गैर सरकारी संगठन - Non Government Organization - अध्याय - 6 - खातों के रख-रखाव और ऑडिट

गैर सरकारी संगठन -  Non Government Organization - अध्याय - 6 - खातों के रख-रखाव और ऑडिट

खातों के रख-रखाव के लिए ट्रस्ट को उचित पुस्तकें रखना होगा और उनके समर्थन में रसीदें और वाउचर भी रखे। आय-कर कानून के तहत एकाउंट्स नकद या मार्केटाइल आधार पर रखे जा सकते हैं फिर भी ट्रस्ट को अपने खाते कैश आधार पर रखने चाहिये। ट्रस्ट को एक आय और व्यय का खाता तैयार करना चाहिए। ट्रस्ट द्वारा प्राप्त किया गया कोई भी स्वैच्छिक अंशदान (ट्रस्ट के कार्पस के लिए प्राप्त अंशदान को छोड़कर) उस ट्रस्ट द्वारा धारण की गई सम्पत्ति को आय के रूप में स्वीकार किया जायेगा।

यदि अंशदान एक विशिष्ट निर्देश के साथ दिए जाते हैं कि वे कार्पस का भाग होंगे, तो जारी की गई रसीद पर यह उद्धृत कर देना चाहिए, क्योंकि ये धारा 11(1)(d) पूर्णरूपेण कर मुक्त होंगे। किसी ट्रस्ट या संस्थान की एक वर्ष की कुल आय छूट मूल सीमा अर्थात् 1,60,000 रुपये से अधिक होती है तो उसके खाते हालांकि कुछ अर्हता प्राप्त चार्टर्ड एकाउंटेंट से ऑडिट करा लेने चाहिए और फार्म नं 10B2 में ऑडिट रिपोर्ट प्राप्त कर लेनी चाहिए। ऑडिट रिपोर्ट को आय की रिटर्न के साथ फाइल कर दी जाए। धारा 11 और 12 के तहत छूट प्राप्त करने के लिए ऑडिट रिपोर्ट को साथ फाइल करना अनिवार्य है हालांकि, कुछ आपवादिक परिस्थितियों में ऑडिट रिपोर्ट विलम्ब से देने पर भी छूट दी जा सकती है।

ऑडिट रिपोर्ट के साथ एक अनुलग्नक लगाया जाए जिसमें निम्नलिखित व्यौरे का उल्लेख किया जाएगा-

1. ऐसे उपक्रमों में निवेश जिनमें कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की प्रचुर अभिरूचि हो।
2. धर्मार्थ या धार्मिक उद्देश्यों के लिए प्रयोग में लाई गई या संचित की गई आय।
3. कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लाभ हेतु प्रयोग में लाई गई आय या सम्पत्ति।

एन.जी.ओ. द्वारा प्रोजेक्ट का निरूपण और उसका प्रस्ताव

प्रोजेक्ट एक ऐसी योजना है जिसे कुछ निश्चित उद्दश्यों एवं निर्धारित समय सीमा तथा योजना के अनुसार उपलब्ध साधनों के आधार पर पूरा किया जाता है।
गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ. ) में भी प्रोजेक्ट का महत्त्व है । एक एन.जी.ओ. के संबंध में प्रोजेक्ट एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा किसी एक टार्गेट ग्रुप
(जरूरतमन्द लोगों के एक वर्ग) के जीवन-यापन के हालात में कुछ वांछित परिवर्तन लाने का कार्यक्रम निर्धारित किया जाता है । इस विशेष परिवर्तन के काम को पूरा करने के लिए एक निर्धारित समय-सीमा रखी जाती है । इस पर जो खर्च आता इसका भी निर्धारण किया जाता है।

प्रोजेक्ट का निरूपण (PROJECT FORMULATION)

प्रोजेक्ट के निरूपण के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाई जाती है-

