महात्मा गांधी की धार्मिक दृष्टिकोण - सत्य ही ईश्वर है


प्रस्तावना

मैं ऐसा मानता हूँ कि मेरे सब प्रयोगों का पूरा लेखा जनता के सामने रहे, तो वह लाभदायक सिद्ध होगा अथवा यों समझिये कि मेरा मोह है। राजनीति के क्षेत्र में हुए प्रयोगों को तो अब हिन्दुस्तान जानता है, लेकिन मेरे आध्यात्मिक प्रयोगों को, जिन्हें मैं जान सकता हूँ, और जिनके कारण राजनीति के क्षेत्र में मेरी शक्ति भी जन्मी है, उन प्रयोगों का वर्णन करना मुझे अवश्य ही अच्छा लगेगा। अगर ये प्रयोग सचमुच आध्यात्मिक हैं तो इनमें गर्व करने की गुंजाइश ही नहीं। इनमें तो केवल नम्रता की ही वृद्धि होगी। ज्यों-ज्यों मैं अपने भूतकाल के जीवन पर दृष्टि डालता जाता हूँ, त्यों-त्यों अपनी अल्पता स्पष्ट ही देख सकता हूँ।

मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर-भाव से रट लगाये हुए हूँ वह तो आत्मदर्शन है,. ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है; और मेरा राजनीति के क्षेत्र में पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है। लेकिन ठेठ से ही मेरा यह मत रहा है कि जो एक के लिए शक्य है, वह सबके लिये भी शक्य है। इस कारण मेरे प्रयोग खानगी नहीं हुए-नहीं रहे। उन्हें सब देख सके, तो मुझे नहीं लगता कि उससे उनकी आध्यात्मिकता कम होगी। ऐसी कुछ चीजें अवश्य हैं कि जिन्हें आत्मा ही जानती है, जो आत्मा में ही समा जाती हैं परन्तु ऐसी वस्तु देना, यह मेरी शक्ति से परे की बात है। मेरे प्रयोगों में आध्यात्मिकता का मतलब है नैतिक, धर्म का अर्थ है नीति; आत्मा की दृष्टि से पाली गयी नीति ही धर्म है।

इसलिये जिन वस्तुओं का निर्णय बालक, नौजवान और बूढ़ें करते है और कर सकते है, इस कथा में उन्हीं वस्तुओं का समावेश होगा। अगर ऐसी कथा में मैं तटस्थ भाव से निरभिमान रहकर लिख सकूँ, तो उसमें से दूसरे प्रयोग करने वालों को कुछ सामग्री मिलेगी। इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की सम्पूर्णता का दावा नहीं करता। जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियमपूर्वक, विचारपूर्वक और बारीकी से करता है, फिर भी उसमें उत्पन्न परिणामों को वह अन्तिम नहीं करता अथवा वे परिणाम सत्य ही हैं, इस बारे में मेरा भी वैसा ही दावा है मैंने खूब आत्मनिरीक्षण किया है; एक-एक भाव की जाँच की है, उसका पृथक्करण किया हैं। किन्तु उसमें से निकले हुए परिणाम सबके लिये अन्तिम ही है, वे सच हैं अथवा वे ही सच है ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता। हाँ यह दावा मैं अवश्य करता हूँ कि मेरी दृष्टि से ये सच हैं और इस समय तो अन्तिम जैसे ही मालूम होते हैं। अगर न मालूम हो तो मुझे उनके सहारे कोई भी कार्य खड़ा नहीं करना चाहिये। लेकिन मैं तो पग-पग पर जिन-जिन वस्तुओं को देखता हूँ उनके त्याज्य और ग्राह्य-ऐसे दो भाग कर लेता हूँ, और जिन्हें ग्राह्य समझता हूँ, उनके अनुसार अपना आचरण बना लेता हूँ। और जब तक इस तरह बना हुआ आचरण मुझे, अर्थात् मेरी बुद्धि को और मेरी आत्मा को सन्तोष देता है , तब तक मुझे उसके शुभ परिणामों के बारे में अविचलित विश्वास रखना ही चाहिए।

मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि उनमें बतायें गये प्रयोगों को दृष्टान्तरूप मानकर सब अपने-अपने प्रयोग यथाशक्ति करें। मुझे विश्वास है कि इस संकुचित क्षेत्र में आत्मकथा के मेरे लेखों से बहुत कुछ मिल सकेगा; क्योंकि कहने योग्य एक भी बात मैं छिपाऊँगा नहीं। मुझे आशा है कि मैं अपने दोषों का खयाल पाठकों को पूरी तरह दे सकूँगा। मुझे सत्य के शास्त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना हैं; मैं कितना भला हूँ, इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं होती है। जिस गज से स्वयं मैं अपने को मापना चाहता हूँ जिसका उपयोग हम सबको अपने-अपने विषय में करना चाहिये, उसके अनुसार तो मैं अवश्य कहूँगा कि ‘उनसे’ तो अभी मैं दूर हूँ।

चल पड़े जिधर दो डग जग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर।' 

गांधीजी का देशभक्तों की पंक्ति में सबसे ऊंचा स्थान है। इतना होते हुए भी गांधी की देशभक्ति मंजिल नहीं, अनन्त शान्ति तथा जीव मात्र के प्रति प्रेमभाव की मंजिल तक पहुंचने के लिए यात्रा का एक पड़ाव मात्र है।
 
गांधीजी ने कहा- 'जिस सत्य की सर्वव्यापक विश्व भावना को अपनी आंख से प्रत्यक्ष देखना हो उसे निम्नतम प्राणी से आत्मवत प्रेम करना चाहिए।' जीव मात्र के प्रति समदृष्टि/जीव मात्र के प्रति आत्मतुल्यता के जीवन दर्शन से सत्य, अहिंसा एवं प्रेम की त्रिवेणी प्रवाहित होती है।
 
'वैष्णव जण तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे'
 
दक्षिण अफ्रीका और भारत में उन्होंने सार्वजनिक आन्दोलन चलाए। इन जन आन्दोलनों से उन्होंने सम्पूर्ण समाज में नई जागृति, नई चेतना तथा नया संकल्प भर दिया। उनके इस योगदान को तभी ठीक ढंग से समझा जा सकता है जब हम उनके मानव प्रेम को जान लें, उनके सत्य को पहचान लें, उनकी अहिंसा भावना से आत्मसाक्षात्कार कर लें।
 
गांधीजी के शब्दों में :- 'लाखों-करोड़ों गूंगों के हृदयों में जो ईश्वर विराजमान है, मैं उसके सिवा अन्य किसी ईश्वर को नहीं मानता। वे उसकी सत्ता को नहीं जानते, मैं जानता हूं। मैं इन लाखों-करोड़ों की सेवा द्वारा उस ईश्वर की पूजा करता हूँ जो सत्य है अथवा उस सत्य की जो ईश्वर है।'

सत्य ही ईश्वर है

सत्य ही ईश्वर है- सत्य ही धरती पर ईश्वर का अवतरण है। सत्य की साधना, सत्य का ध्यान, सत्य की उपासना, सत्य

