गैर सरकारी संगठन - Non Government Organization - अध्याय -4 - आम संगठनों का प्रबंधन

गैर सरकारी संगठन -  Non Government Organization - 

अध्याय -4 
आम संगठनों का प्रबंधन

प्रबंधन चाहे वह व्यावसायिक हो या लोक कल्याणकारी, उसके उद्देश्यों और उसके मिशन की व्याख्या करना जरूरी समझा जाता है। किसी एक स्वयंसेवी संगठन के बारे में आम तौर पर इसका उल्लेख होना जरूरी माना ही जाता है । किसी एक
सोसायटी के मिशन विवरण को तैयार करने में इस बात का संकेत मिलता है कि समाज के किन वर्गों की वह सेवा करना चाहता है। सोसायटी से स्पष्ट परिभाषित उद्देश्यों का उल्लेख के बिना उस संगठन के क्रियाकलापों और उसके द्वारा किये जाने वाले प्रयत्लों
करें तो इसकी आवश्यकता किसी-न-किसी रूप में बहुत पहले से ही बनी हुयी थी। समय के साथ इसे न केवल लाभकारी संगठनों द्वारा महत्त्व दिया गया बल्कि ऐसे संगठनों ने भी इसे अपनाया जो कि स्वैच्छिक व गैर-लाभकारी थे।

स्वैच्छिक संगठनों का प्रबंधन

समस्या की पहचान, समाधान के संभावित हल, उठाए जाने वाले आवश्यक कदम एवं समस्या से बचने के उपाय लाभ प्राप्तकर्ताओं की पहचान करने के लिए
अनिवार्य है।

योजना

व्यापारिक संगठन लाभ प्रेरित होने के कारण तीन या पांच वर्ष की योजनाएं बनाते हैं परंतु लाभ.अर्जित करने वाले संगठन लम्बे समय की योजनाएं नहीं बनाते। वे प्रायः उन समस्याओं पर काम करते हैं जो तत्काल उनके सामने आती हैं। दूसरी किसी समस्या पर या दूसरे किसी इलाके में जहां कोई अन्य समस्या हो तो वे तभी ध्यान देते हैं जब पहले हाथ में ली गई समस्या को वे हल कर लेते हैं। स्वयंसेवी करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रोजेक्ट के विभिन्न पहलुओं पर जैसे कि योजना तैयार करना, कार्य-नीतियां निर्धारित करना, फंड: करना, स्वयंसेवकों का प्रशिक्षण और प्रोजक्ट को वास्तव में लागू करने का काम इकट्ठा करना, स्वयंसेवकों को प्रोत्साहित करके किया जाता है, एक साथ नहीं किया जाता जैसाकि व्यापरिक
संगठनों में होता है।

ग़ैर-लाभकारी संगठनों को तत्काल धन की आवश्कता होती है। इसलिये वे तीन या पांच वर्ष की योजनाएं नहीं बनाते। ऐसी गैर-लाभकारी संस्थाएं मुख्य रूप
से जनता से थोड़ा-थोड़ा चन्दा इकट्ठा करके या स्वयं उत्पादित वस्तुओं को बेचकर या सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा दिए गए अंशदान से चलाई जाती हैं। लम्बे समय की योजनाओं के लिए बड़ी रकम के अनुदान की आवश्यकता पड़ती है जो सरकार
या निगमित घरानों से प्राप्त होता है।

सरकारी कारपोरेट फंड उचित मूल्यांकन के बाद अच्छी तरह से डिजाइन किए जाते हैं और बाद में दृढ़ता से उनका लगातार पुनरीक्षण किया जाता है। इसलिए मैनेजमेंट प्रैक्टिस के तौर पर प्लानिंग सिर्फ उन्हीं एन.जी. ओ. में ही की जाती है। जिनके लिए सरकार या कारपोरेट हाउसों की तरफ से फंड की व्यवस्था की जाती है तथापि किसी भी प्रोजेक्ट/कार्य व्यवस्था को लागू करने के लिए पूरे तौर पर सोच
विचार करके योजना तैयार की जाती है। एन.जी. ओ. में योजना तैयार करने के लिए निम्नवत कार्य करना होता है-

1. लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रोजेक्ट की डिजाइनिंग करना,

2. कार्य प्रणाली को कार्यरूप देने के लिए एक प्लान बनाना,

3. प्रोजेक्ट को लागू करने के लिए रणनीतियां बनाना,

4. काम करने वाले व्यक्तियों, मशीन, सामग्री और आवश्यक धन को आकना ।

किसी प्रोजेक्ट के प्रस्ताव को विश्वसनीय बनाने और उसे तैयार करने में उपर्युक्त विषयों से बहुत मदद मिलेगी।