1. प्रोजेक्ट के प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए प्राजेक्ट का नियोजन करना,
2. वित्तीय प्रतिबंधों के अंतर्गत संसाधनों का आवंटन करने के लए प्रोजेक्ट को प्राथमिकता किस रूप में दी जा सकती है, इसका एक तुलनात्मक मूल्यांकन करना।

प्रोजेक्ट का निरूपण (तैयार करना) यह सुनिश्चित करने के लिए भी जरूरी है कि प्रोजेक्ट तकनीकी दृष्टि से सक्षम है, आर्थिक दृष्टि से वह उपयुक्त है व सामाजिक दृष्टि से वांछनीय है और यह दानकर्ता प्रायोजक संस्थान के साथ इसका सामंजस्य स्थापित होता है।

प्रोजेक्ट बनाने में समय, परिश्रम, धन तीनों का व्यय अधिक होता है। प्रोजेक में फंड मुहैया करने वाली एजेंसियों द्वारा उसे पूरा करने के लिए जो विभिन्न मानदण्ड बनाए गए हों, उन्हें भी पूरा करना होता है। अगर प्रोजेक्ट का प्रयोजन किसी संस्थान या दानी/प्रायोजक इकाई को स्वीकार्य न हो तो उसे तैयार करने पर की गई साथी मेहनत, खर्च किया गया समय और धन सब व्यर्थ चला जाता है अतः इसका कोई महत्त्व नहीं रह जाता है।

चरण 1- संकल्पना

(1) समस्या की पहचान करना

संकल्पना का पहला कदम समस्या की पहचान करना। इसका प्रोग्राम की गतिविधियों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। समस्याओं को कम करने या उनका पूरी
तरह से उन्मूलन करने के लिए प्रोग्राम को कार्यरूप में परिणत करना ही एक सचेत प्रयत्न कहा जा सकता है। समस्या की पहचान किये बिना इसको व्यावहारिक रूप प्रदान नहीं किया जा सकता । समस्या किसी स्वाभाविक आन्तरिक जरूरत के रूप में हो सकती है जैसे कि आर्थिक, चिकित्सा संबंधी, शिक्षा या मनोरंजन संबंधी आदि । यह समस्या किसी भी व्यक्ति के उपयुक्त जीवन-यापन में रूकावट पैदा करने वाली हो सकती है या उसके जीवन में समस्या उत्पन्न कर सकने वाली हो सकती है । कोई ऐसा बदलाव या परेशानी भी हो सकती है (मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, शारीरिक या पर्यावरण संबंधी) जो उसे उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने में अकर्मण्य बना देती हो या उन्हें निभाने में रूकावटें पैदा करती हो। इसलिए समुदाय (Community) की समस्या को समझना अत्यावश्यक है और उसकी पृष्ठभूमि और समस्या के सैद्धान्तिक पहलुओं को भी अवश्य विचार में लाया जाना चाहिए। बिना इस पर अमल किये इसके सही अर्थ को नहीं समझा जा सकता है।

समस्या क्या है, इसके वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए साधनों तथा तरीकों को अपनाना पड़ता है। व्यक्तिगत सम्पर्क, ग्रुप मीटिंग, विचारों का आदान-प्रदान, सर्वेक्षण, अतिरिक्त आंकड़े एकत्रित करना, अनुसंधानात्मक अध्ययन, विभिन्न ग्रुपो, संबंधित संगठनों और विभागों से संपर्क करके उपयुक्त रिकार्ड प्राप्त करना आदि आवश्यक आंकड़े इकट्ठा करने के मुख्य तरीके हैं । इन तरीकों को अपनाकर इस
प्राप्त किया जा सकता है।

(2) सगस्या का रामाधान ढूंढना

समस्या का समाधान क्या है, इसको भी ध्यान में रखना पड़ता है। प्रौग्राम की गतिविधियां भी समाधान हो सकती हैं। इसके लिए समस्या को तर्क-वितर्क के साथ
समझना और उसका विश्लेषण करना पड़ता है ।समस्या को सुलझाने के लिए निम्नलिखित दो तरीके अपनाए जा सकते हैं-