सत्य ही ईश्वर है- सत्य ही धरती पर ईश्वर का अवतरण है। सत्य की साधना, सत्य का ध्यान, सत्य की उपासना, सत्य की प्रार्थना और सत्य का ही आचरण हर मनुष्य का धर्म है। क्योंकि सत्य चलने के लिए मार्ग है। सत्य देखने के लिए आंख है। सत्य सुनने के लिए कान है। सत्य ध्यान के लिए ध्येय है। सत्य जीने के लिए सम्बल है। सत्य साधना के लिए साध्य है। सत्य आचरण के लिए धर्म है और सत्य उपासना के लिए ईश्वर है।महात्मा गांधी के पहले के सभी धार्मिक और आध्यात्मिक विचारकों और विभूतियों ने ईश्वर को सत्य स्वीकार किया था परंतु महात्मा गांधी ने सत्य को ही ईश्वर घोषित किया। वे ईश्वर राम को मन, वचन और कर्म से सत्य के रूप में देखते थे। उनके आचरण में सत्यता थी।लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व एक राजकुमार सिध्दार्थ गौतम अपनी पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल तथा अपना राज-पाट छोड़कर सत्य की खोज और दु:खों से छुटकारा पाने के लिए साधु हो गया। चालीस वर्ष तक काम-वासना पर विजय पाने के लिए तप किया, साधना की और गौतम बुध्द बनकर दुनिया को मायाजाल से मुक्त होने का संदेश दिया। उन्होनें सारी दुनिया को सत्य और अहिंसा की शिक्षा दी।गांधी जी ने सत्य और अहिंसा के बल पर भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाई थी। वे जानते थे कि सत्य ही परमात्मा का प्रतीक है।स्वामी दयानंद सरस्वती को सत्य की खोज में घर-बार छोड़ना पड़ा। कई बार उन्हें जहर भी पीना पड़ा परंतु उन्होंने सत्य का दामन नहीं छोड़ा। गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, गुरुनानक, मीराबाई आदि सभी ने सत्य को ईश्वर के रूप में देखा और अमर हो गए। सत्य पर अडिग रहने के कारण सत्यवादी हरिश्चन्द्र ईश्वर के दर्शन कर सके और मुक्त हो गए।हम सब सत्यनारायण की कथा कहलवाते हैं- सुनते हैं- पर सत्य का आचरण नहीं करते। सत्य का आचरण करने पर ही ईश्वर के दर्शन होते हैं जैसे ध्रुव और प्रहलाद को हुए थे। सत्य का आचरण करें- ईश्वर के दर्शन होंगे। ईश्वर की महिमा अपार है कबीरदास जी कहते हैं-सात समन्दर की मसि करौं, लेखन सब बनराई।धरती सब कागद करौं, हरिगुन लिखा न जाई॥ईश्वर तो हर प्राणी में है उन्हें खोजने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। वे कहते हैं-ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबा, कैलाश में।मुझको कहां ढूंढे रे, बन्दे, मैं तो तेरे पास में॥सत्य सदाशिव होता है और शिव सुन्दर होता है, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ही तो ईश्वर है।

