क्षेत्र लें खरीद-फरोख्त का बोलबाला है।

संपादन व संकलन:

आनंद श्री कृष्णन

एम.एस.डब्लू., एम. बी. ए

हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

संदर्भ और टिप्पणियां
1. फ्रेडरिक ब्राउन, जोला-ए-लाइफ, बाल्टीमोर, 1996, पृ. 679.
2. स्टीफेन हॉकिंग और लियोनार्ड म्लोडिनाउ, दि ग्रैंड डिजायन, लंदन, 2010, पृ. 8-9.
3. न्यू स्टेट्समैन, 17 दिसंबर, 2009.
4. मीरा नंदा, दि गाँड मार्केट, नोएडा, 2009, पृ. 3.



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