(I) उपचारात्मक तरीका-यह तरीका तत्काल हल प्रदान करता है और यह आम तौर पर छोटे समय के लिए ही होता है,

(II) विकासजन्य तरीका-यह समस्या का स्थायी समाधान प्रदान करता है। जो कि आम तीर पर लम्बे समय तक प्रभावशाली रहता है।
प्रयत्न करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है और इसके लिए अन्य समान विचार वाले लोगों, स्टाफ और उस क्षेत्र के विशेषज्ञों से भी सहयोग लिया जा सकता है।

(3) कार्य विधियों को सूचीबद्ध करना
प्रस्तावित हल निकालने के लिए जो भी कार्यविधियां संभव समझी जाती हों, उन्हें सूचीबद्ध कर लेना चाहिए। ये कार्यविधियां केवल सफलता में बाधा डालने वाले तत्वों को ही कम करने में उपयोगी नहीं होंगी बल्कि विकास के कार्यों में सावधानी बरतने में भी साधक सिद्ध होती हैं । कार्य विधियों को सूचीबद्ध करने से कार्य सही दिशा में होता है ।

(4) विचारों में एकरूपता लाना
प्रोजेक्ट वर्क में लोग मिलकर कार्य करते हैं। इसमें कई लोगों के जुड़ने से कार्य में गतिशीलता आती है। इसमें समुदाय के लोग, वालंटीयर और स्टाफ के लोग सभी शामिल होते हैं। इसलिए, समस्या के सभी पहलुओं, संभावित समाधानों और एक्शन प्लान पर प्रोजेक्ट के पूरे कार्यकाल में परस्पर विस्तृत विचार-विमर्श करते
रहना चाहिए। इस प्रकार, विचारों के पारस्परिक आदान-प्रदान से अन्ततः यह लाभ होगा कि आगे आने वाली अड़चनों को को नया रूप भी दिया जा सकेगा ताकि प्रोजेक्ट को सफलता प्राप्त हो सके। प्रोजेक्ट
के विभिन्न अवयवों-पहलुओं, जनता के साथ उनके संबंध, संसाधनों की आवश्यकता और उसके कार्यपालन की रणनीति आदि पर भी विस्तार से विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। अगर जरूरत पड़े तो संबंधित कार्यक्षेत्र के विशेषज्ञों की सलाह भी
ली जा सकती है।

चरण 2 - नियोजन

किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व इसका नियोजन करना होता है। किसी भी कार्य में निर्माण पहला चरण होता है। इसके अंतर्गत इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तर्क-संगत कार्यविघि तैयार की जाती है। इससे समाज के एक ऐसे वर्ग की विचारधारा को प्रोत्साहन मिलता है जो विकास लाना चाहता है। प्लानिंग इसलिए भी जरूरी है कि लोग सेवाओं का पूरा-पूरा लाभ उठा सकें, मूलभूत ढांचे को ठीक तरह से तैयार किया जा सके, प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की जा सके. सम्मेलन (Conferences) आयोजित किए जा सकें और धन उगाहा जा सके आदि।

नियोजन के सिद्धान्त
नियोजन के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं-

(1) प्लानिंग सभी स्तरों पर योगदान-नियोजन में सभी संबंधित विभागों और व्यक्तियों के साथ विचार-विमर्श करना शामिल है। इस संबंध में सिर्फ ऊंचे
अधिकारियों के साथ ही विचार-विमर्श नहीं है। प्लानिंग से यह सुनिश्चित होता है कि ऊपर का सिर्फ एक अधिकारी ही स्वयं अपनी सोच के आधार पर निर्णय नहीं लेता इसमें भाग लेने के लिए सभी स्तर के व्यक्तियों को मौका दिया जाता है।

(2) नियोजन का अविरोध चलते रहना-नियोजन को एक गतिशील प्रणाली कहा जाता है। इसके लिए लगातार पुनर्विचार और मनन की जरूरत है ताकि
अगर प्लान अपने निर्धारित टार्गेट प्राप्त नहीं कर रहा है तो उसमें जो कमियां हों उन्हें दूर कर दिया जाए। इसलिए नियोजन का काम निरन्तर चलता ही रहना
चाहिए।