ईश्वर सत्य है।

वाल्मीकि रामायण में लिखा है, सत्यमवेश्वरो लोके सत्ये धर्म: सदाश्रित:। लोक में सत्य ही ईश्वर है। धर्म सदा सत्य में ही रहता है। वेद, शास्त्र एवं पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है। सच बोलने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि तुम्हें याद नहीं रखना पड़ता कि तुमने किससे कहां क्या कहा था। झूठ में आकर्षण हो सकता है, पर स्थिरता तो सत्य में है। सत्य वचन सुनने और बोलने से बढ़कर आनंदप्रद और कुछ भी नहीं है। महात्मा गांधी ने कहा है कि सत्य से भिन्न कोई परमेश्वर है, ऐसा मैंने कभी अनुभव नहीं किया। उन्होंने तो अपनी आत्मकथा का नाम ही 'सत्य के प्रयोग' रखा। मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर झूठ बोलता है। बालक अपने शैशवकाल में सत्य ही बोलता है, पर हम अपने स्वार्थवश उसे असत्य की राह पकड़ा देते हैं। सत्य का मार्ग तलवार की धार के समान है। उस पर चलते समय बहुत सावधानी रखनी पड़ती है। गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब वह स्कूल में पढ़ते थे, तब स्कूल में छुट्टी के बाद अपराह्न में पीटी (फिजिकल ट्रेनिंग) होती थी। एक बार वे अपने घर से पीटी के लिए निकले। उनके पास घड़ी नहीं थी और आकाश में बादल छाए हुए थे। समय का सही-सही अंदाजा नहीं होने के कारण वे लेट हो गए। जब वे स्कूल पहुंचे तब तक उनके सभी सहपाठी जा चुके थे। अगले दिन अध्यापक ने उनको अनुपस्थित मानकर दंड दिया। गांधीजी को बहुत दुख हुआ कि वे स्कूल भी आए और झूठे भी कहलाए। इस पर उन्होंने लिखा है, एक सत्यार्थी को सत्य के लिए सावधानी भी रखनी चाहिए। सत्य का मतलब सिर्फ दूसरों का भंडाफोड़ करना नहीं होता। किसी की पोल नहीं खोलनी है। अंधे को अंधा और काणे को काणा कहना तथ्य हो सकता है, पर सत्य नहीं हो सकता। तथ्य जब अहितकर होता है, तब वह असत्य बन जाता है। लिखना, बोलना और बातों को उसी रूप में कह देना सत्य नहीं है। उसके पीछे सत्य के प्रति अनुराग, भावना, प्रेरणा और चिंतन भी चाहिए। हम राजदंड, समाज, नाटक आदि के भय से नहीं, बल्कि कर्तव्य की भावना से प्रेरित हो कर चलें। सत्यनिष्ठ साधक दुखों से घिरा रहकर भी घबराता नहीं और न विचलित ही होता है। गीता में लिखा है, जो असत् है उसका कभी जन्म नहीं हो सकता और जो सत्य है उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। सत्य को संसार में सर्वोपरि समझें। कौवे को कुटिल, मलिन और चालाक माना जाता है, पर वह उनसे अच्छा है जो बाहर से साफ दिखाई देते हैं, मगर आंतरिक रूप से कलुषित मन वाले हैं। कौवा तो अंदर बाहर से एक समान काला है। कम से कम धोखा तो नहीं देता। 'बाहर से उजला सदा भीतर मैला अंग, ता सेती कौवा भला तन मन एक ही रंग।' चाणक्य ने लिखा है- सत्य से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही वायु चलती है। सत्य से सूरज तपता है, सारा जगत भी सत्य के कारण टिका है। एक राजा भगवान महावीर का परम भक्त था। एक बार राजा शिकार खेलने के लिए वन में गया। वहां उसके वाण से एक गर्भवती हिरणी मारी गई। राजा को इसका बेहद पश्चाताप हुआ। वह प्रायश्चित करने के लिए भगवान महावीर के पास गया। महावीर ने कहा, तुम्हारे राज्य में काल सौमरिक नाम का एक कसाई रहता है। वह प्रतिदिन सैकड़ों भैंसों का वध करता है। यदि तुम उस कसाई से एक दिन के लिए यह रक्तपात रुकवा दोगे तो तुम्हारा नरक में जाना टल जाएगा। राजा ने उसे गिरफ्तार कर मँगवाया और उसे एक सूखे कूप में डलवा दिया। अब भला वह वध कैसे करेगा? फिर तसल्ली के लिए उसे देखने खुद पहुँचा। देखा, वह वहां अंध कूप में भी भैंसों की आकृति बनाकर उनको काट रहा है। इस तरह उसका हिंसा नहीं करना तथ्य है, पर सत्य नहीं। सत्य को सिर्फ आचरण में ही नहीं, भावना में भी प्रकट होना चाहिए।

धर्म का मूल सत्य है !

टेढ़े-मेढ़े रास्ते अनेक हो सकते हैं। दो बिंदुओं को मिलाने वाली सीधी रेखा एक ही होती है। एक से ज्यादा नहीं हो सकतीं। ठीक इसी प्रकार आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाला या अनुभूति करवाने वाला धर्म भी एक ही हो सकता है। जो मानव मात्र ही नहीं प्राणी मात्र के प्रति बिना किसी भेद भाव के न्याय युक्त ढंग से सब का हित व कल्याण करने वाला हो।

ऐसी सर्वहितकारी भावना वैदिक सनातन धर्म में निहित है। मानव मात्र का धर्म वही हो सकता है जो सृष्टि के आरंभ से चला आया हो। यदि हम सृष्टि की रचना के करोड़ों वर्षों बाद में चलें धर्म को मानव धर्म मान भी लें तब हमें यह मानना ही पड़ेगा कि सृष्टि के आदि से चला हुआ धर्म ही मानव मात्र का धर्म हो सकता है।