संचालच

प्रबंधन के संवर्भ में गैर सरकारी संगठनों के संचालन की निम्नवत भूमिका है -

(1) कर्मचारियों की नियुक्ति- गैर सरकारी संगठन सामाजिक सहयोग के द्वारा सेवा कार्य करते हैं परन्तु इसके अतिरिक्त कुछ लीगों को चैतन वेकर भी काम
पर लगाना पड़ता है। स्टापितंग से तात्पर्य है कि कुछ काम ऐैसे निर्धारित कर लिए आएं जिन्हें चेतवभोगी कर्मचारियों दारा कराया जाए काम के लिए उपयुक्त
कर्मचारियों की अनिवार्य शैक्षिक योग्यताओं को भी निर्धारित करना पडता है। उन्हें उपयुक्त प्रशिक्षण भी दिया जाता है वयोंकि सेवा प्रदान करते समय उन्हें काफी मिन्न गैर-ख्यावसाचिक वातावरण में काम करना पइता है। जिससे कि इस कर्तव्य की निभाने में किसी तरह की कोई कठिनाई न आए । ऐसी स्थिति में उपयुक्त कार्य परिवेश में गैर सरकारी संगठनों को प्रयास करना होता है । गैर सरकारी संगठनीं के
संचालन के लिये यह समझना बेहद अनिवार्य है कि वर्तमान संदर्भ में इनकी आवश्कता क्या है या ये संगठन किस सीमा तक जनहित के कार्य कर सकते हैं? एन.जी.ओ. के मुखिया के लिये यह जरूरी है कि जिस एन.जी.ओ. को चलाना है, उसके लक्ष्य को सही माने में समझे और उसके लिये सही और उचित योजना बनाये । इन कामों के लिये मुखिया की सहायता हेतु दो उच्च- स्तरीय अधिकारी रखे जा सकते हैं। इनमें से एक को पत्नाचार और प्रशासन की जिम्मेदारियों व दूसरे अधिकारी को जो कि वित्त क्षेत्र में विशेषज्ञ हो उसे Fund-raising तथा Fund-utilization जिम्मेदारियां सौंपी जा सकती हैं । कित्त विशेषज्ञ की यह भी जिम्मेदारी है कि जो भी धन एकन्न हो, वह भली-भांति व ठीक प्रयोजनों के लिये खर्च हो। जो संस्थाएं इन संगठनों को अनुदान देती हैं उनकी कुछ शर्ते भी होती हैं । ऐसी स्थिति में यह अनिवार्य है कि शर्तों को भी पूरा करने पर ध्यान दिया जाए। इन दोनों अधिकारियों की सहायता के लिए 2-3 कर्मचारी रखे जायें ताकि एन.जी.ओ. अपने लक्ष्य प्राप्ति में सफल हो सके। इस बात को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है कि कर्मचारियों की संख्या कम से कम हो और उनका उपयोग अनुकूलतम हो क्योंकि एन.जी.ओ. के पास धनराशि प्रायः सीमित रहती है। खर्चे को सीमित रखने की आवश्यकता पर बल देना जरूरी है । एन.जी.ओ. के मुखिया को अपना ध्यान एन.जी. ओ. के अन्दरूनी मामलों, इसके लक्ष्य प्रेप्ति और Funding-agencies के बीच समन्वय रखने पर देना आवश्यक है। खचें को कम करने तथा कार्य को कुशलतापर्वक करने के लिये स्वयं गैर सरकारी संगठनों का सहयोग लेना अधिक उपयोगी हीता है। खर्य की और सीमित करने के लिये स्थानीय समाज सेवकों की निशुल्क सैवायें भी प्रदान की जा सकती हैं। कई सेवायें outsource भी की जा सकती हैं ताकि एन.जी.ओ. बकी जिम्मेदारियां स्थायी रूप में न बढ़े । इसके अतिरिक्त कृछ सेवायं Case to Case और
visit to visit आधार पर भी ली जा सकती है परन्तु, इस बात का पूरा ख्याल रखा जाये ये कि किसी तरह भी कर्मचारियों की कमी न रह जाये जी कि लक्ष्य प्राष्ति में बाधक सिद्ध हो। अतः गैर सरकारी संस्थानों की वित्तीय स्थित की सुदृढ़ता के लिये मानव संसाधनों के कुशलतम उपयोग की अनिवार्यता होती है।