(3) वास्तविकता-किसी भी कार्य को सफल बनाने के लिए उसका नियोजन स्पष्ट एवं साफ-सुथरा होना चाहिए ताकि किसी प्रकार के संदेह की कोई
गुंजाइश न हो।

(4) मूल्यांकन-नियोजन की प्रभावशीलता को सुनिश्चित करने के लिए उसके मूल्यांकन के लिए प्रभावकारी तरीके अपनाए जाने चाहिए। किसी भी कार्य में मूल्यांकन उसकी अंतिम अवस्था होती है।

चारण 3 -उद्देश्य

उद्देश्य यह बताते हैं कि वास्तव में संगठन क्या करना चाहता है। एन.जी.ओ. का सामान्य उद्देश्य मानव को सेवा प्रदान करना होता है । फिर भी हर एक एन.ए.जी. का एक विशेष लक्ष्य होता है जिसका उल्लैख एक सपष्ट शब्दींमें किया जाना चाहिए, जैसे कि निर्धन बच्चों को शिक्षा प्रदान करना, स्कूल से हरा लिए गए वियार्थियों की व्यावसायिक प्रशिक्षण वेना, किसानीं की आसान शरतीं पर ऋण देना, इहिज प्रथा की शिकार महिलाओं की समस्या पर काम करना आदि।

संगठन (organisation) के उद्देश्यों की वार्षिक टार्गट के में एडवस में ही या वर्ष-प्रतिवर्ष के आधार पर उल्लिखित करना श्रेयर्कर होगा। टारगट भले हीं
प्राप्त हो या न हीं, परन्तु वै वास्तविक एवं व्यावहारिक हों ।

चरण 4-संगठन

नियोजन के बाद संगठन आता है, संगठन में कार्य को सही तीरके से संगठित किया जाता है। संगठन में निम्नलिखित विषय आते हैं-

1. निर्धारित लक्ष्य के आधार पर नियोजन करना,
2. सेवाएं प्रदान करने के लिए वालंटीयर इकटूठे करना,
3. आवश्यकतानुसार तनख्वाह पर कर्मचारियों की भर्ती करना,
4. आवश्यक आपूर्तियों की व्यवस्था करने के लिए दान स्वरूप या बाजार से उपयोगी वस्तुओं को प्राप्त करना तथा
5. संगठन की गतिविधियों के लिए यदि चन्दै के रूप में प्राप्त धन राशि पर्याप्त न हो तो, प्रबंधन तथा अन्य ऊपर कै खर्चा को पूरा करने के लए वित्तीय धन
की व्यवस्था करना ।

एक बार जब संसाधनों की व्यवस्था हो जाती है तो उनका ऐसा तालमेल बिठाया जाए अनुकूलतम उपयोग किया जाए तथा उन पर ऐसा नियंत्रण रखा जाए कि उन पर आने वाली लागत का पूरा-पूरा लाभ उठा कर अधिक से अधिक प्रभावी बना सके तथा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।

चरण 5-बजट बनाना

प्रोजेक्ट कार्य में बजट बनाना एक प्रमुख कार्य होता है। इसके लेखा-जोखा तथा लाभ-हानि का विवरण होता है। एक बार जब संगठन के उद्देश्यों तक पहुंचने
के लिए आवश्यक संसाधनों का निर्धारण कर दिया जाता है तब उन्हें धन के रूप में परिणत किया जाता है। जिन विभिन्न ग्रोतों से आवश्यक फंड प्राप्त किये जा सकते हैं, उनका नामाकन कर दिया जाता है। इस कार्यप्रणाली को बजट बनाना कहते हैं। इसमें यह स्पष्ट उल्लेख कर दिया जाता है कि एक खास अवधि के दौरान किन-किन साधनों के माध्यम से धन इकट्ठा किया जा सकता है। धन का उपयोग किस कार्यों में किया जायेगा ।