यह धर्म सृष्टि के आरंभ में ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु आदित्य व अंगिरा के हृदय में क्रमशः चारों वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद के ज्ञान का प्रकाश किया। उन चारों ने उस वेद ज्ञान को आम लोगों में उच्चारित करके सुनाया, लोगों ने उस ज्ञान को सुनकर कंठस्थ कर लिया और अपनी संतानों को सुनाते रहे। इस प्रकार यह क्रम करोड़ों वर्षों तक चला। फिर ये लिपिबद्ध कर दिए गए। इसीलिए वेदों को श्रुति भी कहते हैं यानि सुनकर याद किया हुआ ज्ञान।

वेद ज्ञान एक प्रकार की आचार संहिता है जिससे मनुष्य अपने कर्तव्य का बोध करता है उसे अपने जीवन में क्या काम करने चाहिए और क्या काम नहीं करने चाहिए, इसका बोध वेद करवाते हैं। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक कोई यंत्र तैयार करता है और फिर उस यंत्र का प्रयोग किस प्रकार किया जाएगा, उसकी एक लघु पुस्तिका तैयार करता है जिसको पढ़कर मनुष्य उसका सुचारू रूप से प्रयोग कर सके और उसका रखरखाव का ढंग भी जान सके।

ठीक इसी प्रकार ईश्वर ने जब मनुष्यों के लिए यह सृष्टि रची तब पहले उसने आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, पेड़, पौधे व वनस्पतियां आदि बनाईं, फिर मनुष्य को एक इस प्रकार का ज्ञान दिया जिससे वह स्वयं भी सुखी रह सके और दूसरों को भी सुखी रख सके। साथ ही मनुष्य के चार पुरुषार्थ जिससे काम को करते हुए उसका अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त हो सके, यह सब ज्ञान देने के लिए ईश्वर ने चार वेदों के ज्ञान का प्रकाश किया। इस प्रकार वैदिक धर्म सृष्टि के आदि से चला हुआ धर्म है।

ईश्वर सृष्टि का रचयिता है इसलिए हम सबका पिता है और सारे जीवन उसके पुत्रवत हैं। पिता अपने पुत्रों में कभी भी भेदभाव नहीं रखेगा। वह जो कुछ करेगा वह सबके हित के लिए करेगा। इसलिए वैदिक धर्म किसी एक वर्ग समुदाय, जाति व राष्ट्र के लिए नहीं अपितु मानव मात्र के हित व कल्याण के लिए है। वैसे तो यह धर्म प्राणी मात्र के हित के लिए है परंतु मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। इसको अन्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धि विशेष रूप से अधिक दी है जिससे अच्छे बुरे का विचार व चिंतन मनन कर सके और जो अपने तथा दूसरों के हित में हो वह काम कर सके और जो दोनों के हित में न हो वह न करे।

इसलिए मनुष्य को ही अच्छे करते हुए मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार दिया है। अन्य प्राणी सिर्फ भोग योनियों में जन्म लेते हुए मनुष्य योनि तक पहुंच सकते हैं। मनुष्य योनि कर्म करने में स्वतंत्र और फल पाने में परतंत्र है और यह योनि कर्म व भोग दोनों है। अन्य पशु-पक्षी, कीट व पतंग सिर्फ भोग योनि हैं वह सिर्फ अपने किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं। इनको कर्म करने की स्वतंत्रता नहीं है। इसीलिए मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। वस्तुतः मोक्ष मानव के कर्मों का फल होता है। मोक्ष सिर्फ मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है। मोक्ष प्राप्त करना मनुष्य की पूर्ण सफलता है। इसलिए हर मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।

ईश्वर भी मनुष्य को पृथ्वी पर इसीलिए भेजता है कि तू अपने सद्विचार, सद्व्यवहार, सद् आचार और सद्आहार से अपने आपको सुखी रखता हुआ साथ ही दूसरे प्राणियों को भी सुखी रखता हुआ मोक्ष के परम आनंद को प्राप्त कर। इस प्रकार वेद मानव को मोक्ष प्राप्त होने तक की शिक्षाओं वे उपदेशों का संग्रह है।