(2) मार्केटिंग- लाभकारी प्रतिष्ठानों की तरह ही गैर लाभकारी प्रतिष्ठानों के लिये भी उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं का महत्व होता है। मार्केटिंग से यहां ताटपर्य
है कि एन. जी.ओ. द्वारा दी जाने वाली सेवाओं/रत्पादित वस्तुओं को टागेंट बैनीफिशरीज तक उन्हें पहुंचाना। यह जरूरी है कि दी जाने वाली सेवा के वारि में लाभ प्राप्तकर्ता व्यक्तियों के बीच जागरूकता पैदा की जाय। उन्हें यह बताया जाए कि प्रस्तावित सेवा उन्हें क्यों दी जा रही है। वैनीफिशरी और समाज को इससे क्या लाभ पहुंचता है और ये सेवाएं/पदार्थ उन्हें किस कीमत पर दिये जा रहे हैं इस पर ध्यान देना चाहिए परंतु इससे अपेक्षित लाभ तभी मिल सकता है जब सेवाओं के उपयोग में लोगों को बताया जाय।

(3) वित्त प्रबंधन - व्यावसायिक या सामाजिक सहयोगात्मक कार्यों में धन की विशेष आवश्यकता होती है। गैर-व्यापारिक कार्यक्रमों में स्वयं फंड पैदा करना तो संभव होता नहीं, क्योंकि ये काम धन कमाने के लिए नहीं किये जाते। ये नॉन-प्राफिट होते हैं। जो फंड इकटूठे होते हैं, खर्च उनसे कहीं ज्यादा होता है।
इसलिए धन की कमी हमेशा महसूस की जाती है। इसकी पूर्ति आवश्यक है। अतः फंड एकत्रित करने के लिए कोशिशें जारी रखनी पड़ती हैं। इसके अलावा, यह भी जरूरी है कि फंड काफी और उपयुक्त मात्रा में हर स्तर पर प्राप्त होते रहें या इकट्ठे किये जाएं ताकि प्रोजेक्ट को चालू रखने में किसी तरह की कोई बाधा न आए और न ही ऐसे फंड बकाया पड़े रहें जिनका प्रयोग न किया जा सके। इसलिए गैर-व्यापारिक संस्थाओं को फंड का अधिक से अधिक अनुकूल प्रयोग करना चाहिए। छोटे और मध्यम स्तर के एन. जी. ओ. मुख्य तौर पर निजी अंशदान जनता से प्राप्त किये गये चन्दे और अपनी उत्पादित वस्तु की बिक्री, चैरिटी शो आदि पर निर्भर करते हैं परन्तु बड़े एन.जी.ओ. के प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए धन की
व्यवस्था मुख्य तौर पर सरकारी कार्परिट हाउसों द्वारा की जाती है।

उपयुक्त धन की व्यवस्था करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि बकायण उपलब्ध फंड का निवेश इस प्रकार किया जाए जिससे कि उससे प्राप्त ब्याज/डिविटेंट या पूंजीगत लाभ को भविष्य में अनुकूलतम प्रयोग में लाया जा सके क्योंकि ऐसा न होने पर गैर-सरकारी संगठन आगे कार्यों को प्रभावी तरीके से नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त निवेश करते समय यह जानना बहुत जरूरी है कि फंड को ऐसी निर्धारित जमा योजनाओं में निवेशित किया जाए जिससे कि एन.जी.ओ. को आयकर छूट से वंचित न होना पड़े।

(4) प्रोजेक्ट पर कार्यान्वयन- किसी भी प्रोजेक्ट को बना लेने बाद यह अनिवार्य हो जाता है कि प्रोजेक्ट पर कार्य प्रारंभ किया जाय । प्रोजेक्ट पर उचित कार्य के रूप में माना जाए और प्रबंधन के सभी सिद्धान्त लागू किए जाएं। सबसे पहले प्रोजेक्ट के उद्देश्य को सुनिश्चित किया जाए क्योंकि इसके अभाव में न तो व्यवस्था बनायी जा सकती है तथा न ही कार्य को नियंत्रित किया जा सकता ।