अतः बजट एक ऐसा महत्वूपर्ण दस्तावेज है जिसके जरिये किसी एन.जी.ओ की वित्तीय जरूरतों को आंका जा सकता है। बजट आम तौर पर 12 महीने की अवधि के लिए तैयार किया जाना चाहिए। यह अवधि चाहे वित्तीय वर्ष की हो या कैलेण्डर वर्ष की हो।

अगर संगठन की गतिविधियाँ विभिन्न वर्गों या शाखाओं द्वारा संपादित किए जाने हो तो हर शाखा को अपने कार्य संचालन के लिए अलग से बजट
तैयार करना चाहिए और उन सबको एक केन्द्रीय स्तर पर संघटित कर देना चाहिए।

बजट में आय-व्यय में संतुलन स्थापित होना चाहिए जिससे खर्च होने वाले धन का पता लग सके जिसमें घाटे या बची हुई धनं राशि को दिखाया गया हो।
अगर घाटा हो तो उसे किन साधनों से पूरा किया जाएगा या खर्च को किस प्रकार से कम किया जाएगा, इस बात का उल्लेख कर देना चाहिए।

बजट का निर्माण पहले से बना लेना चाहिए जो वास्तविकता के आधार पर बना हो और सही हो। इसमें कुछ खास अप्रत्याशित या असामान्य खर्च की भी व्यवस्था कर देनी चाहिए।

चरण 6-फंड उगाहना

प्रोजेक्ट कार्य में दानकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । दानकर्ताओं में प्रोजेक्ट पर विचार करने के निमित्त आकर्षण पैदा करके, प्रोजेक्ट की क्षमताओं को प्रकट करके उनके प्रति विश्वास की भावना जागृत करनी चाहिए और उनसे सहयोग प्राप्त करने के लिए उन पर जोर डालकर उनकी रजामन्दी प्राप्त करनी चाहिए-

(1) फंड उगाहने के लिए दानकार्तओं की पहचान-संभावित दानकर्ता कोई एक व्यक्ति, कार्पोरेट इकाई, औद्योगिक घराने, अन्य ट्रस्ट/आर्गेनाईजेशन, फॉडेंग
एजेंसियां, सरकार आदि कोई भी हो सकता है। दानकर्ताओं की पहचान उनके उपलब्ध फंड को दृष्टि में रखकर और उनके भीतर समाज की एक विशिष्ट समस्या के निवारण के लिए वचनबद्धता को देखकर की जानी चाहिए। उनके कार्यकलाप बिना व्यवधान के निरन्तर चलते रहें, इसके लिए एन.जी.ओ. को सिर्फ एक दानकार्ता से प्राप्त फंड से ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। इसके लिए विभिन्न दानकर्ताओं से समर्थन प्राप्त होना आवश्यक है।

(2) दानकर्ताओं के साथ सम्पर्क-दानकर्ताओं के साथ संपर्क बनाने के माध्यण है-डाक द्वारा, स्वयं उनसे मिलकर, समाचार पत्रों पैंगजीनों में विज्ञापन/इश्तहार
तैकर और छपे हुए इश्तहारों को वितरित करके । प्रारम्भिक बातचीत संक्षिप्त होनी चाहिए पर ऐसी हो कि वे मान जाएं और योजना से प्रभावित हों। रुचि रखने वाले दानकर्ताओं को प्रोजेक्ट का विस्तृत प्रस्ताव डाक द्वारा या निजी तौर पर दिया जा सकता है । यही सम्पर्क न र्थापित होने से भी इसमें समस्या आती है।