इसमें किसी के प्रति भेदभाव या पक्षपात नहीं है, यह सबके हित और भलाई के लिए है। जैसे ईश्वर के बनाए हुए सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि आदि सबके लिए हैं वैसे ही वेदों का ज्ञान भी सबके लिए है। यह प्राणी मात्र की आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझने की शिक्षा देता है इसलिए सबसे प्रेम रखना सिखाता है और 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' का पाठ पढ़ा कर विश्व को एक परिवार के समान समझने की प्रेरणा देता है। 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्या' अर्थात्‌ पृथ्वी सबकी माता है और हम उसके पुत्र हैं कह कर मानव मात्र को परस्पर भाईचारे का संदेश देता है।

वस्तुतः धर्म कोई बाहरी चिह्न व आडंबर का नाम नहीं है बल्कि उन शाश्वत गुणों का नाम है जिनको जीवन में धारण करने से मनुष्य स्वयं तो सुखी बनकर उन्नति व समृद्धि की ओर अग्रसर होता ही है साथ ही अन्य प्राणियों को भी सुखी बनाता है। जैसे सत्य बोलना, सद्व्यवहार करना, किसी से द्वेष, ईर्ष्या व घृणा न करना, परोपकार करना आदि।

यह सभी गुण पूर्ण रूप से वैदिक धर्म में मिलते हैं। जिसमें सत्य प्रतिष्ठित है इसीलिए वह- 'सत्यं शिवं सुंदरं' को चरितार्थ कर लोकधर्म बन गया।

असत्य का सहारा क्यों?

मनुष्य अनेक कारणों से असत्य बोला करता है, उनमें से एक तो झूठ बोलने का प्रधान कारण लोभ है। लोभ में आकर मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये असत्य बोला करता है।

असत्य भाषण करने का दूसरा कारण भय है। मनुष्य को सत्य बोलने से जब अपने ऊपर कोई आपत्ति आती हुई दिखाई देती है। अथवा अपनी कोई हानि होती दिखती है। उस समय वह डरकर झूठ बोल देता है, झूठ बोलकर वह उस विपत्ति या हानि से बचने का प्रयत्न करता है।

असत्य बोलने को तीसरा कारण मनोरंजन भी है। बहुत से मनुष्य हंसी मजाक में कोतूहल के लिये भी झूठ बोल देते हैं। दूसरे व्यक्ति को भ्रम में डालकर या हैरान करके अथवा किसी को भय उत्पन्न कराने के लिये या दूसरे को व्याकुलता पैदा करने के लिये झूठ बोल देते हैं। इसी से उनका मनोरंजन होता है।

इसके सिवाय क्रोध में आकर मनुष्य ऐसे कुवचन, गाली गलौज मुख से निकाल बैठता है जिनको सुनकर जनता में क्षोभ फैल जाता है, निर्बल मनुष्य का हृदय तड़प उठता है, बलवान मनुष्य को वैसे दुर्वचन सुनकर क्रोध उत्पन्न हो जाता है जिससे कि बहुत भारी दंगाफसाद हो जाता है, मारपीट हो जाती है, यहाँ तक कि मरने मारने की भी तैयारी हो जाती है।

अभिमान में आकर भी मनुष्य दूसरों को अपमानजनक असह्म वचन कह डालता है जिससे सुनने वाला यदि शक्तिशाली मनुष्य होता है तो वह भी उत्तर में उनसे भी अधिक अपमानकारक वचन कह डालता है। यदि सुनने वाला व्यक्ति कमजोर दीन दुःखी होता है तो उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, उसको मार पीट से भी अधिक दुख होता है। तलवार का घाव तो मरहम पट्ठी से अच्छा हो जाता है किंतु वचन का घाव अच्छा नहीं होता।

द्रौपदी ने दुर्योधन को व्यंगरूप से इतना कह दिया था कि ‘अंधे (धृतराष्ट्र राजा दुर्योधन का पिता) का पुत्र भी अच्छा है।‘ यह बात दुर्योधन को लग गई और इसका बदला लेने के लिए उसने जुए में पांडवों से द्रौपदी को जीतकर अपनी सभा में अपमानित किया, उसकी साड़ी उतार कर सबके सामने उसने द्रौपदी को नंगा करना चाहा। इसी असह्म अपमान का बदला लेने के लिए कौरव पांडवों का महायुद्व हुआ जिसमें दोनांे ओर की बहुत हानि हुई, सभी कौरव योद्धा मारे गये।