नियंत्रण

गैर सरकारी संगठनों के लिये नियंत्रण प्रक्रिया विशेष महत्वपूर्ण होती है । ऐसे संगठनों का मूल उद्देश्य यह होता है कि टार्गेट ग्रुप के बैनिफिशरीज के जीवन स्तर
सुधार लाया जाए ताकि उन्हें जिन कठिनाइयों और परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, उसे कम से कम किया जाए। योजना तैयार करने और उसके कार्यान्वयन से संबंधित ऐसे कदम उठाए जाने चाहिए जिनसे संगठन के उद्देश्यों को पूरा करने में
सुगमता हो। इसके लिए सभी स्तर पर नियंत्रण की जरूरत है ।

साधनों के सफल उपयोग को सुनिश्चित करने तथा परिणामों का पता लगाने के लिये भी नियंत्रण की अनिवार्यता होती है । इससे यह भी सुनिश्चित हो जाता
है कि योजना पर कार्रवाई ठीक-ठीक हो रही है और अगर इसमें किसी तरह के संशोधन की आवश्यकता हो तो उसे भी समझदारी से लागू किया जा रहा है ।

भ्रष्टाचार का सभी जगह बोलबाला है। जब भी कभी कोई प्राकृतिक आपदा आाती है और एन.जी.ओ. के वर्करों को राहत कार्य करना होता है तो उनके सामने
कई तरह की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं । ठग/माफिया उनसे अपना हिस्सा मांगते नौकरशाही की तरफ से विरोध और प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है और नेतागण स्थिति का राजनीति लाभ उठाने में जुट जाते हैं। सामान्य परिस्थितियों में भी एन. जी.ओ. कार्यकर्ता को पुलिस और भाई बिरादरी या अपराध जगत का सामना करना पड़ता है। समस्याओं के समाधान के लिए गैर सरकारी संगठनीं को निम्नवत उपाय अपनाने चाहिये- 

(1) प्रतिपुष्टि- गैर सरकारी संगठनों के लिये प्रतिपुष्टि की विशेष आवश्यकता ही है। इसके लिए एन. जी. ओ. को एक प्रश्नावली तैयार कर लेनी चाहिए ज़िससे लाभान्वित व्यक्तियों से अपनी सेवाओं के बारे में मत-विचार प्राप्त किया जा सके। उनसे पता लगाया जाए कि क्या उन्हें ठीक स्तर की सेवा दी जा रही है, उसमें कोई कमी तो नहीं है। अगर कोई कमी हो तो उसे दूर करने के लिए उनसे सुझाव भी मांगे जाएं।

(2) बजट- गैर-सरकारी संगठनों द्वारा जो कार्यकारी बजट बनाया जाता है उसमें व्यय, उत्पादों व सेवाओं से परिमाणात्मक आवलन, राजस्व,व्याख्या व टिप्पणियों को समावेशित किया जाता है। साधारणतया बजट तैयार करते समय वार्षिक वृद्धि की एक निश्चित दर (पिछले इतिहास को देखते हुए) मान ली जाती है और सारा बजट तद्नुसार चित्रित किया जाता है परन्तु इस दर को भविष्य में संभावित परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए समायोजित कर लेना चाहिये।

बजट का प्रयोग एक नियंत्रण-साधन के रूप में किया जाता है जिसमें संवद्ध विभाग के राजस्व और व्यय की तुलना बजट अनुमानों से की जाती है। कार्य का आवधिक आकलन (अच्छा रहेगा यदि हर महीने) किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रोजेक्ट का जो काम चल रहा है वह परियोजनाओं के मुताबिक है या नहीं। यदि कोई बड़े व्यतिक्रम (कम या ज्यादा) पाए जाएं तो उनकी जांच करके उन्हें दुरुस्त करने के लिए उपयुक्त कार्रवाई की जाए तथा बजट अनुमानों में आवश्यक परिवर्तन किये जाएं।

(3) कार्य पालन पर नियंत्रण- कुछ आउटपुट ऐसे होते हैं जिनकी उपलब्ध साधनों से की जा सकती है परंतु इसके लिए कार्य-प्रकृति पर नियंत्रण करना
औनिवार्य होता है। उदाहरण के तौर पर एक अस्पताल के मामले में उपलब्ध बेडों की संख्या की तुलना एक निर्धारित अवधि में उनका अन्तरण मरीजों द्वारा किए गए प्रयोग से किया जा सकता है । (अर्थात अन्तरण मरीजों की संख्या X अंतरण मरीज का औसतन समय) । इसी प्रकार बाह्य रोगी विभाग के संबंध में, कार्य-निष्पादन का आकलन रोगियों के साथ डॉक्टरों के अनुपात से किया जा सकता है।

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