(3) प्रोजैक्ट का प्रस्ताव तैयार करना-आम तौर पर फंड मंजूर करने वाले एजेंसियों, जैसे कि सरकार विदेशी एजेंसियां और बड़े औद्योगिक घराने, प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी अपने ही बनाए हुए प्रारूप में प्राप्त करना चाहती है। फिर भी वे कभी-कभी यह जिम्मेदारी एन.जी.ओ. पर भी छोड़ देते हैं, इसके अतिरिक्त, अगर एन.जी.ओ. ने प्रोजेक्ट का विस्तृत प्रस्ताव तैयार कर लिया है तो फंडिंग एजेंसियों को फार्मेट में जानकारी देने में इससे सहायता मिलेगी।

प्रोजेक्ट में क्या समस्या है, इसका पलता लगाना बहुत आवश्यक होता है, साथ ही प्रस्ताव में संगठन की विश्वसनीयता को भी समझना आवश्यक होता है। इस बारे में पर्याप्त जानकारी दी जानी चाहिए। प्रग्राम की संभाव्यता, संसाधनों की आवश्यकता और अब तक उस पर कितनी उपलब्धि हो चुकी है, इस बारे में भी
स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए या सहायता के संबंध में सेवा प्रदाता द्वारा वसूली गई सकल रकम कर योग्य सेवा का मूल्य होगी।

कांतिवद्द्धक और प्लास्टिक शल्यक्रियाः के संबंध में वसूली गई कुल रकम करयोग्य सेवा का मूल्य होगी।

वस्तु व सागग्री के मूल्य पर कोई सेवा नहीं

वस्तु व सामग्री के मूल्य पर किसी प्रकार का सेवा कर नहीं लिया जायेगा । सेवा प्रदान करने वाला, उन सेवाओं को प्राप्त करने वाले को, सेवाएं प्रदान करने
के दौरान यदि कोई वस्तुएं व सामग्री बेचता है, तो उनका मूल्य सेवा कर से मुक्त होगा ।

जहां उन वस्तुओं की बिक्री स्पष्ट रूप से दिखाई जाती है वहीं पर यह छूट दी जाएगी और उसकी संख्या और मूल्य बिल में अलग से दिखाया जाता है।

इसके अतिरिक्त, यह छूट इस शर्त पर उपलब्ध होगी कि या तो उन वस्तुओं पर कोई क्रेडिट नहीं लिया गया है और यदि लिया भी गया हो तो उन वस्तुओं की बिक्री से पहले इस क्रेडिट को कर दिया गया है।

इसका भी उल्लेख किया गया है कि करमर्शियल ट्रैनिंग और कोचिंग संस्थानीं के मामले में, यह छूट सिर्फ मानक पाठ्य पुस्तकों, जिन पर कीमत लिखी है, के
विक्री मूल्य पर लागू होगी। ऐसा संस्थान यदि कोई पाठन सामग्री या लिखित पाठ सेवा के भाग के रूप में प्रदान करता है तो , जो ऊपर बताए मानक को संतुष्ट नहीं करता, उससे कर लिया जाएगा।

1 अप्रैल, सन् 2008 से 10 लाख रुपये की मौलिक छूट

1अप्रैल, सन् 2008 से सेवा प्रदान करने वाला व्यक्ति एक वित्तीय वर्ष में सभी कर-योग्य सेवाओं के सकल मूल्य में से 10 लाख रुपये तक की छूट प्राप्त करने
का पात्र है । अगर सभी कर-योग्य सेवाओं का सकल मूल्य (छूट प्राप्त रकमों को छोड़कर) पूर्ववर्ती वित्तीय वर्ष में 10 लाख रुपये से अधिक नहीं था, परन्तु इसके लिए निर्धारित शतों को भी पूरा करना आवश्यक है। 31 मार्च 2008 तक यह सीमा 8 लाख रुपये थी।

सेवा कर की दर

बस्तुओं पर लगाई जाने वाली सेवा कर की दर वस्तुओं के मूल्य का दस प्रतिशत होगी। इसके अतिरिक्त, सेवा कर की रकम पर 2% शिक्षा उपकर तथा 1% की दर से माध्यमिक और उच्च शिक्षा उपकर भी लगाया जाएगा। इस प्रकार, सेवा कर 10.3% की दर पर लगाया और वसूल किया जाएगा।

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