इस तरह के अन्य व्यक्ति को दुखकारक, निंदाजनक, पापवचन भी असत्य में सम्मिलित है, इस कारण सत्यवादी मनुष्य को ऐसे वचन भी मुख से उच्चारण न करने चाहिए।

गांधी के अलावा आचार्यों ने असत्य वचन छह प्रकार के बतलाये है-

(१) मौजूद चीज को गैर मौजूद कहना। जैसे घर में नेमीचंद बैठा है, फिर भी बाहर द्वार पर किसी ने पूछा कि ‘नेमीचंद है ? तो उत्तर में कह दिया कि ‘वह यहाँ नहीं है।‘

(२) गैर मौजूद वस्तु को मौजूद बतला देना। जैसे कि नेमीचंद घर में नहीं था फिर भी किसी ने पूछा कि नेमीचंद घर में है क्या ? तो उत्तर में कह दिया कि ‘हाँ घर में हैं।‘

(३) कुछ का कुछ कह देना। जैसे घर में विमलचंद था। किसी ने पूछा कि घर में कौन हैं तो उत्तर में कह दिया कि नेमिचंद है।

(४) गर्हित दूसरे को दुखदायक हंसी मजाक करना, चुगली करना, गाली गलौज देना, निन्दाकारक बात कहना। जैसे तेरे कुल में बुद्धिमान कोई हुआ ही नहीं फिर तू मूर्ख है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।

(५) सावद्य-पाप सूचक या पापजनक शब्द उच्चारण करना। जैसे-तेरा सिर धड़ से अलग कर दूँगा तुझे कच्चा खा जाऊँगा। तेरे घर बार को आग लगा कर तुझे जीवित जला दूँगा। इत्यादि।

(६) अप्रिय-दूसरे जीवों को डराने वाले, द्वेष उत्पन्न करने वाले, क्लेश बढ़ाने वाले, विवाद बढ़ाने वाले क्षोभजनक शब्द कहना। जैसे-निर्दय डाकुओं का दल इधर आ रहा है, वह सारे गाँव को लूट मार कर जला देगा।

ऐसे वचनों से कभी-कभी बड़ी अशांति और महान् अनर्थ फैल जाता है। झूँठ बोलने वाले मनुष्य के वचन पर किसी को विश्वास नहीं रहता, अतः वह कभी सत्य भी बोले तो भी सुनने वाले उसे असत्य ही समझते हैं।

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बहुत से लोग अपने छोटो बच्चों के साथ झूठ बोल कर अपना चित्त बहलाया करते हैं परंतु बच्चों का हृदय कोमल स्वच्छ निर्मल होता है उस पर जैसे संस्कार माता-पिता जमाना चाहें वैसे जमा सकते हैं। तदनुसार जो बात मनोरंजन के लिये बच्चों से की जाती है बच्चे उसको सत्य समझ कर अपने हृदय में धारण कर लेते हैं। इस कारण मनोरंजन के लिये भी बच्चों से झूँठ नहीं बोलना चाहिए।

मुख से प्रमाणिक सत्य, स्व-परहितकारी मीठे वचन बोलने चाहिए, अपने नौकर चाकरों से, भिखारी, दीन, दरिद्र, व्यक्तियों से सान्तवना तथा शांतिकारक मीठे वचन कहने चाहिये। पीड़ा-कारक कठोर बात कहनी चाहिये क्योंकि उनका हृदय पहले ही दुःखी होता है तुम्हारे कठोर वचनों से और भी अधिक दुखेगा। यह जीभ यदि अच्छे वचन बोलती है तो वह अमूल्य है। अगर यह झूठ, भ्रमकारक, भय उत्पादक, पीड़ादायक, कलहकारी, क्षोमकारक निंदनीय वचन कहती है तो यह जीभ चमड़े का अशुद्ध टुकड़ा है।



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